सम्यक्चारित्र
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/154 द्विविधं हि किल संसारिषु चरितं-स्वचरितं परचरितं च। स्वसमयपरसमयावित्यर्थ:।= संसारियों का चारित्र वास्तव में दो प्रकार का है—स्वचारित्र अर्थात् सम्यक्चारित्र और परचारित्र अर्थात् मिथ्याचारित्र। स्वसमय और परसमय ऐसा अर्थ है। (विशेष देखें समय ) (योगसार/अमितगति/8/96)।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/154/ तत्र स्वभावावस्थितास्तित्वस्वरूपं स्वचरितं, परभावावस्थितास्तित्वस्वरूपं परचरितम् ।=तहाँ स्वभाव में अवस्थित अस्तित्वस्वरूप वह स्वचारित्र है और परभाव में अवस्थित अस्तित्वस्वरूप वह परचारित्र है।
अधिक जानकारी के लिये देखें चारित्र ।
पुराणकोष से
सम्यग्दर्शन सहित शुभ क्रियाओं में प्रवृत्ति । इससे समताभाव प्रकट होता है । इसमें पंच महाव्रत, पंच समिति और तीन गुणियों का पालन होने से यह तेरह प्रकार का होता है । ऐसा चारित्र समस्त कर्मों का काटने वाला होता है । इसमें मुनियों के लिए परपीडा से रहित तथा श्रद्धा आदि गुणों से सहित दान दिया जाता है तथा विनय, नियम, शील, ज्ञान, दया, दम और मोक्ष के लिए ध्यान किया जाता है । यह सम्यक्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के अभाव में कार्यकारी नहीं होता । सम्यक्दर्शन और सम्यग्ज्ञान इसके बिना भी हो जाते हैं किंतु इसके लिए उन दोनों की अपेक्षा होती है । ऐसा चारित्र निर्ग्रंथ महाव्रती मुनि धारण करते हैं । महापुराण 24. 119-122, 74.543, पद्मपुराण - 105.121-222, हरिवंशपुराण - 10.157, पांडवपुराण 23.63