ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 14 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो ।
समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ॥14॥
अर्थ:
[सुविदितपदार्थसूत्र:] जिन्होंने (निज शुद्ध आत्मादि) पदार्थों को और सूत्रों को भली भाँति जान लिया है, [संयमतप:संयुत:] जो संयम और तपयुक्त हैं, [विगतराग:] जो वीतराग अर्थात् राग रहित हैं [समसुखदुःख:] और जिन्हें सुख-दुःख समान हैं, [श्रमण:] ऐसे श्रमण को (मुनिवर को) [शुद्धोपयोग: इति भणित:] 'शुद्धोपयोगी' कहा गया है ॥१४॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ शुद्धोपयोगपरिणतात्मस्वरूपं निरूपयति -
सूत्रार्थज्ञानबलेन स्वपरद्रव्यविभागपरिज्ञानश्रद्धानविधानसमर्थत्वात्सुविदितपदार्थसूत्र: । सकलषड्जीवनिकायनिशुम्भनविकल्पात्पंचेन्द्रियाभिलाषविकल्पाच्च व्यावर्त्यात्मन: शुद्ध स्वरूपे संयमनात्, स्वरूपविश्रान्तनिस्तरङ्गचैतन्यप्रतपनाच्च संयमतप: संयुत:। सकलमोहनीयविपाकविवेकभावनासौष्ठवस्फुटीकृतनिर्विकारात्मस्वरूपत्वाद्विगतराग:। परमकलावलोकनाननुभूयमान-सातासातवेदनीयविपाकनिर्वर्तितसुखदु:खजनितपरिणामवैषम्यत्वात्समसुखदु:ख: श्रमण: शुद्धोपयोग इत्यभिधीयते ॥१४॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब शुद्धोपयोग-परिणत आत्मा का स्वरूप कहते हैं :-
सूत्रों के अर्थ के ज्ञानबल से स्वद्रव्य और परद्रव्य के विभाग के १परिज्ञान में, श्रद्धान में, और विधान में (आचरण में) समर्थ होने से (स्वद्रव्य और परद्रव्य की भिन्नता का ज्ञान, श्रद्धान और आचरण होने से) जो श्रमण पदार्थों को और (उनके प्रतिपादक) सूत्रों को जिन्होंने भली-भाँति जान लिया है ऐसे हैं, समस्त छह जीव-निकाय के हनन के विकल्प से और पंचेन्द्रिय सम्बन्धी अभिलाषा के विकल्प से आत्मा को २व्यावृत्त करके आत्मा का शुद्धस्वरूप में संयमन करने से, और ३स्वरूप-विश्रान्त ४निस्तरंग ५चैतन्य-प्रतपन होने से जो संयम और तप-युक्त हैं, सकल मोहनीय के विपाक से भेद की भावना की उत्कृष्टता से (समस्त मोहनीय कर्म के उदय से भिन्नत्व की उत्कृष्ट भावना से) निर्विकार आत्म-स्वरूप को प्रगट किया होने से जो वीतराग हैं, और परमकला के अवलोकन के कारण साता वेदनीय तथा असाता वेदनीय के विपाक से उत्पन्न होनेवाले जो सुख-दुख उन सुख-दुख जनित परिणामों की विषमता का अनुभव नहीं होने से (परम सुख-रस में लीन, निर्विकार स्वसंवेदन रूप परमकला के अनुभव के कारण इष्टानिष्ट संयोगों में हर्ष-शोकादि विषय परिणामों का अनुभव न होने से) जो समसुखदुःख हैं, ऐसे श्रमण शुद्धोपयोगी कहलाते हैं ॥१४॥
१परिज्ञान = पूरा ज्ञान; ज्ञान
२व्यावृत्त करके = विमुख करके; रोककर; अलग करके
३स्वरूपविश्रान्त = स्वरूपमें स्थिर हुआ
४निस्तरंग = तरंग रहित; चंचलता रहित; विकल्प रहित; शांत
५प्रतपन होना = प्रतापवान होना, प्रकाशित होना, दैदीप्यमान होना