अनुकंपा
From जैनकोष
पं.का./मू./१३७/२०१ तिसिदं बुभुविखदं वा दुहिदं दट्ठूण जो दूदुहिदमणो। पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकंपा।।
= तृषातुर, क्षुधातुर अथवा दुखी को देखकर जो जीव मनमें दुःख पाता हुआ उसके प्रति करुणा से वर्तता है, उसका वह भाव अनुकम्पा है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या /६/१२/३३० अनुग्रहार्द्रीकृतचेतसः परपीडात्मस्थामिव कुर्वतोऽनुकम्पनमनुकम्पा।
= अनुग्रह से दयार्द्र चित्तवाले के दूसरे की पीड़ा को अपनी ही मानने का जो भाव होता है, उसे अनुकम्पा कहते हैं।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ६/१२,३/५२२/१६)
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/२,३०/२२/९ सर्वप्राणिषु मैत्री अनुकम्पा।
= सर्व प्राणी मात्र में मैत्रीभाव अनुकम्पा है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा संख्या २६८ तृषितं वा वुभुक्षितं वा दुःखितं वा दृष्ट्वा किमपि प्राणिनं यो हि स्फुटं दुःखितमनाः सन् प्रतिपद्यते स्वकिरोति दयापरिणामेन तस्य पुरुषस्येषा प्रत्यक्षीभूता शुभोपयोगरूपानुकम्पा दया भवतीति।
= प्यासे को या भूखेकी या दुःखित किसी भी प्राणी को देखकर जो स्पष्टतः दुःखित मन होकर दया परिणाम के द्वारा (उनकी सेवा आदि) स्वीकार करता है, उस पुरुष के प्रत्यक्षीभूत शुभोपयोग रूप यह दया या अनुकम्पा होती है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक संख्या ४४६,४५० अनुकम्पा कृषा ज्ञेया सर्वसत्त्वेष्वनुग्रहः। मैत्रीभावोऽथ माध्यस्थं नैःशल्यं वैरवर्जनात् ।।४४६।। समता सर्वभूतेषु यानुकम्पा परत्र सा। अर्थतः स्वानुकम्पा स्याच्छल्यवच्छल्यवर्जनात् ।।४५०।।
= अनुकम्पा शब्द का अर्थ कृपा समझना चाहिए अथवा वैर के त्याग पूर्वक सर्व प्राणियों पर अनुग्रह, मैत्रीभाव, माध्यस्थभाव और शल्य रहित वृत्ति अनुकम्पा कहलाती है ।।४४६।। जो सब प्राणियों में समता या माध्यस्थभाव और दूसरे प्राणियों के प्रति दया का भाव है वह सब वास्तव में शल्य के समान शल्य के त्याग होने के कारण स्वानुकम्पा ही है ।।४५०।।
दर्शनपाहुड़ / मूल या टीका गाथा संख्या २/पं. जयचन्द "सर्व प्राणीनि विषै उपकार की बुद्धि तथा मैत्री भाव सो अनुकम्पा है, सो आप ही विषे अनुकम्पा है"।
१. अनुकम्पा के भेद
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या १८३४/१६४३/३ अनुकम्पा त्रिप्रकारा। धर्मानुकम्पा, मिश्रानुकम्पा, सर्वानुकम्पा चेति।
= अनुकम्पा या दया इसके तीन भेद हैं - धर्मानुकम्पा, मिश्रानुकम्पा और सर्वानुकम्पा।
२. अनुकम्पा के भेदों के लक्षण
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या १८३४/१६४३/५ तत्र धर्मानुकम्पा नाम परित्यक्तासंयमेषु मानावमानसुखदुःखलाभालाभतृणसुवर्णादिषु समानचित्तेषु दान्तेद्रियान्तःकरणेषु मातरमिव मुक्तिमाश्रितेषु परिहृतोग्रकषायविषयेषु दिव्येषु भोगेषु दोषान्विचिन्त्य विरागतामुपगतेषु, संसारमहासमुद्राद्भयेन निशास्वप्यल्पनिद्रेषु, अंगीकृतनिस्संगत्वेषु, क्षमादिदशविधधर्मपरिणतेषु यानुकम्पा सा धर्मानुकम्पा, यया प्रयुक्तो जनो विवेकी तद्योग्यान्नपानावसथैषणादिकं संयमसाधनं यतिभ्यः प्रयच्छति। स्वामविनिगुह्यशक्तिम् उपसर्गदोषानपसारयति, आज्ञाप्यतामितिसेवां करोति भ्रष्टमार्गाणां पन्थानमुपदर्शयति। तैः प्रसंयोगमवाप्य अहो सपुण्या वयमिति हृष्यति, सभासु तेषाम् गुणान् कीर्तयति स्वान्ते गुरुमिव पश्यति तेषां गुणानामभीक्ष्णं स्मरति, महात्मभिः कदा नु मम समागम इति तैः संयोगं समीप्सति, तदीयान् गुणान् परैरभिवर्ण्य मानान्निशम्य तुष्यति। इत्थमनुकम्पापरः साधुर्गुणानुमननानुकारी भवति। त्रिधा च सन्तो बन्धमुपदिशन्ति स्वयं कृतैः, करणायाः, परैः कृतस्यानुमतेश्च ततो महागुणराशिगतहर्षात् महान् पुण्यास्रवः। मिश्रानुकम्पोच्यते पृथुपापकर्ममूलेभ्यो हिंसादिभ्यो व्यावृताः संतोषवैराग्यपरमनिरता, दिग्विरतिं, देशविरतिं, अनर्थदण्डविरतिं चोपगतास्तीव्रदोषात् भोगोपभोगान्निवृत्य शेषे च भोगे कृतप्रमाणाः पापात्परिभीतचित्ताः, विशिष्टदेशे काले च विवर्जितसर्व सावद्याः पर्वस्वारम्भयोगं सकलं विसृज्य उपवासं ये कुर्वन्ति तेषु संयतासंयतेषु क्रियमाणानुकम्पा मिश्रानुकम्पोच्यते। जीवेषु दयां च कृत्वाकृत्स्नामबुध्यमानाः जिनसूत्राद्बाह्या येऽन्यपाखण्डरताविनीताः कष्टानि तपांसि कुर्वन्ति क्रियमाणानुकम्पा तया सर्वोऽपि कर्मपुण्यं प्रचिनोति देशप्रवृत्तिर्गृहिणामकृत्स्नत्वात्। मिथ्यात्वदोषोपहतोऽन्यधर्म इत्येषु मिश्रो भवति धर्मो मिश्रानुकम्पामवगच्छेज्जन्तुः। सदृष्टयो वापि कुदृष्टयो वा स्वभावतो मार्दवसंप्रयुक्ताः। यां कुर्वते सर्वशरीरवर्गे सर्वानुकम्पेत्यभिधीयते सा। छिन्नान् विद्वान् बद्धान् प्रकृतविलुप्यमानांश्च मर्त्यान्, सहैनसो निरेनसो वा परिदृश्य मृगान्विहगान् सरीसृपान् पशूंश्र मांसादि निमित्तं प्रहन्यमानान् परलोके परस्परं वातान् हिंसतो भक्षयतश्च दृष्ट्वा सूक्ष्माङ्कान् कुन्थुपिपीलिकाप्रभृतिप्राणभृतो मनुजकरभखरशरभकरितुरगादिभिः संमृद्यमानानभिवीक्ष्य असाध्यरोगोरगदर्शनात् परितप्यमानान् मृतोऽस्मि नष्टोऽस्म्यभिधावतेति रोगानुभूयमानान्, स्वपुत्रकलत्रादिभिरप्राप्तिकालिः (?) सहसा वियुज्य कुर्वतो रुजा विक्रोशतः स्वाङ्गार्निघ्नतश्च, शोकेन उपार्जितद्रविणैर्वियुज्यमानान् प्रनष्टबन्धून् धैर्यशिल्पविद्याव्यवसायहीनान् यान् प्रज्ञाप्रशक्त्यावराकान् निरीक्ष्य दुःखमात्मस्थमिवं विचिन्त्य स्वास्थ्यमुपशमनमनुकम्पा।
= १. धर्मानुकम्पा - जिन्होंने असंयम का त्याग किया है। मान, अपमान, सुख, दुःख, लाभ, अलाभ, तृण, स्वर्ण इत्यादि कों में जिनकी बुद्धि रागद्वेष रहित हो गयी है, इन्द्रिय और मन जिन्हों ने अपने वश किये हैं, माता की भाँति युक्ति का जिन्होंने आश्रय लिया है, उग्र कषाय विषयों को जिन्होंने छोड़ दिया है, दिव्य भोगों को दोष युक्त देखकर जो वैराग्य युक्त हो गये हैं, संसार समुद्र की भीति से रातमें भी अल्प निद्रा लेनेवाले हैं। जिन्होंने सम्पूर्ण परिग्रह को छोड़ कर निःसंगता धारण की है, जो क्षमादि दस प्रकार के धर्मों में इतने तत्पर रहते हैं कि मानो स्वयं क्षमादि दशधर्म स्वरूप ही बने हों, ऐसे संयमी मुनियों के ऊपर दया करना, उसको धर्मानुकम्पा कहते हैं। यह अन्तःकरण में जब उत्पन्न होती है तब विवेकी गृहस्थ यतियों को योग्य अन्नजल, निवास, औषधादिक पदार्थ देता है। अपनी शक्ति को न छिपाकर वह मुनि के उपसर्ग को दूर करता है। हे प्रभो! आज्ञा दीजिए, ऐसी प्रार्थना कर सेवा करता है। यदि कोई मुनि मार्गभ्रष्ट होकर दिङ्मूढ हो गये हों तो उनको मार्ग दिखाता है। मुनियों का संयोग प्राप्त होने से `हम धन्य है' ऐसा समझकर मनमें आनन्दित होता है, सभा में उनके गुणों का कीर्तन करता है। मनमें मुनियों का धर्मपिता व गुरु समझता है। उनके गुणों का चिन्तन सदा मनमें करता है, ऐसे महात्माओं का फिर कब संयोग होगा ऐसा विचार करता है, उनका सहवास सदा ही होने की इच्छा करता है, दूसरों के द्वारा उनके गुणों का वर्णन सुनकर सन्तुष्ट होता है। इस प्रकार धर्मानुकम्पा करनेवाला जीव साधु के गुणों को अनुमोदन देने वाला और उनके गुणों का अनुकरण करनेवाला होता है। आचार्य बन्ध के तीन प्रकार कहते हैं - अच्छे कार्य स्वयं करना, कराना और करनेवालों को अनुमति देना, इससे महान् पुण्यास्रव होता है, क्योंकि महागुणों में प्रेम धारण कर जो कृत कारित और अनुमोदन प्रवृत्ति होती है वह महापुण्य को उत्पन्न करती है। २. मिश्रानुकम्पा - महान् पातकों के मूल कारण रूप हिंसादिकों से विरक्त होकर अर्थात् अणुव्रती बनकर सन्तोष और वैराग्य में तत्पर रहकर जो दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्डत्याग इन अणुव्रतों को धारण करते हैं, जिनके सेवन से महादोष उत्पन्न होते हैं ऐसे भोगोपभोगों का त्यागकर बाकी के भोगोपभोग की वस्तुओं को जिन्हों ने प्रमाण किया है, जिनका मन पापसे भय युक्त हुआ है, पापसे डरकर विशिष्ट देश और कालकी मर्यादा करि जिन्होंने सर्व पापों का त्याग किया है अर्थात् जो सामायिक करते हैं, पर्वों के दिनमें सम्पूर्ण आरम्भ का त्याग कर जो उपवास करते हैं; ऐसे संयतासंयत अर्थात् गृहस्थों पर जो दया की जाती है उसको मिश्रानुकम्पा कहते हैं। जो जीवों पर दया करते हैं, परन्तु दया का पूर्ण स्वरूप जो नहीं जानते हैं, जो जिनसूत्रसे बाह्य हैं, जो अन्य पाखण्डी गुरु की उपासना करते हैं, नम्र और कष्टदायक कायक्लेश करते हैं, इनके ऊपर कृपा करना यह भी मिश्रानुकम्पा है, क्योंकि गृहस्थों की एकदेशरूपता से धर्म में प्रवृत्ति है, वे सम्पूर्ण चारित्र रूप धर्म का पालन नहीं कर सकते। अन्य जनों का धर्म मिथ्यात्व से युक्त है। इस वास्ते गृहस्थ धर्म और अन्य धर्म दोनों के ऊपर दया करने से मिश्रानुकम्पा कहते हैं। ३. सर्वानुकम्पा - सुदृष्टि अर्थात् सम्यग्दृष्टि जन, कुदृष्टि अर्थात् मिथ्यादृष्टि जन यह दोनों भी स्वभावतः मार्दव से युक्त होकर सम्पूर्ण प्राणियों के ऊपर दया करते हैं, इस दया का नाम सर्वानुकम्पा है। जिनके अवयव टूट गये, जिनको जख्म हुई है, जो बाँधे गये हैं, जो स्पष्ट रूपसे लूटे जा रहे हैं, ऐसे मनुष्यों को देखकर, अपराधी अथवा निरपराधी मनुष्यों को देखकर मानो अपने को ही दुःख हो रहा हो, ऐसा मानकर उनके ऊपर दया करना यह सर्वानुकम्पा है। हिरण, पक्षी, पेटसे रेंगनेवाले प्राणी, पशु इनको मांसादिक के लिए लोग मारते हैं ऐसा देखकर, अथवा आपसमें उपर्युक्त प्राणी लड़ते हैं और भक्षण करते हैं ऐसा देखकर जो दया उत्पन्न होती है, उसको सर्वानुकम्पा कहते हैं। सूक्ष्म कुंथु, चींटी वगैरह प्राणी, मनुष्य, ऊँट, गधा, शरभ, हाथी, घोड़ा इत्यादिकों के द्वारा मर्दित किये जा रहे हैं, ऐसा देखकर दया करनी चाहिए। असाध्य रोग रूपी सर्प से काटे जाने से जो दुखी हुए हैं, `मैं मर रहा हूँ' `मेरा नाश हुआ' `हे जन दौड़ो' ऐसा जो दुःख से शब्द कर रहे हैं, रागों का जो अनुभव करता है उनके ऊपर दया करनी चाहिए। पुत्र, कलत्र, पत्नी वगैरह से जिनका वियोग हुआ है, जो रोग पीड़ा से शोक कर रहे हैं, अपना मस्तक वगैरह जो वेदना से पीटते हैं, कमाया हुआ धन नष्ट होनेसे जिनको शोक हुआ है, जिनके बान्धव छोड़कर चले गये हैं, धैर्य, शिल्प, विद्या, व्यवसाय इत्यादिकों से रहित हैं, उनको देखकर अपने को इनका दुःख हो रहा है ऐसा मानकर उन प्राणियों को स्वस्थ करना, उनकी पीड़ा का उपशम करना, यह सर्वानुकम्पा है।