ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 156 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
उवओगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्स संचयं जादि । (156)
असुहो वा तध पावं तेसिमभावे ण चयमत्थि ॥168॥
अर्थ:
[उपयोग:] उपयोग [यदि हि] यदि [शुभ:] शुभ हो [जीवस्य] तो जीव के [पुण्यं] पुण्य [संचय याति] संचय को प्राप्त होता है [तथा वा अशुभ:] और यदि अशुभ हो [पापं] तो पाप संचय होता है । [तयो: अभावे] उनके (दोनों के) अभाव में [चय: नास्ति] संचय नहीं होता ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथात्र क उपयोग: परद्रव्यसंयोगकारणमित्यावेदयति -
उपयोगो हि जीवस्य परद्रव्यसंयोगकारणमशुद्ध: । स तु विशुद्धिसंक्लेशरूपोपरागवशात् शुभाशुभत्वेनोपात्तद्वैविध्य:, पुण्यपापत्वेनोपात्तद्वैविध्यस्य परद्रव्यस्य संयोगकारणत्वेन निर्वर्तयति । यदा तु द्विविधस्याप्यस्याशुद्धस्याभाव: क्रियते तदा खलूपयोग: शुद्ध एवावतिष्ठते । स पुनरकारणमेव परद्रव्यसंयोगस्य ॥१५६॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
जीव का परद्रव्य के संयोग का कारण अशुद्ध उपयोग है । और वह विशुद्धि तथा संक्लेशरूप उपराग के कारण शुभ और अशुभरूप से द्विविधता को प्राप्त होता हुआ, जो पुण्य और पापरूप से द्विविधता को प्राप्त होता है ऐसा जो परद्रव्य उसके संयोग के कारणरूप से काम करता है । (उपराग मन्दकषायरूप और तीव्रकषायरूप से दो प्रकार का है, इसलिये अशुद्ध उपयोग भी शुभ-अशुभ के भेद से दो प्रकार का है; उसमें से शुभोपयोग पुण्यरूप परद्रव्य के संयोग का कारण होता है और अशुभोपयोग पापरूप परद्रव्य के संयोग का कारण होता है । ) किन्तु जब दोनों प्रकार के अशुद्धोपयोग का अभाव किया जाता है तब वास्तव में उपयोग शुद्ध ही रहता है; और वह तो परद्रव्य के संयोग का अकारण ही है । (अर्थात् शुद्धोपयोग परद्रव्य के संयोग का कारण नहीं है) ॥१५६॥