तीनों वेदों के अर्थ में प्रयुक्त शब्दों का परिचय
From जैनकोष
- तीनों वेदों के अर्थ में प्रयुक्त शब्दों का परिचय
- स्त्री पुरुष व नपुंसक का प्रयोग
दे. वेद/५ (नरक गति में, सर्व प्रकार के एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रियों में तथा सम्मूर्च्छन मनुष्य व पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचों में एक नपुंसक वेद ही होता है । भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यंचों में तथा सर्व प्रकार के देवों में स्त्री व पुरुष ये दो वेद होते हैं । कर्मभूमिज मनुष्य व पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचों में स्त्री पुरुष व नपुंसक तीनों वेद होते हैं ।)
दे. जन्म/३/३ (सम्यग्दृष्टि जीव सब प्रकार की स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होते ।)
- तिर्यंच व तिर्यंचनी का प्रयोग
ध.१/१, १, २६/२०९/४ तिरश्चीष्वपर्याप्ताद्धायां मिथ्यादृष्टिसासादना एव सन्ति, न शेषास्तत्र तन्निरूपकार्म्षाभावात् ।....तत्रासंयतसम्यग्दृष्टीनामुत्पत्तेरभावात् । = तिर्यंचनियों के अपर्याप्तकाल में मिथ्यादृष्टि और सासादन ये दो गुणस्थान ही होते हैं, शेष तीन गुणस्थान नहीं होते, क्योंकि तिर्यंचनियों में असंयत सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति नहीं होती ।
दे. वेद/६ (तिर्यंचिनियों में क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता ।)
दे. वेद/५ (कर्मभूमिज व तिर्यंचनियों में तीनों वेद सम्भव हैं । पर भोगभूमिज तिर्यंचों में स्त्री व पुरुष दो ही वेद सम्भव हैं ।)
- तिर्यंच व योनिमति तिर्यंच का प्रयोग
दे. तिर्यंच/२/१, २ (तिर्यंच चौथे गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते हैं, परन्तु पाँचवे गुणस्थान में नहीं होते । योनिमति पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच चौथे व पाँचवें दोनों ही गुणस्थानों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं होते ।)
दे. वेद/६ (क्योंकि योनिमति पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि मरकर उत्पन्न नहीं होते ।)
ध.८/३, ६४/११४/३ जोणिणीसु पुरिसवेदबंधो परोदओ । = योनिमती तिर्यंचों में पुरुष वेद का बन्ध परोदय से होता है ।
- मनुष्य व मनुष्यणी का प्रयोग
गो.जी./जी.प्र./७०४/११४१/२२ क्षायिकसम्यक्त्वं तु असंयतादिचतुर्गुणस्थानमनुष्याणां असंयतदेशसंयतोपचार-महाव्रतमानुषीणां च कर्मभूमिवेदकसम्यग्दृष्टीनामेव । = क्षायिक सम्यग्दर्शन, कर्मभूमिज वेदक सम्यग्दृष्टि असंयतादि चार गुणस्थानवर्ती मनुष्यों को तथा असंयत और देशसंयत और उपचार से महाव्रतधारी मनुष्यणी को ही होता है ।
दे. वेद/५–(कर्मभूमिज मनुष्य और मनुष्यनी में तीनों वेद सम्भव हैं । पर योगभूमिज मनुष्यों में केवल स्त्री व पुरुष ये दो ही वेद सम्भव हैं ।)
दे. मनुष्य/३/१, २ (पहले व दूसरे गुणस्थान में मनुष्य व मनुष्यणी दोनों ही पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों प्रकार के होते हैं, पर चौथे गुणस्थान में मनुष्य तो पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों होते हैं और मनुष्यणी केवल पर्याप्त ही होती हैं ।५-९ । गुणस्थान तक दोनों पर्याप्त ही होते हैं ।)
दे. वेद/६/१/गो.जी.(योनिमति मनुष्य पाँचवें गुणस्थान से ऊपर नहीं जाता ।)
दे.आहारक/४/३ (मनुष्यणी अर्थात् द्रव्य पुरुष भाव स्त्री के आहारक व आहारक मिश्र काय योग नहीं होते हैं, क्योंकि अप्रशस्त वेदों में उनकी उत्पत्ति नहीं होती ।)
- उपरोक्त शब्दों के सैद्धान्तिक अर्थ
[वेद मार्गणा में सर्वत्र स्त्री आदि वेदी कहकर निरूपण किया गया है (शीर्षक नं. १) । तहाँ सर्वत्र भाव वेद ग्रहण करना चाहिए (दे. वेद/२/१) । गति मार्गणा में तिर्यंच, तिर्यंचनी और योनिमती तिर्यंच इन शब्दों का तथा मनुष्य व मनुष्यणी व योनिमती मनुष्य इन शब्दों का प्रयोग उपलब्ध होता है । तहाँ ‘तिर्यंच’ व ‘मनुष्य’ तो जैसा कि अगले सन्दर्भ में स्पष्ट बताया गया है भाव पुरुष व नपुंसक लिंगी के लिए प्रयुक्त होते हैं । तिर्यंचिनी व मनुष्यणी शब्द जैसा कि प्रयोगों पर से स्पष्ट है द्रव्य पुरुष भाव स्त्री के लिए प्रयुक्त है । यद्यपि मनुष्यणी शब्द का प्रयोग द्रव्य स्त्री अर्थ में भी किया गया है, पर वह अत्यन्त गौण हैं, क्योंकि ऐसे प्रयोग अत्यन्त अल्प हैं । योनिमती तिर्यंच व योनिमती, मनुष्य ये शब्द विशेष विचारणीय हैं । तहाँ मनुष्यणी के लिए प्रयुक्त किया गया तो स्पष्ट ही द्रव्यस्त्री को सूचित करता है, परन्तु तिर्यंचों में प्रयुक्त यह शब्द द्रव्य व भाव दोनों प्रकार की स्त्रियों के लिए समझा जा सकता, क्योंकि तहाँ इन दोनों के ही आलापों में कोई भेद सम्भव नहीं है । कारण कि तिर्यंच पुरुषों की भाँति तिर्यंच स्त्रियाँ भी पाँचवें गुणस्थान से ऊपर नहीं जातीं । इसी प्रकार द्रव्य स्त्री के लिए भी पाँचवें गुणस्थान तक जाने का विधान है ।]
क.पा.३/३-२२/४२६/२४१/१२ मणुस्सो त्ति वुत्ते पुरिसणवुंसयवेदोदइल्लाणं गहणं । मणुस्सिणो त्ति वुत्ते इत्थिवेदोदयजीवाणं गहणं । = सूत्र में मनुष्य ऐसा कहने पर उससे पुरुषवेद और नपुंसकवेद के उदय वाले मनुष्यों का ग्रहण होता है । ‘मनुष्यिनी’ ऐसा कहने पर उससे स्त्री वेद के उदयवाले मनुष्य जीवों का ग्रहण होता है । (क.पा.२/२-२२/३३८/२१२/१) ।
- स्त्री पुरुष व नपुंसक का प्रयोग