ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 101 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
उप्पादट्ठिदिभंगा विज्जंते पज्जएसु पज्जाया । (101)
दव्वे हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं ॥111॥
अर्थ:
उत्पाद -व्यय और धौव्य पर्यायों में होते हैं पर्यायें निश्चित द्रव्य में होती हैं; इसलिए वे सब द्रव्य हैं ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथोत्पादव्ययध्रौव्याणि द्रव्येण सह परस्पराधाराधेयभावत्वादन्वयद्रव्यार्थिकनयेनद्रव्यमेव भवतीत्युपदिशति --
उप्पादट्ठिदिभंगा विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावात्मतत्त्वनिर्विकारस्वसंवेदनज्ञान-रूपेणोत्पादस्तस्मिन्नेव क्षणे स्वसंवेदनज्ञानविलक्षणाज्ञानपर्यायरूपेण भङ्ग, तदुभयाधारात्मद्रव्यत्वावस्थारूपेण स्थितिरित्युक्तलक्षणास्त्रयो भङ्गाः कर्तारः । विज्जंते विद्यन्ते तिष्ठन्ति । केषु । पज्जएसु सम्यक्त्वपूर्वकनिर्विकारस्वसंवेदनज्ञानपर्याये तावदुत्पादस्तिष्ठति स्वसंवेदनज्ञानविलक्षणाज्ञानपर्यायरूपेण
भङ्गस्तदुभयाधारात्मद्रव्यत्वावस्थारूपपर्यायेण ध्रौव्यं चेत्युक्तलक्षणस्वकीयस्वकीयपर्यायेषु । पज्जाया दव्वम्हि संति ते चोक्तलक्षणज्ञानाज्ञानतदुभयाधारात्मद्रव्यत्वावस्थारूपपर्याया हि स्फुटं द्रव्यं सन्ति । णियदं निश्चितं प्रदेशाभेदेऽपि स्वकीयस्वकीयसंज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेन । तम्हा दव्वं हवदि सव्वं यतोनिश्चयाधाराधेयभावेन तिष्ठन्त्युत्पादादयस्तस्मात्कारणादुत्पादादित्रयं स्वसंवेदनज्ञानादिपर्यायत्रयं चान्वय-द्रव्यार्थिकनयेन सर्वं द्रव्यं भवति । पूर्वोक्तोत्पादादित्रयस्य तथैव स्वसंवेदनज्ञानादिपर्यायत्रयस्यचानुगताकारेणान्वयरूपेण यदाधारभूतं तदन्वयद्रव्यं भण्यते, तद्विषयो यस्य स भवत्यन्वयद्रव्यार्थिकनयः ।यथेदं ज्ञानाज्ञानपर्यायद्वये भङ्गत्रयं व्याख्यातं तथापि सर्वद्रव्यपर्यायेषु यथासंभवं ज्ञातव्यमित्यभिप्रायः ॥१११॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[उप्पादट्ठिदिभंगा] विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव आत्मतत्त्व का निर्विकार स्वसंवेदनज्ञानरूप से उत्पाद, उसी समय स्वंसवेदनज्ञान से विपरीत अज्ञानपर्यायरूप से व्यय तथा उन दोनों के आधारभूत आत्मद्रव्यत्व की अवस्थारूप से स्थिति - इसप्रकार कहे गये लक्षण वाले तीनों भंगरूप कर्ता- इस वाक्य में कर्ता कारक में प्रयुक्त ये तीनों [विज्जंते] होते हैं । ये तीनों किनमें होते हैं? [पज्जएसु] सम्यक्त्व पूर्वक निर्विकार स्वसंवेदनज्ञानपर्याय में उत्पाद होता है, तब स्वसंवेदनज्ञान से विपरीत अज्ञान पर्यायरूप से व्यय और उन दोनों के आधारभूत आत्मद्रव्यत्व की अवस्थारूप पर्याय से धौव्य - इसप्रकार कहे गये लक्षण वाली अपनी- अपनी पर्यायों में वे सब रहते हैं । [पज्जाया दव्वं हि संति] वे कहे गये लक्षणवाली ज्ञान, अज्ञान और उन दोनों के आधारभूत आत्मद्रव्यत्व की अवस्थारूप पर्यायें स्पष्टरूप से द्रव्य हैं । [णियदं] प्रदेशों का अभेद होने पर भी अपने- अपने संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि के भेद से वे वास्तव में द्रव्य हैं । [तम्हा दव्वं हवदि सव्वं] क्योंकि उत्पादादि निश्चय आधार- आधेय भाव से रहते हैं उसकारण उत्पादादि तीनों और स्वसंवेदनज्ञानादि तीनों पर्यायें-ये सभी अन्वय-द्रव्यार्थिकनय से सर्व द्रव्य हैं ।
पूर्वोक्त उत्पादादि तीनों और उसीप्रकार स्वसंवेदनज्ञानादि तीनों पर्यायों का साथ-साथ रहने वाला अन्वयरूप से जो आधारभूत है, वह अन्वय द्रव्य कहा गया है, वह जिसका विषय होता है, वह अन्वय द्रव्यार्थिकनय है । जैसे यह ज्ञान-अज्ञान दो पर्यायों में (उत्पादाकि) तीनों भंगों का व्याख्यान किया गया है उसीप्रकार सभी द्रव्य-पर्यायों में यथासंभव जानना चाहिये - ऐसा अभिप्राय है ॥१११॥