ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 13 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणंतं ।
अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धवओगप्पसिद्धाणं ॥13॥
अर्थ:
[शुद्धोपयोगप्रसिद्धानां] शुद्धोपयोग से *निष्पन्न हुए आत्माओं को (केवली और सिद्धों का) [सुखं] सुख [अतिशयं] अतिशय [आत्मसमुत्थं] आत्मोत्पन्न [विषयातीतं] विषयातीत (अतीन्द्रिय) [अनौपम्यं] अनुपम [अनन्तं] अनन्त (अविनाशी) [अव्युच्छिन्नं च] और अविच्छिन्न (अटूट) है ॥१३॥
*निष्पन्न होना = उत्पन्न होना; फलरूप होना; सिद्ध होना । (शुद्धोपयोग से निष्पन्न हुए अर्थात् (शुद्धोपयोग कारण से कार्यरूप हुए)
तत्त्व-प्रदीपिका:
एवमयमपास्तसमस्तशुभाशुभोपयोगवृत्ति: शुद्धोपयोगवृत्तिमात्मसात्कुर्वाण: शुद्धोपयोगाधिकारमारभते । तत्र शुद्धोपयोगफलमात्मन: प्रोत्साहनार्थमभिष्टौति -
आसंसारापूर्वपरमाद्भुताह्लादरूपत्वादात्मानमेवाश्रित्य प्रवृत्तत्वात्पराश्रयनिरपेक्षत्वाद-त्यन्तविलक्षणत्वात्समस्तायतिनिरपायित्वान्नैरन्तर्यप्रवर्तमानत्वाच्चातिशयवदात्मसमुत्थं विषयातीतमनौपम्यमनन्तमव्युच्छिन्नं च शुद्धोपयोगनिष्पन्नानां सुखमतस्तत्सर्वथा प्रार्थनीयम् ॥१३॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
इसप्रकार यह भाव (भगवान कुन्दकुन्दाचार्य देव) समस्त शुभाशुभोपयोगवृत्ति को(शुभउपयोगरूप और अशुभ उपयोगरूप परिणति को) अपास्त कर (हेय मानकर, तिरस्कार करके, दूर करके) शुद्धोपयोगवृत्ति को आत्मसात् (आत्मरूप, अपनेरूप) करते हुए शुद्धोपयोग अधिकार प्रारम्भ करते हैं । उसमें (पहले) शुद्धोपयोग के फल की आत्मा के प्रोत्साहन के लिये प्रशंसा करते हैं -
- अनादि संसार से जो पहले कभी अनुभव में नहीं आया ऐसे अपूर्व, परम अद्भुत आह्लादरूप होने से 'अतिशय',
- आत्मा का ही आश्रय लेकर (स्वाश्रित) प्रवर्तमान होने से 'आत्मोत्पन्न',
- पराश्रय से निरपेक्ष होने से (स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द के तथा संकल्प-विकल्प के आश्रय की अपेक्षा से रहित होने से) 'विषयातीत',
- अत्यन्त विलक्षण होने से (अन्य सुखों से सर्वथा भिन्न लक्षण वाला होने से) 'अनुपम',
- समस्त आगामी काल में कभी भी नाश को प्राप्त न होने से 'अनन्त' और
- बिना ही अन्तर के प्रवर्तमान होने से 'अविच्छिन्न'