ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 155 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
अप्पा उवओगप्पा उवओगो णाणदंसणं भणिदो । (155)
सो वि सुहो असुहो वा उवओगो अप्पणो हवदि ॥167॥
अर्थ:
[आत्मा उपयोगात्मा] आत्मा उपयोगात्मक है; [उपयोग:] उपयोग [ज्ञानदर्शनं भणित:] ज्ञान-दर्शन कहा गया है; [अपि] और [आत्मनः] आत्मा का [सः उपयोग:] वह उपयोग [शुभ: अशुभ: वा] शुभ अथवा अशुभ [भवति] होता है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथात्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वाय परद्रव्यसंयोगकारणस्वरूपमालोचयति -
आत्मनो हि परद्रव्यसंयोगकारणमुपयोगविशेष: । उपयोगो हि तावदात्मन: स्वभावश्चै-तन्यानुविधायिपरिणामत्वात् । स तु ज्ञानं दर्शनं च, साकारनिराकारत्वेनोभयरूपत्वाच्चैतन्यस्य ।
अथायमुपयोगो द्वेधा विशिष्यते शुद्धाशुद्धत्वेन । तत्र शुद्धोनिरुपराग:, अशुद्ध: सोपराग: । स तु विशुद्धिसंक्लेशरूपत्वेन द्वैविध्यादुपरागस्य द्विविध: शुभोऽशुभश्च ॥१५५॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
वास्तव में आत्मा को परद्रव्य के संयोग का कारण उपयोगविशेष है । प्रथम तो उपयोग वास्तव में आत्मा का स्वभाव है क्योंकि वह चैतन्यानुविधायी (उपयोग चैतन्य का अनुसरण होने वाला) परिणाम है । और वह उपयोग ज्ञान तथा दर्शन है, क्योंकि चैतन्य साकार और निराकार ऐसा उभयरूप है । अब इस उपयोग के शुद्ध और अशुद्ध ऐसे दो भेद किये गये हैं । उसमें, शुद्ध उपयोग निरुपराग (निर्विकार) है; और अशुद्ध उपयोग सोपराग (सविकार) है । और वह अशुद्ध उपयोग शुभ और अशुभ ऐसे दो प्रकार का है, क्योंकि उपराग विशुद्धिरूप और संक्लेशरूप ऐसा दो प्रकार का है (अर्थात् विकार मन्दकषायरूप और तीव्रकषायरूप ऐसा दो प्रकार का है) ।