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जैन शब्दों का अर्थ जानने के लिए किसी भी शब्द को नीचे दिए गए स्थान पर हिंदी में लिखें एवं सर्च करें

वेद निर्देश

From जैनकोष

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  1. वेद निर्देश
    1. वेदमार्गणा में भाववेद इष्ट है
      राजवार्तिक/8/9/4/574/22 ननु लोके प्रतीतं योनिमृदुस्तनादिस्त्रीवेदलिंगम्, न, तस्य नामकर्मोदयनिमित्तत्वात्, अतः पंसोऽपि स्त्रीवेदोदयः । कदाचिद्योषितोऽपि पुंवेदोदयोऽप्याभ्यंतरविशेषात् । शरीराकारस्तु नामकर्मनिर्वर्तितः । एतेनेतरौ व्याख्यातौ ।
      राजवार्तिक/2/6/3/109/2 द्रव्यलिंगं नामकर्मोदयापादितं तदिह नाधिकृतम् आत्मपरिणामप्रकरणात् । भावलिंगमात्मपरिणामः । = प्रश्न–लोक में योनि व मृदुस्तन आदि को स्त्री वेद या लिंग कहते हैं, आप दूसरी प्रकार लक्षण कैसे करते हैं? उत्तर–नहीं, क्योंकि
      1. वह नामकर्मोदय से उत्पन्न होता है, अतः कदाचित् अंतरंग परिणामों की विशेषता से द्रव्य पुरुष को स्त्रीवेद का और द्रव्य स्त्री को पुरुषवेद का उदय देखा जाता है (देखें वेद - 4) शरीरों के आकार नामकर्म से निर्मित हैं, इसलिए अन्य प्रकार से व्याख्या की गयी है ।
      2. यहाँ जीव के औदयिकादि भावों का प्रकरण है, इसलिए नामकर्मोदयापादित द्रव्य लिंग का यहाँ अधिकार नहीं है । भावलिंग आत्म परिणाम है, इसलिए उसका ही यहाँ अधिकार है ।
        धवला 1/1, 1, 104/345/1 न द्रव्यवेदस्याभावस्तेन विकाराभावात् । अधिकृतोऽत्र भाववेदस्ततस्तदभावादपगतवेदो नान्यथेति । = यद्यपि 9वें गुणस्थान से आगे द्रव्यवेद का सद्भाव पाया जाता है; परंतु केवल द्रव्यवेद से ही विकार उत्पन्न नहीं होता है । यहाँ पर तो भाववेद का अधिकार है । इसलिए भाववेद के अभाव से ही उन जीवों को अपगतवेद जानना चाहिए, द्रव्यवेद के अभाव से नहीं ।  (विशेष देखें शीर्षक नं - 3) ।
        धवला 2/1, 9/513/8 इत्थिवेदो अवगदवेदो वि अत्थि, एत्थ भाववेदेण पयदं ण दव्ववेदेण । किं कारणं । भावगदवेदो वि अत्थि त्ति वयणादो । = मनुष्य स्त्रियों के (मनुषणियों के) स्त्रीवेद और अपगत वेद स्थान भी होता है । यहाँ भाववेद से प्रयोजन है, द्रव्य वेद से नहीं । इसका कारण यह है कि यदि यहाँ द्रव्यवेद से प्रयोजन होता तो अपगत वेदरूप स्थान नहीं बन सकता था, क्योंकि द्रव्यवेद चौदहवें गुणस्थान के अंत तक होता है । परंतु ‘अपगत वेद भी होता है’ इस प्रकार वचन निर्देश नौवें गुणस्थान के अवेद भाग से किया गया है (दे. षट्खंडागम 1/1, 1/ सूत्र104/344) । जिससे प्रतीत होता है कि यहाँ भाववेद से प्रयोजन है द्रव्य से नहीं ।
        धवला 11/4, 2, 6, 12/114/6 देवणेरइयाणं उक्कस्साउअबंधस्स तीहि वेदेहि विरोहो णत्थि त्ति जाणावणट्ठं इत्थिवेदस्स वा पुरिवेदस्स वा णवुंसयवेदस्स वा त्ति भणिदं । एत्थ भाववेदस्स गहणमण्णहा दव्वित्थिवेदेण वि णेरइयाणमुक्कस्साउअस्स बंधप्पसंगादो । ण च तेण स तस्स बंधो, आ पंचमीत्ति सीहा इत्थीओ जंति छट्ठियपुढवि त्ति एदेण सुत्तेण सह विरोहादो । ण च देवाणं उक्कस्साउञं दव्वित्थिवेदेण सह वज्झइ, णियमा णिग्गंथलिंगेणे त्ति सुत्तेण सह विरोहादो । ण च दव्वित्थीणं णिग्गंथत्तमत्थि । = देवों और नारकियों की उत्कृष्ट आयु के बंध का तीनों वेदों के साथ विरोध नहीं है, यह जतलाने के लिए ‘इत्थिवेदस्स वा पुरिसवेदस्स वा णवुंसयवेदस्स वा’ ऐसा उपरोक्त सूत्र नं.12 में कहा है । यहाँ भाववेद का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि 1. द्रव्यवेद का ग्रहण करने पर द्रव्य स्त्रीवेद के साथ भी नारकियों की उत्कृष्ट आयु के बंध का प्रसंग आता है । परंतु उसके साथ नारकियों की उत्कृष्ट आयु का बंध होता नहीं है, क्योंकि पाँचवीं पृथिवी तक सिंह और छठी पृथिवी तक स्त्रियाँ जाती हैं इस सूत्र के साथ विरोध आता है । (देखें जन्म - 6.4) । देवों की भी उत्कृष्ट आयु द्रव्य स्त्रीवेद के साथ नहीं बँधती, क्योंकि अन्यथा ‘अच्युत कल्प से ऊपर नियमतः निर्ग्रंथ लिंग से ही उत्पन्न होते हैं इस सूत्र के साथ विरोध आता है । (देखें जन्म - 6.3, 6) और द्रव्य स्त्रियों (व द्रव्य नपुंसकों) के निर्ग्रंथता संभव नहीं हे (देखें वेद - 7.4) ।
        देखें मार्गणा –(सभी मार्गणाओं की प्ररूपणाओं में भाव मार्गणाएँ इष्ट हैं द्रव्य मार्गणाएँ नहीं) ।
    2. वेद जीव का औदयिक भाव है
      राजवार्तिक/2/6/3/109/2 भावलिंगमात्मपरिणामः ।.... स पुनश्चारित्रमोहविकल्पस्य नोकषायस्य स्त्रीवेदपुंवेदनपुंसक-वेदस्योदयाद्भवतीत्यौदयिकः । = भावलिंग आत्मपरिणाम रूप है । वह चारित्रमोह के विकल्प रूप जो स्त्री पुरुष व नपुंसकवेद नाम के नोकषाय उनके उदय से उत्पन्न होने के कारण औदयिक है ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1075 ); (और भी.देखें उदय - 9.2) ।
    3. अपगत वेद कैसे संभव है
      धवला 5/1, 7, 42/222/3 एत्थ चोदगो भणदि-जोणिमेहणादीहि समण्णिदं सरीरं वेदो, ण तस्स विणासो अत्थि, संजदाणं मरणप्पसंगा । ण भाववेदविणासो वि अत्थि, सरीरे अविणट्ठे तब्भावस्स विणासविरोहा । तदो णावगदवेदत्तं जुज्जदे इदि । एत्थ परिहारो उच्चदे-ण सरीरमित्थिपुरिसवेदो, णामकम्मजणिदस्स सरीरस्स मोहणीयत्तविरोहा । ण मोहणीयजणिदमवि सरीरं, जीवविवाइणो मोहणीयस्स पोग्गलविवाइत्तविरोहा । ण सरीरभावो वि वेदो, तस्स तदो पुधभूदस्स अणुवलंभा । परिसेसादा मोहणीयदव्वकम्मक्खंधो तज्जणिदजीवपरिणामो वा वेदो । तत्थ तज्जणिदजीवपरिणामस्स वा परिणामेण सह कम्मक्खंधस्स वा अभावेण अवगदवेदो होदि त्ति तेण णेस दोसो त्ति सिद्धं । = प्रश्न–योनि और लिंग आदि से संयुक्त शरीर वेद कहलाता है । सो अपगतवेदियों के इस प्रकार के वेद का विनाश नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानने से अपगतवेदी संयतों के मरण का प्रसंग प्राप्त होता है । इसी प्रकार उनके भाववेद का विनाश भी नहीं है, क्योंकि शरीर के विनाश के विना उसके धर्म का विनाश मानने में विरोध आता है । इसलिए अपगतवेदता युक्ति संगत नहीं है? उत्तर–न तो शरीर स्त्री या पुरुषवेद है, क्योंकि नामकर्मजनित शरीर के मोहनीयपने का विरोध है । न शरीर मोहनीयकर्म से ही उत्पन्न होता है, क्योंकि जीवविपाकी मोहनीय कर्म के पुद्गलविपाकी होने का विरोध है । न शरीर का धर्म ही वेद है, क्योंकि शरीर से पृथग्भूत वेद पाया नहीं जाता । पारिशेष न्याय से मोहनीय के द्रव्य कर्मस्कंध को अथवा मोहनीय कर्म से उत्पन्न होने वाले जीव के परिणाम को वेद कहते हैं । उनमें वेद जनित जीव के परिणाम का अथवा परिणाम के सहित मोहकर्म स्कंध का अभाव होने से जीव अपगत वेदी होता है । इसलिए अपगतवेदता मानने में उपर्युक्त कोई दोष नहीं आता, यह सिद्ध हुआ ।
    4. तीनों वेदों की प्रवृत्ति क्रम से होती है
      धवला 1/1, 1, 102/342/10 उभयोर्वेदयोरक्रमेणैकस्मिन् प्राणिनि सत्त्वं प्राप्नोतीति चेन्न, विरुद्धयोरक्रमेणैकस्मिन् सत्त्वविरोधात् । = प्रश्न–इस प्रकार तो दोनों वेदों का एक जीव में अस्तित्व प्राप्त हो जायेगा उत्तर–नहीं, क्योंकि विरुद्ध दो धर्मों का एक साथ एक जीव में सद्भाव मानने में विरोध आता है ।  (विशेष देखें वेद - 4/3) ।
      धवला 1/1, 1, 107/346/7
      त्रयाणां वेदानां क्रमेणैव प्रवृत्तिर्नाक्रमेण पर्यायत्वात् । = तीनों वेदों की प्रवृत्ति क्रम से ही होती है, युगपत् नहीं, क्योंकि वेद पर्याय है ।


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