द्रौपदी
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
(पांडव पुराण/सर्ग/श्लो.)
–दूरवर्ती पूर्वभव में नागश्री ब्राह्मणी थी। (23/82)। फिर दृष्टिविष नामक सर्प हुई। (24/26)। वहाँ से मर द्वितीय नरक में गयी। (24/9)। तत्पश्चात् त्रस, स्थावर योनियों में कुछ कम दो सागर पर्यंत भ्रमण किया। (24/10)। पूर्व के भव नं.3 में अज्ञानी ‘मातंगी’ हुई (24/11)। पूर्वभव नं.2 में ‘दुर्गंधा’ नाम की कन्या हुई (24/24)। पूर्वभव नं.1 में अच्युत स्वर्ग में देवी हुई (24/71)। वर्तमान भव में द्रौपदी हुई (24/78)। यह माकंदी नगरी के राजा द्रुपद की पुत्री थी।15/43)। गांडीव धनुष चढ़ाकर अर्जुन ने इसे स्वयंवर में जीता। अर्जुन के गले में डालते हुए द्रौपदी के हाथ की माला टूटकर उसके फूल पाँचों पांडवों की गोद में जा गिरे, जिससे इसे पंचभर्तारीपने का अपवाद सहना पड़ा। (15/105,112)। शील में अत्यंत दृढ़ रही। (15/225)। जुए में युधिष्ठिर द्वारा हारी जाने पर दु:शासन ने इसे घसीटा। (16/126)। भीष्म ने कहकर इसे छुड़ाया। (16/129)। पांडव वनवास के समय जब वे विराट् नगर में रहे तब राजा विराट का साला कीचक इस पर मोहित हो गया। (17/245)। भीम ने कीचक को मारकर इसकी रक्षा की। (17/278)। नारद ने इससे क्रुद्ध होकर (21/14) धातकीखंड में पद्मनाभ राजा से जा इसके रूप की चर्चा की (21/32)। विद्या सिद्धकर पद्मनाभ ने इसका हरण किया। (21/57-94)। पांडव इसे पुन: वहाँ से छुड़ा लाये। (21/140)। अंत में नेमिनाथ के मुख से अपना पूर्वभव सुनकर दीक्षा ले ली। (25/15)। स्त्री पर्याय का नाशकर 16वें स्वर्ग में देव हुई। (25/241)।
पुराणकोष से
भरतक्षेत्र की माकंदी-नगरी ( महापुराण के अनुसार कंपिलानगरी) के राजा द्रुपद और रानी भोगवती ( महापुराण के अनुसार दृढ़रथा) की पुत्री । इसने स्वयंवर में गांडीव-धनुष से घूमती हुई राधा की नासि का के नथ के मोती बाण से वेध कर नीचे गिराने वाले अर्जुन का वरण किया था । अर्जुन के इस कार्य से दुर्योधन आदि कुपित हुए और ने राजा द्रुपद से युद्ध करने निकले । अपनो रक्षा के लिए यह अर्जुन के पास आयी । भय से काँपती हुई उसे देखकर भीमसेन ने इसे धैर्य दबाया । भीम ने कौरव-दल से युद्ध किया और अर्जुन ने कर्ण को हराया । इस युद्ध के पश्चात् द्रुपद ने विजयी अर्जुन के साथ द्रौपदी का विवाह किया । द्रौपदी को लेकर पांडव हस्तिनापुर आये । दुर्योधन ने युधिष्ठिर के साथ कपटपूर्वक द्यूत खेलकर उसकी समस्त संपत्ति और राज्य-भाग जीत लिया । जब युधिष्ठिर ने अपनी पत्नियों तथा सपत्नीक भाइयों को दाँव पर लगाया तो भीम ने विरोध किया । उसने द्यूत-क्रीडा के दोष बताये तब धर्मराज ने बारह वर्ष के लिए राज्य को हारकर द्यूत-क्रीड़ा को समाप्त किया इसी बीच दुर्योधन की आज्ञा से दु:शासन द्रौपदी को चोटी पकड़कर घसीटता हुआ द्यूत-सभा में लाने लगा । भीष्म ने यह देखकर दुःशासन को डाँटा और द्रौपदी को उसके कर-पाश से मुक्त कराया । पांडवपुराण 18. 109-129 द्यूत की समाप्ति पर दुर्योधन ने दूत के द्वारा युधिष्ठिर से य तू के हारे हुए दाव के अनुसार बारह वर्ष के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास के लिए कहलाया । युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ वनवास तथा अज्ञातवास के लिए हस्तिनापुर से निकल आया । वह द्रौपदी और माता कुंती को इस काल में अपने चाचा विदुर के घर छोड़ देना चाहता था पर द्रौपदी ने पांडवों के साथ ही प्रवास करना उचित समझा 1 पांडव सहायवन में थे । दुर्योधन यह सूचना पाकर उन्हें मारने को सेना सहित वहाँ के लिए रवाना हुआ । नारद के संकेत पर अर्जुन के शिष्य चित्रांग ने मार्ग में ही दुर्योधन की सेना को रोक लिया । युद्ध हुआ । चित्रांग ने दुर्योधन को नागपाश में बाँध लिया और उसे अपने साथ ले जाने लगा । दुर्योधन की पत्नी भानुमती को जब यह पता चला तो वह भीष्म के पास गयी । भीष्म ने उसे युधिष्ठिर के पास भेज दिया । उसने युधिष्ठिर से अपने पति को मुक्त करने की विनती की । युधिष्ठिर ने अर्जुन को भेजकर चित्रांग के नागपाश से दुर्योधन को मुक्त कराया । वह हस्तिनापुर तो लौट गया पर अर्जुन द्वारा किये गये उपकार से अत्यंत खिन्न हुआ । उसने घोषणा की कि जो पांडवों को मारेगा उसे वह अपना आधा राज्य देगा । राजा कनकध्वज ने उसे आश्वस्त किया कि वह सात दिन की अवधि में उन्हें मार देगा । उसने कृत्या-विद्या सिद्ध की । युधिष्ठिर को भी यह समाचार मिल गया । उसने धर्मध्यान किया । धर्मदेव का आसन कंपित हुआ । वह पांडवों की सहायता के लिए एक भील के वेष में आया । पहले तो उसने द्रौपदी का हरण किया और उसे अपने विद्याबल से अदृश्य कर दिया । फिर उसे छुड़ाने के लिए पीछा करते हुए पांडवों को एक-एक करके माया-निर्मित एक विषमय सरोवर का जल पीने के लिए विवश किया । इससे वे पाँचों भाई मूर्च्छित हो गये । सातवें दिन कृत्या आयी । मूर्च्छित पांडवों को मृत समझकर वह भील के कहने से वापस लौटी और उसने कनकध्वज को ही मार दिया । धर्मदेव ने पांडवों की मूर्च्छा दूर की, युधिष्ठिर के उत्तम चरित्र की प्रशंसा की, सारी कथा सुनायी और अदृश्य द्रौपदी को दृश्य करके अर्जुन को सादर सौंप दी । धर्मदेव अपने स्थान को चला गया । द्रौपदी समेत पांडव आगे बढ़े । महापुराण 72.198-211, हरिवंशपुराण - 45.120-135, 46-5-7, पांडवपुराण 15.37-42, 105-162, 217-225, 16.140-141, 17.102-163, 18.109-129 पांडव रामगिरि होते हुए विराट नगर में आये । अज्ञातवास का वर्ष था । उन्होंने अपना वेष बदला । द्रौपदी ने मालिन का वेष धारण किया । वे विराट् के राजा के यहाँ रहने लगे । उसी समय चूलिकापुरी के राजा चूलिक का पुत्र कीचक वहाँ आया । वह राजा विराट् का साला था । द्रौपदी को देखकर वह उस पर आसक्त हुआ और उससे छेड़छाड़ करने लगा । भीम को द्रौपदी ने यह बताया तब उसने द्रौपदी का वेष बनाकर अपने पास आते ही उसे पाद-प्रहार से मार डाला । कृष्ण-जरासंध युद्ध हुआ । इसमें पांडवों ने कौरव-पक्ष का संहार किया । युद्ध की समाप्ति होने पर पांडव हस्तिनापुर रहने लगे । एक दिन नारद आया । पांडवों के साथ वह द्रौपदी के भवन में भी आया । शृंगार में निरत द्रौपदी उसे देख नहीं पायी । वह उसका आदर-सत्कार नहीं कर सकी । नारद क्रुद्ध हो गया । उसने उसका सुंदर चित्रपट तैयार करके उसे धातकीखंड द्वीप में स्थित दक्षिण-भरतक्षेत्र की अमरकंकापुरी के राजा पद्मनाभ को दिया और चित्र का परिचय देकर वह वहाँ से चला आया । चित्र को देखकर पद्मनाभ उस पर आसक्त हुआ । उसने संगमदेव को सिद्ध किया । वह सोती हुई द्रौपदी को वहाँ ले आया । जब वह जागी तो उसने अपने आपको पद्मनाभ के यहाँ पाया । वह बड़ी दुःखी हुई । पद्मनाभ ने उसे शील से विचलित करने के अनेक प्रयत्न किये । वह सफल नहीं हो सका । द्रौपदी ने उससे एक मास की अवधि चाही । उसने इसे स्वीकार किया । प्रातःकाल होने पर पांडव द्रौपदी को वहाँ न देखकर दुःखी हुए । बहुत ढूंढा उसे न पा सके । नारद अपने कार्य से बहुत दुखी हुआ । उसने कृष्ण को द्रौपदी के अमरकंकापुरी में होने का समाचार दे दिया । कृष्ण ने स्वस्तिक-देव को सिद्ध किया । उसने जल मे चलने वाले छ: रथ दिये । उनमें बैठकर कृष्ण और पांडवों ने लवणसमुद्र को पार किया और धातकीखंड में अमरकंक।पुरी पहुँचे युद्ध में उन्होंने पदमनाभ को जीता । वह बड़ा लज्जित हुआ । उसने उन सबसे क्षमा माँगी और द्रौपदी के शील की प्रशंसा करते हुए उसे लौटा दिया । वे द्रौपदी को वापस ले आये । इस समस्त घटना-चक्र में फँसी हुई द्रौपदी को संसार से विरक्ति हुई । उसने कुंती और सुभद्रा के साथ राजीमती आर्यिका के पास दीक्षा ली । उन्होंने सम्यक्त्व के साथ चारित्र का पालन किया । आयु के अंत में राजीमती, कुंती, द्रौपदी और सुभद्रा ने स्त्री-पर्याय को छोड़ा और वे अच्युत स्वर्ग में सामानिक देव हुई । दूरवर्ती पूर्वभवों में द्रौपदी अग्निभूति की नागश्री नामक पुत्री थी । इसने इस पर्याय में धर्मरुचि मुनि को विषमिश्रित आहार दिया था जिससे यह नगर से निकाली गयी । इसे कुष्ट रोग हुआ और मरकर यह पाँचवें धूमप्रभा नगर में नारकी हुई । नरक से निकलकर यह दृष्टिविष जाति का सर्प हुई । इस नरक से निकलकर अनेक त्रस और स्थावर योनियों में दो सागर काल तक यह भ्रमण करती रही । इसके पश्चात् यह चंपापुरी मे मातंगी नाम की स्त्री हुई । इस पर्याय में इसने अणुव्रत धारण किये और मद्य, मांस तथा मधु का त्याग किया । अगले जन्म में यह दुर्गंधा हुई । माता-पिता ने इसका नाम सुकुमारी रखा । इसने उग्र तप किया और देह त्यागने के पश्चात् यह अच्युत स्वर्ग में देवी हुई । वहाँ से चयकर राजा द्रुपद की पुत्री हुई । महापुराण 72.243-264, हरिवंशपुराण - 46.26-36, 54.4-7, पांडवपुराण 17.230-295, 21. 8-10, 32-34, 51-59, 94-102, 114-143, 24.2-11, 72-78, 25. 141-144