ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 101 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
उप्पादट्ठिदिभंगा विज्जंते पज्जएसु पज्जाया । (101)
दव्वे हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं ॥111॥
अर्थ:
उत्पाद -व्यय और धौव्य पर्यायों में होते हैं पर्यायें निश्चित द्रव्य में होती हैं; इसलिए वे सब द्रव्य हैं ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथोत्पादादीनां द्रव्यादर्थान्तरत्वं संहरति -
उत्पादव्ययध्रौव्याणि हि पर्यायानालम्बन्ते, ते पुन: पर्याया द्रव्यमालम्बन्ते । तत: समस्त-मप्येतदेकमेव द्रव्यं न पुनर्द्रव्यान्तरम् ।
द्रव्यं हि तावत्पर्यायैरालम्ब्यते, समुदायिन: समुदायात्मकत्वात् पादपवत् । यथा हि समुदायी पादप: स्कन्धमूलशाखासमुदायात्मक: स्कन्धमूलशाखाभिरालम्बित एव प्रतिभाति, तथा समुदायि द्रव्यं पर्यायसमुदायात्मकं पर्यायैरालम्बितमेव प्रतिभाति । पर्यायास्तूत्पादव्यय-ध्रौव्यैरालम्ब्यन्ते उत्पादव्ययध्रौव्याणामंशधर्मत्वात् बीजाङ्कुरपादपत्ववत् ।
यथा किलांशिन: पादपदस्य बीजाङकुरपादपत्वलक्षणास्त्रयोंऽशा भङ्गोत्पादध्रौव्य-लक्षणैरात्मधर्मैरालम्बिता: सममेव प्रतिभान्ति, तथांशिनो द्रव्यस्योच्छिद्यमानोत्पद्यमानावतिष्ठ-मानभावलक्षणास्त्रयोंऽशा भङ्गोत्पादध्रौव्यलक्षणैरात्मधर्मैरालम्बिता: सममेव प्रतिभान्ति ।
यदि पुनर्भङ्गोत्पादध्रौव्याणि द्रव्यस्यैवेष्यन्ते तथा समग्रमेव विप्लवते ।
तथाहि भंगे तावत् क्षणभङ्गकटाक्षितानामेकक्षण एव सर्वद्रव्याणां संहरणाद्द्रव्यशून्यता-वतार: सदुच्छेदोवा । उत्पादे तु प्रतिसमयोत्पादमुद्रितानां प्रत्येकं द्रव्याणामानन्त्यमसदुत्पादो वा । ध्रौव्ये तु क्रमभुवां भावानामभावाद्द्रव्यस्याभाव: क्षणिकत्वं वा ।
अत उत्पादव्ययध्रौव्यैरालम्ब्यन्तां पर्याया: पर्यायैश्च द्रव्यमालब्यतां, येन समस्तमप्येत-देकमेव द्रव्यं भवति ॥१०१॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य वास्तव में पर्यायों का आलम्बन करते हैं, और वे पर्यायें द्रव्य का आलम्बन करती हैं, (अर्थात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य पर्यायों के आश्रय से हैं और पर्यायें द्रव्य के आश्रय से हैं); इसलिये यह सब एक ही द्रव्य है, द्रव्यान्तर नहीं ।
प्रथम तो द्रव्य पर्यायों के द्वारा आलम्बित है (अर्थात् पर्यायें द्रव्याश्रित हैं), क्योंकि १समुदायी समुदायस्वरूप होता है; वृक्ष की भाँति । जैसे समुदायी वृक्ष स्कंध, मूल और शाखाओं का समुदायस्वरूप होने से स्कंध, मूल और शाखाओं से आलम्बित ही (भासित) दिखाई देता है, इसी प्रकार समुदायी द्रव्य पर्यायों का समुदायस्वरूप होने से पर्यायों के द्वारा आलम्बित ही भासित होता है । (अर्थात् जैसे स्कंध, मूल शाखायें वृक्षाश्रित ही हैं—वृक्ष से भिन्न पदार्थरूप नहीं हैं, उसी प्रकार पर्यायें द्रव्याश्रित ही हैं, --द्रव्य से भिन्न पदार्थरूप नहीं हैं ।)
और पर्यायें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के द्वारा आलम्बित हैं (अर्थात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य पर्यायाश्रित हैं) क्योंकि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य अंशों के धर्म हैं (२अंशी के नहीं); बीज, अंकुर और वृक्षत्व की भाँति । जैसे अंशीवृक्ष के बीज अंकुर-वृक्षत्वस्वरूप तीन अंश, व्यय-उत्पाद-ध्रौव्यस्वरूप निज धर्मों से आलम्बित एक साथ ही भासित होते हैं, उसी प्रकार अंशीद्रव्य के, नष्ट होता हुआ भाव, उत्पन्न होता हुआ भाव, और अवस्थित रहने वाला भाव;—यह तीनों अंश व्यय-उत्पाद-ध्रौव्यस्वरूप निजधर्मों के द्वारा आलम्बित एक साथ ही भासित होते हैं । किन्तु यदि (१) व्यय, (२) उत्पाद और (३) ध्रौव्य को (अंशों का न मानकर) द्रव्य का ही माना जाये तो सारा ३विप्लव को प्राप्त होगा । यथा --
- पहले, यदि द्रव्य का ही भंग माना जाये तो ४क्षणभंग से लक्षित समस्त द्रव्यों का एक क्षण में ही संहार हो जाने से द्रव्य शून्यता आ जायेगी, अथवा सत् का उच्छेद हो जायेगा ।
- यदि द्रव्य का उत्पाद माना जाये तो समय-समय पर होने वाले उत्पाद के द्वारा चिह्नित ऐसे द्रव्यों को प्रत्येक को अनन्तता आ जायेगी । (अर्थात् समय-समय पर होने वाला उत्पाद जिसका चिह्न हो ऐसा प्रत्येक द्रव्य अनंत द्रव्यत्व को प्राप्त हो जायेगा) अथवा असत् का उत्पाद हो जायेगा;
- यदि द्रव्य का ही ध्रौव्य माना जाये तो क्रमश: होने वाले भावों के अभाव के कारण द्रव्य का अभाव आयेगा, अथवा क्षणिकपना होगा ।
इसलिये उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के द्वारा पर्यायें आलम्बित हों, और पर्यायों के द्वारा द्रव्य आलम्बित हो, कि जिससे यह सब एक ही द्रव्य है ।
१समुदायी = समुदायवान समुदाय (समूह) का बना हुआ । (द्रव्य समुदायी है क्योंकि पर्यायों के समुदाय-स्वरूप है)।
२अंशी = अंशोंवाला; अंशोंका बना हुआ । (द्रव्य अंशी है)
३विप्लव = अंधाधुंधी; उथलपुथल; घोटाला; विरोध ।
४क्षण = विनाश जिनका लक्षण हो ऐसे ।