अल्पतर बंध
From जैनकोष
दे. प्रकृति बंध १।
अल्पबहुत्व-
पदार्थोंका निर्णय अनेक प्रकारसे किया जाता है-उनका अस्तित्व व लक्षण आदि जानकर, उनकी संख्या या प्रमाण जानकर तथा उनका अवस्थान आदि जानकर। तहाँ पदार्थोंकी गणना क्योंकि संख्याको उल्लंघन कर जाती है और असंख्यात व अनन्त कहकर उनका निर्देश किया जाता है, इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि किसी भी प्रकार उस अनन्त या असंख्यमें तरतमता या विशेषता दर्शायी जाय ताकि विभिन्न पदार्थोंकी विभिन्न गणनाओं का ठीक-ठीक अनुमान हो सके। यह अल्पबहुत्व नामका अधिकार जैसा कि इसके नामसे ही विदित है इसी प्रयोजनकी सिद्धि करता है।
१. अल्पबहुत्व सामान्य निर्देश व शंकाएँ
1. अल्पबहुत्व सामान्यका लक्षण।
2. अल्पबहुत्व प्ररूपणाके भेद।
3. संयतकी अपेक्षा असंतकी निर्जरा अधिक कैसे।
4. सिद्धोंके अल्पबहुत्व सम्बन्धी शंका।
5. वर्गणाओंके अल्पबहुत्व संबन्धी दृष्टिभेद।
6. पंचशरीर विस्रसोपचय वर्गणाके अल्पबहुत्व दृष्टिभेद।
7. मोह प्रकृतिके प्रदेशाग्रों सम्बन्धी दृष्टिभेद।
२. ओघ आदेश प्ररूपणाएँ
• प्ररूपणाओं विधयक नियम तथा काल व क्षेत्र के आधार-पर गणना करनेकी विधि। -दे. संख्या/२।
१. सारणीमें प्रयुक्त संकेतोंके अर्थ।
२. षट् द्रव्योंका षोडशपदिक अल्प बहुत्व।
३. जीव द्रव्यप्रमाणमें ओघ प्ररूपणा।
1. प्रवेश की अपेक्षा।
2. संयमकी अपेक्षा।
3. सम्यक्त्वमें संचयकी अपेक्षा।
४. गतिमार्गणा
१-२. पांच गति व आठ गतिकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा।
३-६. चारों गतियोंकी पृथक्-पृथक् सामान्य, ओघ व आदेश प्ररूपणाएँ।
५. इन्द्रिय मार्गणा
1. इन्द्रियोंकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा।
2. इन्द्रियोंमें पर्याप्तापर्याप्तकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा।
3. ओघ व आदेश प्ररूपणा।
६. काय मार्गणा
1. त्रस स्थावरकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा।
2. पर्याप्तापर्याप्त सामान्यकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा।
3. बादर सूक्ष्म सामान्यकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा।
4. बादर सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्तकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा।
5. ओघ व आदेश प्ररूपणा।
७. गति इन्द्रिय व कायकी संयोगी परस्थान प्ररूपणा।
८. योग मार्गणा
1. सामान्यकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा।
2. विशेषकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा।
3. ओघ व आदेश प्ररूपणा।
९. वेद मार्गणा
1. सामान्यकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा।
2. विशेषकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा।
3. तीनों वेदोंकी पृथक्-पृथक् ओघ व आदेश प्ररूपणा।
१०. कषाय मार्गणा
1. कषाय चतुष्ककी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा।
2. कषाय चतुष्ककी अपेक्षा ओघ व आदेश प्ररूपणा।
११. ज्ञान मार्गणा
1. सामान्य प्ररूपणा।
2. ओघ व आदेश प्ररूपणा।
१२. संयम मार्गणा
1. सामान्यकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा।
2. विशेषकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा।
3. ओघ व आदेश प्ररूपणा।
१३. दर्शन मार्गणा
1. सामान्य व
2. ओघ व आदेश प्ररूपणा
१४. लेश्या मार्गणा
1. सामान्य व
2. ओघ व आदेश प्ररूपणा।
१५. भव्य मार्गणा
1. सामान्य व
2. ओघ व आदेश प्ररूपणा।
१६. सम्यक्त्व मार्गणा
1. सामान्य व
2. ओघ व आदेश प्ररूपणा।
१७. संज्ञी मार्गणा
1. सामान्य व
2. ओघ व आदेश प्ररूपणा।
१८. आहारक मार्गणा
1. सामान्य व
2. ओघ व आदेश प्ररूपणा।
3. अनाहारककी ओघ व आदेश प्ररूपणा।
३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएँ
१. सिद्धोंकी अनेक अपेक्षाओंसे अल्पबहुत्व प्ररूपणा
1. संहरण सिद्ध व जन्म सिद्धकी अपेक्षा।
2. क्षेत्रकी अपेक्षा (केवल संहरण सिद्धोंमें)।
3. कालकी अपेक्षा।
4. अन्तरकी अपेक्षा।
5. गतिकी अपेक्षा।
6. वेदनानुयोगकी अपेक्षा।
7. तीर्थंकर व सामान्य केवलीकी अपेक्षा।
8. चारित्रकी अपेक्षा।
9. प्रत्येकबुद्ध व बोधितबुद्धकी अपेक्षा।
10. ज्ञानकी अपेक्षा।
11. अवगाहनाकी अपेक्षा।
12. युगपत् प्राप्त सिद्धोंकी संख्या की अपेक्षा।
२. १-१, २-२ आदि करके संचय होनेवाले जीवोंकी अल्प बहुत्वप्ररूपणा
1. गति आदि १४ मार्गणाकी अपेक्षा।
३. २३ वर्गणाओं सम्बन्धी प्ररूपणाएँ
1. एक श्रेणी वर्गणाके द्रव्य प्रमाणकी अपेक्षा।
2. नाना श्रेणी वर्गणाके द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा।
3. नाना श्रेणी प्रदेश प्रमाणकी अपेक्षा।
4. उपरोक्त तीनोंकी स्व व परस्थान प्ररूपणा।
४. पंच शरीर बद्ध वर्गणाओंकी प्ररूपणा
1. पंच वर्गणाओंके द्रव्य प्रमाणकी अपेक्षा।
2. पंच वर्गणाओंकी अवगाहनाकी अपेक्षा।
3. पंच शरीरबद्ध विस्रसोपचयोंकी अपेक्षा।
4. प्रत्येक वर्गणामें समय प्रबद्ध प्रदेशोंकी अपेक्षा।
5. शरीर बद्ध विस्रसोपचयोंकी स्व व परस्थानकी अपेक्षा।
6. पंच शरीरबद्ध प्रदेशोंकी अपेक्षा।
7. औदारिक शरीरबद्ध प्रदेशोंकी अपेक्षा।
8. इन्द्रिय बद्ध प्रदेशोंकी अपेक्षा।
• पाँचों शरीरोंमें प्रथम समय प्रबद्धसे लेकर अन्तिम समय प्रबद्ध तक बन्धे प्रदेशप्रमाणकी अपेक्षा। दे. (षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १४/५,६/सू.२६३-२८६/३३९-३५२)।
• पाँचों शरीरोंकी ज.व उ. स्थिति या निषेकोंके प्रमाणकी अपेक्षा। दे. (षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १४/५,६/सू.३२०-३३९/३६६-३६९)
• पाँचों शरीरोंके ज.उ.व उभय स्थितिगत निषेकोंमें प्रदेश प्रमाणकी अपेक्षा। दे. (षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १४/५,६/सू.३४०-३८९/३७२-३८७)।
• उपरोक्त प्रदेशाग्रोंमें एक व नाना गुणहानि स्थानान्तरोंकी अपेक्षा। दे. (षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १४/५,६/सू.३९०-४०६/३८७-३९२)।
• उपरोक्त निषेकोंके ज.उ.व उभय प्रदेशाग्र प्रमाणकी अपेक्षा। दे. (षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १४/५,६/सू.४०७-४१५/३९२-३९५)।
• पाँचों शरीरोंमें बन्धे प्रदेशाग्रोंके अविभाग प्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा। दे. (षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १४/५,६/सू.५१५-५१९/४३७-४३८)।
• पंच शरीरोंके पुद्गलस्कन्धोंको संघातन, परिशातन, उभय व अनुभयादि कृतियोंकी अपेक्षा। दे. (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,७१/३४६-३५४)।
५. पंच शरीरोंकी अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ
१. सूक्ष्मता व स्थूलताकी अपेक्षा।
२. औदारिक शरीर विशेषकी अवगाहनाकी अपेक्षा।
• पंच शरीरोंके पुद्गलस्कन्धोंकी संघातन परिशातन आदि कृतियोंमें गृहीत परमाणुओंके प्रमाणकी अपेक्षा। दे. (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,७१/३४६-३५४)।
• ज.उ.अवगाहना क्षेत्रोंकी अपेक्षा। दे. (धवला पुस्तक संख्या ११/पृ.२८)।
३. पंचेन्द्रियोंकी अवगाहनाकी अपेक्षा।
६. पाँचों शरीरोंके स्वामियोंकी ओघ व आदेश प्ररूपणा
७. जीवभावोंके अनुभाग व स्थिति विषयक प्ररूपणा
1. संयम विशुद्धि या लब्धि स्थानोंकी अपेक्षा।
2. १४ जीव समासोंमें संक्लेश व विशुद्धि स्थानोंकी अपेक्षा।
3. दर्शन ज्ञान चारित्र विषयक भाव सामान्यके अवस्थानोंकी अपेक्षा स्व व परस्थान प्ररूपणा।
4. उपशमन व क्षपण कालकी अपेक्षा।
5. कषाय कालकी अपेक्षा।
6. नोकषाय बन्धकालकी अपेक्षा।
7. मिथ्यात्वकाल विशेषकी अपेक्षा। (अर्थात् भिन्न-भिन्न जीवोंके मिथ्यात्वकालका अल्पबहुत्व)।
• अधःप्रवृत्तिकरणकी विशुद्धियोंमें तरतमताकी अपेक्षा। दे. (धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-८,१६/३७५-३७८)।
• संयमासंयम लब्धिस्थानोंमें तरतमताकी अपेक्षा। दे. (धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-८,१४/२७६/७)।
८. जीवोंके योग स्थानोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ
1. योग सामान्यके यवमध्य कालकी अपेक्षा।
2. योगस्थानोंके स्वामित्व सामान्यकी अपेक्षा।
3. योग स्थान सामान्यमें परस्पर अल्पबहुत्व।
4. जीव समासोंमें जघन्योंत्कृष्ट योगस्थानोंकी अपेक्षा।
5. प्रत्येक योगके अविभाग प्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा।
९. कर्मोंके सत्त्व व बन्धस्थानोंकी अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ
1. जीवोंके स्थिति बन्धस्थानोंकी अपेक्षा।
2. स्थिति बन्धमें जघन्य व उत्कृष्ट स्थानोंकी अपेक्षा।
3. स्थितिबन्धके निषेकोंकी अपेक्षा।
• अनिवृत्ति गुणस्थानमें स्थितिबन्धकी अपेक्षा। दे. (धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-८,१४/२९७/४)।
• उपशान्तकषायसे उतरे अनिवृत्तिकरणमें स्थितिबन्धकी अपेक्षा। दे. (धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-८,१४/३२४/३)।
• चारित्रमोह क्षपक अनिवृत्तिकरणके स्थितिबन्धकी अपेक्षा। दे. (धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-८,१४/३५०/२) (विशेष दे. आगे अल्पबहुत्व/३/११)।
4. मोहनीय कर्मके स्थितिसत्त्वस्थानोंकी अपेक्षा।
5. बन्धसमुत्पत्तिक अनुभाग सत्त्वके जघन्य स्थानोंकी अपेक्षा।
6. हत्समुत्पत्तिक अनुभागसत्त्वके जघन्य स्थानोंकी अपेक्षा।
7. अष्टकर्मप्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागकी ६४ स्थानीय स्वस्थान ओघ व आदेश प्ररूपणा।
8. अष्टकर्म प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागकी ६४ स्थानीय स्वस्थान ओघ व आदेश प्ररूपणा।
9. अष्टकर्म प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागकी ६४ स्थानीय परस्थान ओघ प्ररूपणा।
• उपरोक्त विषयक आदेश प्ररूपणाएँ। दे. (महाबंध पुस्तक संख्या ५/$४३९-४४२/२३१-२३३)।
10. अष्टकर्म प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागकी ६४ स्थानीय परस्थान ओघ प्ररूपणा।
• उपरोक्त विषयक आदेश प्ररूपणा। दे. (महाबंध पुस्तक संख्या ५/$४४४-४५०/२३५-२३९)।
11. एक समयप्रबद्ध प्रदेशाग्रमें सर्व व देशघाती अनुभागके विभागकी अपेक्षा।
12. एक समयप्रबद्ध प्रदेशाग्रोंमें निषेक सामान्यके विभागकी अपेक्षा।
13. एक समयप्रबद्धमें अष्टकर्म प्रकृतियोंके प्रदेशाग्र विभागकी अपेक्षा।
14. जीव समासोंमें विभिन्न प्रदेशबन्धोंकी अपेक्षा।
15. आठ अपकर्षोंकी अपेक्षा आयुबन्धक जीवोंकी प्ररूपणा।
16. आठ अपकर्षोंमें आयुबन्धके कालकी अपेक्षा।
१०. अष्टकर्म संक्रमण व निर्जराकी अपेक्षा अल्पबहुत्व प्ररूपणा
1. भिन्न गुणधारी जीवोंमें गुणश्रेणी रूप प्रदेश निर्जराकी ११ स्थानीय सामान्य प्ररूपणा।
2. भिन्न गुणधारी जीवोंमें गुणश्रेणी प्रदेश निर्जराके कालकी ११ स्थानीय प्ररूपणा।
3. पाँच प्रकारके संक्रमणों द्वारा हत् कर्मप्रदेशोंके परिमाणमें अल्पबहुत्व।
• प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्ति विधानमें अपूर्वकरणके काण्डक घातकी अपेक्षा। दे. (धवला पुस्तक संख्या ६/१,९,८,५/२२८/१)।
• द्वितीयोपशम प्राप्ति विधानमें उपरोक्त विकल्प। दे. (धवला पुस्तक संख्या ६/१,९,८,१४/२८९/१०)।
• अश्वकर्ण प्रस्थापक चारित्रमोह क्षपकके अनुभागसत्त्वकी अपेक्षा। दे. (धवला पुस्तक संख्या ६/१,९,८,१२/२६३/६)।
• अपूर्वस्पर्धककरणमें अनुभाग काण्डकघातकी अपेक्षा। दे. (धवला पुस्तक संख्या ६/१,९,८,१६/३६६/११)।
• चारित्रमोह क्षपकके अपूर्वकरणमें स्थिति काण्डकघातकी अपेक्षा। दे. (धवला पुस्तक संख्या ६/१,९,८,१६/३४४/८)।
• त्रिकरण विधानकीअवस्था विशेषोंके उत्कीरण कालों तथा स्थिति बन्ध व सत्त्व आदि विकल्पोंकी अपेक्षा प्ररूपणाएँ।
• प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा। दे. (धवला पुस्तक संख्या ६/१,९,८,७/२३६/८)।
• प्रथमोपशम व वेदक सम्यक्त्व तथा संयमासंयमको युगपत् ग्रहण करनेकी अपेक्षा। दे. (धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-८/११/२४७/१)।
• पुरुषवेद सहित क्रोधके उदयसे आरोहण व अवरोहण करनेवाले चारित्रमोहोपशामक अपूर्वकरणके भिन्न-भिन्न प्रकृतियोंके आश्रय सर्व विकल्परूप उत्कीरण कालोंकी अपेक्षा। दे. (धवला पुस्तक संख्या ६/१,९,८,१४/३३५/११)।
• दर्शनमोह क्षपककी अपेक्षा। दे. (धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-८,१२/२६३/६)।
• अनुवृत्तिकरण गुणस्थानमें चारित्रमोहकी यथायोग्य प्रकृतियोंके उपशमनकी अपेक्षा। दे. (धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-८,१४/३०३/६)।
११. अष्टकर्म बन्ध उदय सत्त्वादि १० करणोंकी अपेक्षा भुजगारादि पदोमें अल्पबहुत्वकी ओघ व आदेश प्ररूपणाएँ
1. उदीरणाकी अपेक्षा अष्टकर्म प्ररूपणा
2. उदय अपेक्षा अष्टकर्म प्ररूपणा
3. उपशमना अपेक्षा अष्टकर्म प्ररूपणा
4. संक्रमण अपेक्षा अष्टकर्म प्ररूपणा
5. बन्ध अपेक्षा अष्टकर्म प्ररूपणा
6. मोहनीयकर्म विशेषके सत्त्वकी अपेक्षा।
7. अष्टकर्मबन्ध वेदनामें स्थिति, अनुभाग, प्रदेश व प्रकृति बन्धोंकी अपेक्षा ओघ व आदेश स्व-पर स्थान अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ।
• प्रयोग व समवदान आदि षट्कर्मोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व प्ररूपणा।
• १४ मार्गणाओंमें जीवोंकी तथा उनमें स्थिति कर्मोंकी उपरोक्त षट् कर्मोंकी अपेक्षा प्ररूपणा। दे. (धवला पुस्तक संख्या १३/५,४,३१/१७५-१९५)।
• निगोद जीवोंकी उत्पत्ति आदि विषयक अल्पबहुत्व प्ररूपणा
• साधारण शरीरमें निगोद जीवोंका उत्पत्तिक्रम। निरन्तर व सान्तर कालोंकी अपेक्षा। (षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १/१४/५,६/सू.५८७-६२८/४७४)।
• उपरोक्त कालोंसे उत्पन्न होनेवाले जीवोंके प्रमाणकी अपेक्षा दे. (षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १४/५,६/सू.५८७-६२८/४७४)।
१. अल्पबहुत्व सामान्य निर्देश व शंकाए
१. अल्पबहुत्व सामान्यका लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या १०/९/४७३ क्षेत्रादिभेदभिन्नानां परस्परतः संख्या विशेषोऽल्पबहुत्वम्।
= क्षेत्रादि भेदोंकी अपेक्षा भेदको प्राप्त हुए जीवोंकी परस्पर संख्याका विशेष प्राप्त करना अल्पबहुत्व है।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या १०/९/१४/६४७/२७)
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/८/१०/४२/१९ संख्यातादिष्वन्यतमेन परिमाणेन निश्चिताना मन्योन्यविशेषप्रतिपत्यर्थ मल्पबहुत्ववचनं क्रियते-इमे एभ्योऽल्पा इमे बहवः इति।
= संख्यात आदि पदार्थोंमें अन्यतम किसी एकके परिमाणका निश्चय हो जानेपर उनकी परस्पर विशेष प्रतिपत्तिके लिए अल्पबहुत्व करनेमें आता है। जैसे यह इनकी अपेक्षा अल्प है, यह अधिक है इत्यादि।
(सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या १/८/२९)
धवला पुस्तक संख्या ५/१,८,१/२४२/७ किमप्पाबहुअं। संखाधम्मो एदम्हादो एदं तिगुणं चदुगुणमिदि बुद्धिगेज्झो।
=
प्रश्न - अल्पबहुत्व क्या है?
उत्तर - यह उससे तिगुणा है, अथवा चतुर्गुणा है इस प्रकार बुद्धिके द्वारा ग्रहण करने योग्य संख्याके धर्मको अल्पबहुत्व कहते हैं।
२. अल्पबहुत्व प्ररूपयणाके भेद
धवला पुस्तक संख्या ५/१,८,१/२४१/१० (द्रव्य क्षेत्र काल भाव आदि निक्षेपोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व अनेक भेद रूप है।
(विशेष दे. निक्षेप)
३. संयतकी अपेक्षा असंयतकी निर्जरा अधिक कैसे
धवला पुस्तक संख्या १२/४,२,७,१७८/६ संजमपरिणामेहितो अणंताणुबंधिं विसंजोएतंस्स असंजदसम्मादिट्ठस्स परिणामो अणंतगुणहीणो, कधं तत्तो असंखेज्जगुणपदेसणिज्जरा। ण एस दोसो संजमपरिणामेहिंतो अणंताणुबंधीणं विसंजोजणाए कारणभूदाणं सम्मत्तपरिणामाणमणंतगुणत्तुवलंभादो। जदि सम्मत्तपरिणामेहिं अणंताणुबंधीणं विसंजोजणा कीरदे तो सव्वसम्माइट्ठीसु तब्भावो पसज्जदि त्ति वुत्ते ण, विसिट्ठेहि चेव सम्मत्तपरिणामेहिं तव्विसंजोयणब्भुवगमादि त्ति।
=
प्रश्न - संयमरूप परिणामोंकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले असंतसम्यग्दृष्टिका परिणाम अनन्तगुणहीन होता है। ऐसी अवस्थामें उससे असंख्यातगुणी प्रदेश निर्जरा कैसे हो सकती है?
उत्तर - यह कोई दोष नहीं है-क्योंकि संयमरूप परिणामोंकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी कषायोंकी विसंयोजनामें कारणभूत सम्यक्त्वरूप परिणाम अनन्तगुणे उपलब्ध होते हैं। प्रश्न-यदि सम्यक्त्वरूप परिणामोंके द्वारा अनन्तानुबन्धी कषायोंकी विसंयोजना की जाती है तो सभी सम्यग्दृष्टि जीवोंमें उसकी विसंयोजनाका प्रसंग आता है?
उत्तर - सब सम्यग्दृष्टियोंमें उसकी विसंयोजनाका प्रसंग नहीं आ सकता, क्योंकि विशिष्ट सम्यक्त्वरूप परिणामोंके द्वारा ही अनन्तानुबन्धी कषायोंकी विसंयोजना स्वीकारकी गयी है।
४. सिद्धोंके अल्पबहुत्व सम्बन्धी शंका
धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,६६/३१८/७ एदमप्पाबहुगं सोलसवदियअप्पाबहुएण सह विरुज्झदे, सिद्धकालादो सिद्धाणं संखेज्जगुणत्तं फिट्टिदूण विसेसाहियत्तप्पसंगादो। तेणेत्थ उवएसं लहिय एगदरणिण्णओ कायव्वो।
= यह अल्पबहुत्व (सिद्धोंमें कृति संचय सबसे स्तोक है, अव्यक्त संचित असंख्यातगुणे हैं, इत्यादि) षोडशपदादिक अल्पबहुत्व (अल्पबहुत्व २/२) के साथ विरोधको प्राप्त होता है, क्योंकि सिद्धकालकी अपेक्षा सिद्धोंके संख्यातगुणत्व नष्ट होकर विशेषाधिकपनेका प्रसंग आता है। इस कारण यहाँ उपदेश प्राप्त कर दो-में-से किसी एकका निर्णय करना चाहिए।
५. वर्गणाओंके अल्पबहुत्व सम्बन्धी दृष्टिभेद
धवला पुस्तक संख्या १४/५,६,९३/१११/४ जहण्णादो पुण उक्कस्सबादरणिगोदवग्गणा असंखेज्जगुणा। को गुणकारो। जगसेडीए असंखेज्जदिभागो। के वि आइरिया गुणगारो पुण आवलियाए असंखेज्जदिभागो होदि त्ति भणंति, तण्ण घडदे। कुदो। बादरणिगोदवग्गणाए उक्कसियाएसेडीए असंखेज्जदिंभागमेत्तो णिगोदाणं त्ति एदेण चूलियासुत्तेण स विरोहादो।
= अपनी जघन्यसे उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है? जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। कितने ही आचार्य गुणकार आवलिके संख्यातवें भाग प्रमाण होता है, ऐसा कहते हैं, परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, `उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणामें निगोद जीवोंका प्रमाण जगश्रेणिके असंख्यातवें भागमात्र है', इस चूलिकासूत्रके साथ विरोध आता है।
धवला पुस्तक संख्या १४/५,६,११६/१६६/७ एत्थ के वि आइरिया उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणादो उवरिमधुवसुण्णएगसेडी असंखेज्जगुणा। गुणगारो वि घणावलियाए असंखेज्जदिभागो त्ति भणंति तण्ण घडदे। कुदो। संखेज्जेहि असंखेज्जेहि वा जीवेहि जहण्णबादरणिगोदवग्गणाणुप्पत्तीदो।...तम्हा अणंतलोगा गुणगारो ति एदं चेव घेत्तव्वं।
= यहाँ पर कितनेही आचार्य उत्कृष्ट प्रत्येक शरीरवर्गणासे उपरिमध्रु व शून्य एक श्रेणी असंख्यातगुणी है, और गुणकार भी घनावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है, ऐसा कहते हैं, परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि संख्यात या असंख्यात जीवोंसे जघन्य बादरनिगोदवर्गणाकी उत्पत्ति नहीं हो सकती।...इसलिए `अनन्त लोक गुणकार है' यह वचन ही ग्रहण करना चाहिए।
धवला पुस्तक संख्या १४/५,६,११६/२१६/१३ कम्मइयवग्गणादो हेट्ठिमाहारवग्गणादो उवरिमअगहणवग्गणमद्धाणगुणगारेहिंतो आहारादिवग्गणाणं अद्धाणुप्पायणट्ठं ट्ठविदभागहारो अणंतगुणो त्ति के विआइरिया इच्छंति, तेसिमहिप्पाएण पुव्विल्लमपाबहुगं परूविदं। भागाहारेहिंतो गुणगारा अणंतगुणा त्तिके वि आइरिया भणंति। तेसिमहिप्पाणं एदमप्पा बहुगं परूविज्जदे, तेणेसो ण दोसो।
= कार्माणवर्गणासे अधस्तन आहार वर्गणासे उपरिम अग्रहणवर्गणाके अध्वानके गुणकारसे आहारादि वर्गणाओंके अध्वानको उत्पन्न करनेके लिए स्थापित भागाहार अनन्तगुणा है। ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, इसलिए उनके अभिप्रायानुसार पहिलेका अल्पबहुत्व कहा है। तथा भागहारोंसे गुणकार अनन्तगुणे हैं ऐसा आचार्य कहते हैं। इसलिए उनके अभिप्रायानुसार यह अल्पबहुत्व कहा जा रहा है। इसलिए यह कोई दोष नहीं है।
६. पंचशरीर विस्रसोपचय वर्गणाके अल्पबहुत्व-दृष्टिभेद
धवला पुस्तक संख्या १४/५,६,५५२/४५/४५७/६ सव्वथ गुणगारो सव्वजीवेहि अणंतगुणो। एदमप्पाबहुगं बाहिरवग्णाए पुधभूदं त्ति काऊण के वि आइरिया जीवसंबद्धपंचण्णं सरीराणं विस्सस्सुवचयस्सुवरि परूवेंति तण्ण घडदे, जहण्णपत्तेयसरीरवगणादो उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाए अणंतगुणप्पसंगादो।
= `सर्वत्र गुणकार सब जीवोंसे अनन्तगुणा है।' यह अल्पबहुत्व बाह्य वर्गणासे पृथग्भूत है, ऐसा मानकर कितने ही आचार्य जीव सम्बद्ध पाँच शरीरोंके विस्रसोपचयके ऊपर कथन करते हैं, परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा माननेपर जघन्य प्रत्येक शरीरवर्गणासे उत्कृष्ट प्रत्येक शरीरवर्गणाके अनन्तगुणे होनेका प्रसंग प्राप्त होता है।
७. मोह प्रकृतिके प्रदेशाग्रों सम्बन्धी दृष्टिभेद
कषायपाहुड़ पुस्तक संख्या ४/३-२२/६३३९/३३४/११ सम्मत्तचरिमफालीदो सम्मामिच्छत्तचरिमफाली असंख्ये. गुणहीणा त्ति एगो उवएसो। अवरेगो सम्मामिच्छत्तचरिमफाली तत्तो विसेसाहिया त्ति। एत्थ एदेसिं दोण्हं पि उवएसाणं णिच्छयं काउमसमत्थेण जइवसहाइरिएण एगो एत्थ विलिहिदो अवरेगो ट्ठिदिसंकम्मे। तेणेदे वे वि उवदेसा थप्पं कादूण वत्तव्वा त्ति।
= सम्यक्त्वकी अन्तिम फालिसे सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालि असंख्यातगुणी हीन है, यह पहिला उपदेश है। तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालि उससे विशेष अधिक है यह दूसरा उपदेश है। यहाँ इन दोनों ही उपदेशोंका निश्चय करनेमें असमर्थ यतिवृषभ आचार्यने एक उपदेश यहाँ लिखा और एक उपदेश स्थिति संक्रमणमें लिखा, अतः इन दोनों ही उपदेशोंको स्थगित करके कथन करना चाहिए।
२. ओघ आदेश प्ररूपणाएँ
१. सारणीमें प्रयुक्त संकेतोंके अर्थ
संकेत अर्थ
अंगु. अंगुल
अंत. अंतर्मुहूर्त
अप. अपर्याप्त
अप्र. अप्रतिष्ठित
असं. असंख्यात
आ. आवली, आहारक शरीर
उ. उत्कृष्ट
उप. उपशम सम्यक्त्व या उपशमश्रेणी उपपाद योग स्थान
एका. एकान्तानुवृद्धि योगस्थान
औ. औदारिक शरीर
का. कार्मण शरीर
क्षप. क्षपक श्रेणी
क्षा. क्षायिक सम्यक्त्व
गुण. गुणकार या गुणस्थान
ज. जघन्य
ज.प्र. जगप्रतर
ज.श्रे. जगश्रेणी
तै. तैजस शरीर
नि.अप. निवृत्त्यपर्याप्त
नि.प. निर्वृत्ति पर्याप्त
पंचे. पंचेन्द्रिय
प. पर्याप्त
परि. परिणाम योग स्थान
पृ. पृथिवी
प्रति. प्रतिष्ठित
बा. बादर
ल.अप. लब्धयपर्याप्त
वन. वनस्पति
वे. वेदक सम्यक्त्व
वै. वैक्रियिक शरीर
सं. संख्यात
सम्मू. सम्मूर्च्छन
सा. सामान्य
सू. सूक्ष्म
२. षट् द्रव्योंका षोडशपदिक अल्पबहुत्व
धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,३/३०/७
नं द्रव्य अल्पबहुत्व गुणकार
१ वर्तमान काल स्तोक -
२ अभव्यय राशि अनन्तगुणी ज.युक्तानन्त
३ सिद्ध काल अनन्तगुणी -
४ सिद्ध जीव असं.गुणे शत पुथक्त्व
५ असिद्धकाल असं.गुणे सं. आवली
६ अतीत काल विशेषाधिक सिद्धकाल
७ भव्य मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणे -
८ भव्य सामान्य विशेषाधिक सम्यग्दृष्टि
९ मिथ्यादृष्टि विशेषाधिक अभव्य
१० संसारी जाव विशेषाधिक भव्य
११ सम्पूर्ण जीव विशेषाधिक सिद्ध
१२ पुद्गल द्रव्य अनन्तगुणे -
१३ अनागत काल अनन्तगुणा पुद्गलXअनन्त
१४ सम्पूर्ण काल विशेषाधिक सर्वयोग
१५ अलोकाकाश अनन्तगुणा कालXअनन्त
१६ सम्पूर्ण आकाश विशेषाधिक लोक
३. जीव द्रव्यप्रमाण में ओघ प्ररूपणा
(षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ५/१,८/सू.१-२६)
नोट - प्रमाणवाले कोष्ठकमें सर्वत्र सूत्र नं. लिखे हैं। यहाँ यथा स्थान उस उस सूत्रकी टाकी भी सम्मिलित जानना।
१. प्रवेशकी अपेक्षा
सूत्र मार्गणा गुण स्थान अल्पबहुत्व कारण व विशेष
- उपशमक
२ - ८ स्तोक अधिक से अधि ५४
२ - ९ ऊपर तुल्य जीवों का प्रवेश ही सम्भव है
२ - १० ऊपर तुल्य जीवों का प्रवेश ही सम्भव है
३ - ११ ऊपर तुल्य जीवों का प्रवेश ही सम्भव है
- क्षपक
४ - ८ दुगुने १०८ तक जीवों का प्रवेश सम्भव है
४ - ९ ऊपर तुल्य १०८ तक जीवों का प्रवेश सम्भव है
४ - १० ऊपर तुल्य १०८ तक जीवों का प्रवेश सम्भव है
५ - १२ ऊपर तुल्य १०८ तक जीवों का प्रवेश सम्भव है
६ - १३ ऊपर तुल्य १०८ तक जीवों का प्रवेश सम्भव है
६ - १४ ऊपर तुल्य १०८ तक जीवों का प्रवेश सम्भव है
२. संचयकी अपेक्षा
- उपशमक
४ - ८ स्तोक प्रवेशके अनुरूप ही संचय होता है। कुल २९९ जीव संचित होने सम्भव हैं
४ - ९ ऊपर तुल्य प्रवेशके अनुरूप ही संचय होता है। कुल २९९ जीव संचित होने सम्भव हैं
४ - १० ऊपर तुल्य प्रवेशके अनुरूप ही संचय होता है। कुल २९९ जीव संचित होने सम्भव हैं
४ - ११ ऊपर तुल्य प्रवेशके अनुरूप ही संचय होता है। कुल २९९ जीव संचित होने सम्भव हैं
- क्षपक
४ - ८ दुगुने कुल ५९८ जीव संचित होते हैं
४ - ९ ऊपल तुल्य कुल ५९८ जीव संचित होते हैं
४ - १० ऊपल तुल्य कुल ५९८ जीव संचित होते हैं
५ - १२ ऊपल तुल्य कुल ५९८ जीव संचित होते हैं
६ - १४ ऊपल तुल्य कुल ५९८ जीव संचित होते हैं
७ - १३ सं. गुणे ८९८५०२ जीवों का संचय
- अक्षपक व अनुपशमक
८ - ७ सं. गुणे २९६९९१०३ जीवों का संचय
९ - ६ दुगुने ५९३९८२०६ जीवों का संचय
१० - ५ पल्य/असं.गुणे मध्य लोकमें स्वम्भूरमण पर्वतके परभागमें अवस्थान
११ - २ आ./असं.गुणे एक समयमें प्राप्त संयता-संयतसे एक समय गत सासादन राशि असं.गुणी है।
१२ - ३ सं.गुणे १. सासादनसे सं. गुणा संचय काल
२. सासादनके उपरान्त उपशम सम्यक्त्व ही प्राप्त होता है पर इसके उपरान्त उपशम व वेदक सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्व तीनों प्राप्त होते हैं।
३. उपशमसे वेदक सम्यग्दृष्टि सं. गुणे हैं।
१३ - ४ आ./असं.गुणे सम्यक. मिथ्यात्वका संचय काल अन्तर्मुहूर्त है व इसका २ सागर है।
१४ - १ सिद्धों से अनन्त गुण वाला अनन्त से गुणित -
३. सम्यक्त्वमें संचयकी अपेक्षा
१५ असंयत उप. स्तोक -
१६ - क्षा. आ./असं. गुणे अधिक संचय काल सुलभता
१७ - वे. आ./असं. गुणे अधिक संचय काल सुलभता
१८ संयतासंयत उप. स्तोक तिर्यंचोंमें अभाव तथा दुर्लभ
१९ - क्षा. पल्य/असं. गु. तिर्यंचोमें उत्पत्ति
२० - वे. आ./असं. गुणे तिर्यंचोंमें उत्पत्ति तथा सुलभ
२१ ६ठा ७वाँ गुणस्थान उप. स्तोक अल्प संचय काल तथा संयमकी दुर्लभता
२२ - क्षा. सं. गुणा अधिक संचय काल सुलभता
२३ - वे. सं. गुणा अधिक संचय काल सुलभता
२५ ८-१०वाँ गुणस्थान उप. स्तोक अल्प संचय काल तथा श्रेणीकी दुर्लभता
२६ - क्षा. सं. गुणे अधिक संचय काल
- चारित्र उप. स्तोक अल्प संचय काल
- - क्षा. सं. गुणे अधिक संचय काल
४. गति मार्गणा
१. पाँच गतिकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा-
(षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ७/२,११/सू.२-६)(मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या १२०७-१२०८)
२ मनुष्य - स्तोक -
३ नारकी - असं.गुणे गुणकार = सूच्यंगु./असं
४ देव - असं.गुणे -
५ सिद्ध - अनन्तगुणे गुणकार = भव्य/अनन्त
६ तिर्यञ्च - अनन्तगुणे -
२. ८ गतिकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा-
(षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ७/२,११/सू.८-१५)
८ मनुष्यणी - स्तोक -
९ मनुष्य - असं.गुणे गुणकार = ज.श्रे./असं.
१० नारकी - असं.गुणे गुणकार = ज.श्रे./असं.
११ देव - सं.गुणे -
१२ देवी - ३२ गुणी -
१३ सिद्ध - अनन्तगुणे -
१५ तीर्यञ्च - अनन्तगुणे -
३. नरक गति-
१. नरकगतिकी सामान्य प्ररूपणा-
(मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या १२०९)
- सप्तम पृ. - स्तोक असंख्यात बहुभाग क्रम से पहिलीसे सप्त पृथिवी तक हानि समझना (धवला पुस्तक संख्या ३/पृ.२०७)
- ६ठीं पृ. - असं.गुणे -
- ५वीं पृ. - असं.गुणे -
- ४थी पृ. - असं.गुणे -
- ३री पृ. - असं.गुणे -
- २री पृ. - असं.गुणे -
- १ली पृ. - असं.गुणे -
२. नरकगतिकी ओघ व आदेश प्ररूपणा-
(षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ५/१,८/सू.२७-४०)
२७ नारकी सामान्य २ स्तोक -
२८ - ३ सं.गुणे अधिक उपक्रमण काल
२९ - ४ असं.गुणे गुणकार = आ./असं.
३० - १ असं.गुणे गुणकार = अंगुल/असं.\ज.प्र.
३१ सम्यक्त्व उप. स्तोक -
३२ - क्षा असं.गुणे गुणकार = पल्य/असं. अधिक संचय काल
३३ - वे. अंस.गुणे गुणकार = आ./असं.
३४ प्रथम पृ. १-४ - नारकी सामान्यवत्
३५ २-७ पृ. २ स्तोक पृथक् पृथक्
३६ - ३ सं.गुणे -
३७ - ४ असं.गुणे गुणकार = आ./असं.
३८ - १ असं.गुणे क्रमेण २ ज.श्रे=१\२४ गुणकार = अंगु./असं.\ज.प्र.३,४,५,६,७, १\२०,१\१६,१\१२,१\९,१\४
३९ - उप. स्तोक -
४० सम्यक्त्व वे. असं.गुणे गुणकार = पल्य/असं.Xआ./असं.
- क्षा. ... क्षायिकका अभाव
४. तिर्यंच गति-
१. निर्यच गतिकी सामान्य प्ररूपणा-
(षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ५/१०८/सू.४१-५०)
नोट - दे. इन्द्रिय व काय मार्गणा
२. तिर्यंच गतिकी ओघ व आदेश प्ररूपणा-
(षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ५/१,८/सू.४१-५०)
तिर्यंच सा.,पंचे.ति.सा.,पंचे.प.,योनिमति-
४१ सामान्य १ स्तोक दुर्लभता
४२ - २ अंस.गुणे गुणकार = आ./अंस
४३ - ३ सं.गुणे -
४४ - ४ असं.गुणे गुणकार = आ./असं.
४५ - १ अनन्तगुणे -
४६ असंयतोमें उप. स्तोक -
४७ सम्यक्त्व क्षा. असं.गुणे गुणकार = आ./असं.
४८ - वे. असं.गुणे भोगभूमि में संचय
४९ संयतासंयतोमें उप. स्तोक -
५० सम्यक्त्व वे. असं.गुणे गुणकार = आ./असं.
- क्षा. - अभाव
५. मनुष्य गति-
१. मनुष्य गतिकी सामान्य प्ररूपणा-
(तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/२९३१-३३) (मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या १२१२-१२१५) (धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,१४/९९/२)
- अन्तद्वीपज प. - स्तोक -
- उत्तम भोगभूमि प. - सं.गुणे देवकुरू व उत्तरकुरू
- मध्य भोगभूमि प. - सं.गुणे हरि व रम्यक
- जघन्यभोगभूमि प. - सं.गुणे हैमवत हैरण्यवत
- अनकस्थितकर्मभू. प. - सं.गुणे भरत ऐरावत
- अवस्थितकर्मभू. प. - सं.गुणे विदेह क्षेत्र
- लब्धपर्याप्त - असं.गुणे -
- सर्व मनुष्य सामान्य - विशेषाधिक पर्याप्त+अपर्याप्त
२. मनुष्यगतिकी ओघ व आदेश प्ररूपणा-
(षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ५/१,८/सू.५३-८०)
मनुष्य सामान्य, मनुष्य प. मनुष्यणी
५३ उपशमक ८-१० स्तोक प्रवेश व संचय दोनों
५४ - ११ ऊपर तुल्य तीनों परस्परतुल्य (५४जी.)
५५ क्षपक ८-१० दुगुने तीनों परस्परतुल्य (१०८ जीव)
५६ - १२ ऊपर तुल्य तीनों परस्परतुल्य
५७ - १४ ऊपर तुल्य तीनों परस्परतुल्य
५७ - १३ ऊपर तुल्य प्रवेशापेक्षाया
५८ - - सं.गुणे संचयापेक्षया
५९ अक्षपक व अनुपश. ७ सं.गुणे मूलोघवत्
६० - ६ दुगुने मूलोघवत्
६१ - ५ सं.गुणे मूलोघवत्
६२ - २ सं.गुणे मूलोघवत्
६३ - ३ सं.गुणे मूलोघवत्
६४ - ४ सं.गुणे मूलोघवत्
६५ - १ सं.गुणे मनुष्य प.व मनुष्यणीमें
६५ - - असं.गुणे मनुष्य सा.व.अप.
६६ असंयतोमें- उप स्तोक मूलोघवत्
६७ - क्षा सं.गुणे मूलोघवत्
६८ - वे. सं.गुणे मूलोघवत्
६९ संयतासंयतोंमें सम्यक्त्व क्षा स्तोक क्षायिकसम्यकत्वी प्रायःसंयमासंयम नहीं धरते या असंयमी रहते हैं या संयम ही धरते हैं।
७० - उप. सं.गुणे बहु उपलब्धि
७१ - वे. सं.गुणे अधिक आय
७२ गुणस्थान ६-७में उप. स्तोक मूलोघवत्
७३ सम्यक्त्व क्षा. सं.गुणे मूलोघवत्
७४ - वे. सं.गुणे मूलोघवत्
७८ उपशमकोंमे उप. स्तोक मूलोघवत्
- सम्यक्त्व क्षा. सं.गुणे -
७९ चारित्र उप. स्तोक -
८० - क्षप. सं.गुणे -
३. केवल मनुष्यणीकी विशेषता-
(षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ५/१,८/सू.७५-७८)
७५ गुणस्थान ४-७ में सम्यक्त्व क्षा. स्तोक अप्रशस्त वेदमें क्षायिक सम्यकत्व दुर्लभ है।
७६ - उप. सं.गुणे -
७७ - वे. सं.गुणे -
७८ उपशमकोंमें क्षा. स्तोक उपरोक्तवत्
- सम्यक्त्व उप. सं.गुणे -
६. देवगति-
१. देवगतिकी सामान्य प्ररूपणा-
(मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या १२१६)
- कल्पवासी देवदेवी - स्तोक -
- भवनवासी देवदेवी - असं.गुणे -
- व्यन्तर देवदेवी - असं.गुणे -
- ज्योंतिषी देवदेवी - असं.गुणे -
२. देवगतिकी ओघ व आदेश प्ररूपणा-
(षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ५/१,८/सू.८१-१०२)
८१ देव सामान्य २ स्तोक -
८२ - ३ सं.गुणे अधिक उपक्रमण काल ८३ - ४ असं.गुणे गुणकार = आ./असं.
८४ - १ असं.गुणे .,Xआ.\असं./ज.प्र.
८५ सम्यक्त्व उप. स्तोक अल्पसंचय काल
८६ - क्षा. असं.गुणे गुणकार = आ./असं.
८७ - वे. असं.गुणे गुणकार = आ./असं.
८८ भवनत्रिक देवदेवी व सौधर्म देवी सा. २ स्तोक सप्तम नरकवत्
८८ - ३ सं.गुणे सप्तम नरकवत्
८८ - ४ असं.गुणे गुणकार = आ./असं.
८८ - १ असं.गुणे गुणकार = आ.\असं/ज.प्र.
- उपोक्तमें सम्यक्त्व उप. स्तोक सप्तमपृथिवीवत्
८८ - वे. अंस.गुणे गुणकार = आ./असं.
८८ - क्षा - अभाव
८९ सौधर्मसे सहस्रार १-४ - देवसामान्यवत्
९० आनतसे उ.ग्रैवेयक २ स्तोक देवसामान्यवत्
९१ सामान्य ३ सं.गुणे देवसामान्यवत्
९२ - १ असं.गुणे गुणकार = आ./असं.
९३ - ४ सं.गुणे अधिक उपपाद
९४ उपरोक्तमें सम्यक्त्व उप. स्तोक -
९५ - क्षा. असं.गुणे गुणकार = आ./असं.
- - - - संयचकाल-सं.सागर
९६ - वे. सं.गुणे -
९७ - उप. स्तोक अन्य गुणस्थानोंका अभाव
९८ अनुदिशसे अपराजितमें सम्यक्त्व क्षा. असं.गुणे गुणकार=पल्य./अ.सं.
९९ - वे. सं.गुणे अधिक उपपाद
१०० - उप स्तोक अल्प संचय काल
१०१ सर्वार्थसिद्धिमें क्षा. सं.गुणे अधिक संचय काल
१०२ सम्यक्त्व वे. सं.गुणे अधिक उपपाद
५. इन्द्रिय मार्गणा
१. इन्द्रियोंकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा-
(षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ७/२,११/सू.१६-२१)
१६ पंचेन्द्रिय - स्तोक -
१७ चतुरिन्द्रिय - विशेषाधिक (पंचे.+पंचे./आ./असं)X(ज.प्र./असं.)अधिक
१८ त्रीन्द्रिय - विशेषाधिक उपरोक्त+वह/आ.\असं
१९ द्वीन्द्रिय - विशेषाधिक उपरोक्त+वह/आ.\असं
२० अनिन्द्रिय (सिद्ध) - अनन्तगुणे -
२१ एकेन्द्रिय - अनन्तगुणे -
२. इन्द्रियोंमें पर्याप्तापर्याप्तकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा-
(तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/३१४) (षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ७/२,११/सू.२२-३७)
२२ चतुरिन्द्रिय प. - स्तोक ज.प्र./प्रतरांगलु\असं.
२३ पंचेन्द्रिय प. - विशेषा. उपरोक्त+वह/आ.\असं.
२४ द्वीन्द्रिय प. - विशेषा. उपरोक्त+वह/आ.\असं.
२५ त्रीन्द्रिय प. - विशेषा. उपरोक्त+वह/आ.\असं.
२६ पंचेन्द्रिय अप. - असं गुणे गुणकार = आ/असं
२७ चतुरिन्द्रिय अप. - विशेष उपरोक्त+वह/आ.\असं.
२८ त्रीन्द्रिय अप. - विशेष उपरोक्त+वह/आ.\असं.
२९ द्वीन्द्रिय अप. - विशेष उपरोक्त+वह/आ.\असं.
३० अनिन्द्रिय (सिद्ध) - अनन्तगुणे -
३१ एकेन्द्रिय बा.प. - अनन्तगुणे -
३२ एकेन्द्रिय बा. अप. - असं.गुणे -
३३ एकेन्द्रिय बा.सा. - विशेषा. पर्याप्त+अपर्याप्त
३४ एकेन्द्रिय सू.अप. - अंस.गुणे -
३५ एकेन्द्रिय सू.प. - सं.गुणे -
३६ एकेन्द्रिय सू.सा. विशेषा पर्याप्त+अपर्याप्त
३७ एकेन्द्रिय सा. - विशेषा बा.सा.+सू.सा.
३. ओघ व आदेश प्ररूपणा-
(षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ५/१,८/सू.१०३)
- एकेन्द्रिय से - उपरोक्त एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही सम्भव है।
- चतुरिन्द्रिय तक - सामान्य प्ररूपणावत् -
- पंचे.सा.व २-१४ - -
- पंचे.प. - मूलोघवत् -
- पंचे.प. १ असं.सम्य.से.असं.गुणे -
६. काय मार्गणा
१. त्रसस्थावरकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा-
(षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ७/२,११ सू.३८-४४) (षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १४/५,६/सू.५६८-५७४/४६५) (स्याद्वादमंजरी श्लोक संख्या २९/३३१/७)
३८ त्रस सा. - स्तोक ज.प्र/असं.
३९ तेज सा. - असं. गुणे असं.लोक गुणकार
४० पृथिवी सा. - विशेषा. उपरोक्त+वह\लोक/असं
४१ अप.सा. - विशेषा. उपरोक्त+वह\लोक/असं
४२ वायु सा. - विशेषाधिक उपरोक्त+वह\लोक/असं
४३ अकायिक (सिद्ध) - अनन्त गुणे -
४४ वनस्पति सा. - अनन्तगुणे -
२. पर्याप्तापर्याप्त सामान्यकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा-
(प.खं.७/२,११/सू.४५-५९)
४५ त्रस प. - स्तोक ज.प्र.\प्रतरांगल/असं.
४६ त्रस.अप. - असं.गुणे -
४७ तेज.अप. - असं.गुणे -
४८ पृथिवी अप. - असं.गुणे -
४९ अप्.अप. - विशेषा उपरोक्त+वह\असं.लोक
५० वायु अप. - विशेषा उपरोक्त+वह\असं.लोक
५१ तेज.प. - सं.गुणे -
५२ पृथिवी प. विशेषा. उपरोक्त+वह\असं.लोक
५३ अप् प. - विशेषा. उपरोक्त+वह\असं.लोक
५४ वायु प. - विशेषा. उपरोक्त+वह\असं.लोक
५५ अकायिक (सिद्ध) - अनन्त गुणे -
५६ वनस्पति अप. - अनन्त गुणे -
५७ वनस्पति प. - सं.गुणे -
५८ वनस्पति सा. - विशेषा. पर्याप्त+अपर्याप्त
५९ निगोद सा. - विशेषा. -
३. बादर सूक्ष्म सामान्यकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणाएँ
(षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ७/२,११/सू.६०-७५)
६० त्रस सा. - स्तोक ज.प्र./असं.
६१ तेज बा.सा. - असं.गुणे गुणकार = असं.लोक
६२ वन.प्रत्येक बा.सा. - असं.गुणे गुणकार = असं.लोक
६३ बा.निगोद सा.या प्रतिष्ठित प्रत्येकमें उपलब्ध निगोद - असं.गुणे गुणकार = असं.लोक
६४ पृथिवी बा.सा. - असं.गुणे गुणकार = असं.लोक
६५ अप् बा.सा. - असं.गुणे गुणकार = असं.लोक
६६ वायु बा.सा. - असं.गुणे गुणकार = असं.लोक
६७ तेज सू.सा. - असं.गुणे गुणकार = असं.लोक
६८ पृथिवी सू.सा. - विशेषा. उपोक्त+वह/असं.लोक
६९ अप.सू.सा. - विशेषा. उपरोक्त+वह/असं.लोक
७० वायु सू.सा. - विशेषा. उपरोक्त+वह/असं.लोक
७१ अकायिक (सिद्ध) - अनन्त गुणे -
७२ वन.वा.सा. - अनन्त गुणे -
७३ वन.वा.सू.सा. असं.गुणे गुणकार = असं.लोक
७४ वन.सा. - विशेषा. बा.\सु.
७५ निगोद - विशेषा. -
४. बा.सू.पर्याप्तापर्याप्तकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा-
(षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ७/२,११/सू.७६-१०६) (तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/३१४)
७६ तेज वा.प. - स्तोक असं.प्रतरावली
७७ त्रस.प. - असं.गुणा गुणकार = ज.प्र/असं.
७८ त्रस.प.अप. - असं.गुणा गुणकार = आ./असं.
त्रस विशेष :-
(तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/३१४)
- पंचेन्द्रिय संज्ञी अप. - तेजकाय वा.प.से असं.गुणा विशेषके लिए देखो इन्द्रियमार्गणा नं.(२)
- पंचेन्द्रिय संज्ञी प. - सं.गुणे विशेषके लिए देखो इन्द्रियमार्गणा नं.(२)
- चतुरिन्द्रिय प. - सं.गुणे विशेषके लिए देखो इन्द्रियमार्गणा नं.(२)
- पंचे.असंज्ञी प. - विशेषाधिक विशेषके लिए देखो इन्द्रियमार्गणा नं.(२)
- द्वीन्द्रिय प. - विशेषाधिक विशेषके लिए देखो इन्द्रियमार्गणा नं.(२)
- त्रीन्द्रिय प. - विशेषाधिक विशेषके लिए देखो इन्द्रियमार्गणा नं.(२)
- पंचे.असंज्ञी अप. अअं.गुणे विशेषके लिए देखो इन्द्रियमार्गणा नं.(२)
- चतु.अप. - विशेषा. विशेषके लिए देखो इन्द्रियमार्गणा नं.(२)
- त्री.अप. - विशेषा. विशेषके लिए देखो इन्द्रियमार्गणा नं.(२)
- द्वी.अप. - विशेषा. विशेषके लिए देखो इन्द्रियमार्गणा नं.(२)
७९ वन. प्रत्येक प. - असं.गुणे गुणकार = पल्य/असं.
८० वन.प्रति.प्रत्ये.प. - असं.गुणे गुणकार = पल्य/असं.
८१ पृथिवी बा.प. - असं.गुणे गुणकार = आ./असं.
८२ अप्.बा.प - असं.गुणे गुणकार = आ./असं.
८३ वायु.बा.प - असं.गुणे गुणकार = प्रतरांगुल/असं.
८४ तेज बा.अप - असं.गुणे गुणकार = असं.लोक
८५ वन.अप्रति.प्रत्ये अप. - असं.गुणे गुणकार = असं.लोक
८६ वन. प्रति.प्रत्ये.अप. - असं.गुणे तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/३१४में तेजकाय बा.अप.को वन. अप्रति प्रत्येक अप.से असं.गुण बताया है।
८७ पृथिवी वा.अप्र. - असं.गुणे गुणकार = असं.लोक
८८ अप् बा.अप्र. - असं.गुणे गुणकार = असं.लोक
८९ वायु बा.अप्र - असं.गुणे गुणकार = असं.लोक
९० तेज सू. अप्र. - असं.गुणे गुणकार = असं.लोक
९१ पृथिवी सू.अप्र. - विशेषाधिक उपरोक्त+वह/असं.
९२ अपकाय सू.अप. - विशेषाधिक उपरोक्त+वह/असं.
९३ वायु सू.अप. - विशेषाधिक उपरोक्त+वह/असं.
९४ तेज सू.प. - सं.गुणे -
९५ पृथिवी सू.प. - विशेषाधिक उपरोक्त+वह/असं.
९६ अप् काय सू.प. - विशेषाधिक उपरोक्त+वह/असं.
९७ वायु सू.प. - विशेषाधिक उपरोक्त+वह/असं.
९८ अकायिक (सिद्ध) - अनन्त गुणे -
९९ वन. साधारण बा.प. - अनन्त गुणे -
१०० वन.साधारण बा. अप. - असं.गुणे गुणकार = असं.लोक
१०१ वन.साधारण बा.सा. - विशेषा. पर्याप्त+अपर्याप्त
१०२ वन.साधारण सू.अप. - असं.गुणे गुणकार = असं.लोक
१०३ वन.साधारण सू.प. - सं.गुणे -
१०४ वन.साधा.सू.सा. - विशेषाधिक अपर्याप्त+पर्याप्त
१०५ वन.साधारण.सा. - विशेषाधिक बादर+सूक्ष्म
१०६ निगोद - विशेषाधिक बादर प्रत्येक+बा.नि.प्रति.
५. ओघ व आदेश प्ररूपणा-
(षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ५/१,८/सूत्र१०४)
- त्रस काय सा.व.प. २-१४.२.(मथ्य) मूलोघवत् असंय. सम्य से असं.गुणे
७. गति इन्द्रिय व कायकी संयोगी पर-स्थान प्ररूपणा-
(षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ७/२,११/सूत्र.१-७९)
२ मनुष्य गर्भज प. - स्तोक मनुष्य सा./४
३. मनुष्यणी गर्भज.प. - तिगुनी -
४ सर्वार्थ सिद्ध देव - ४या ७ गुणे -
५. तेज काय बा.प. असं. गुणे गुणकार = असंप्रतरावली
६ विजयादि चार अनुत्तर विमान - असं.गुणे गुणकार = पल्य/असं.
७. नव अनुदिश - सं.गुणे गुणकार = सं.समय
८ ९वाँ उपरिम ग्रैवे. - सं.गुणे गुणकार = सं.समय
९ ८वाँ उपरिम ग्रैवे. - सं.गुणे गुणकार = सं.समय
१० ७वाँ उपरिम ग्रैवे. - सं.गुणे गुणकार = सं.समय
११ ६ठा. मध्य ग्रैवे. - सं.गुणे गुणकार = सं.समय
१२ ५वाँ मध्य ग्रैवे. - सं.गुणे गुणकार = सं.समय
१३ ४था.मध्य ग्रैवे. - सं.गुणे गुणकार = सं.समय
१४ ३रा.मध्य ग्रैवे. - सं.गुणे गुणकार = सं.समय
१५ २रा अधो ग्रैवेयक - सं.गुणे गुणकार = सं.समय
१६ १ला अधो ग्रैवेयक - सं.गुणे गुणकार = सं. समय
१७ आरण अच्युत - सं.गुणे गुणकार = सं.समय
१८ आनत प्राणत - सं.गुणे गुणकार = सं.समय
१९ ७वीं पृथिवी नरक - असं.गुणे गुणकार = (ज.श्रे.)१/२
२० ६ठी पृथिवी नरक - असं.गुणे गुणकार = (ज.श्रे.)३/२
२१ शतार-सहस्रार - असं.गुणे गुणकार = (ज.श्रे.)४/२
२२ शुक्र महाशुक्र - असं.गुणे गुणकार = (ज.श्रे.)५/२
२३ ५वीं पृथिवी नरक - असं.गुणे गुणकार = (ज.श्रे.)६/२
२४ लांतव कापिष्ठ - असं.गुणे गुणकार = (ज.श्रे.)७/२
२५ ४थी पृथिवी नरक - असं.गुणे गुणकार = (ज.श्रे.)८/२
२६ ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर - असं.गुणे गुणकार = (ज.श्रे.)९/२
२७ ३री पृथिवी नरक - असं.गुणे गुणकार = (ज.श्रे.)१०/२
२८ माहेन्द्र स्वर्ग - असं.गुणे गुणकार = (ज.श्रे.)११/२
२९ सनत्कृमार स्वर्ग - असं.गुणे गुणकार = असं.समय
३० २री पृथिवी नरक - असं.गुणे गुणकार = (ज.श्रे.)१२/२
३१ मनुष्य अप. - असं.गुणे गुणकार = (ज.श्रे.)१२/२\असं.
३२ ईशान देव - असं.गुणे गुणकार = सूच्यंगुल/असं.
३३ ईशान देवियाँ - ३२ गुणी -
३४ सौधर्म देव - सं.गुणे -
३५ सौधर्म देवियाँ - ३२ गुणी -
३६ १ली पृथिवी नरक - असं.गुणे गुणकार = (घनांगुल)३/२
३७ भवनवासी देव - असं.गुणे गुणकार = (घनांगुल)३/२\सं.
३८ भवनवासी देवियाँ - ३२ गुणी -
३९ चें.तिर्यं.योनिमति - असं.गुणी गुणकार = (असं.ज.श्रे) (१/२\सं.)
४० व्यंतर देव - सं.गुणे -
४१ व्यंतर देवियाँ - ३२ गुणी -
४२ ज्योतिषी देव - सं.गुणे -
४३ ज्योतिषी देवियाँ - ३२ गुणी -
४४ चतिरिन्द्रिय प. - सं.गुणे -
४५ पंचेन्द्रिय प. - विशेषाधिक उपरोक्त+वह\आ./असं.
४६ द्वीन्द्रिय प. - विशेषाधिक उपरोक्त+वह\आ./असं.
४७ त्रीन्द्रिय प. - विशेषाधिक उपरोक्त+वह\आ./असं.
४८ पंचेन्द्रिय अप. - असं.गुणे गुणकार = आ./असं.
४९ चतुरिन्द्रिय अप. - विशेषाधिक उपरोक्त+वह\आ./असं.
५० त्रीन्द्रिय अप. - विशेषाधिक उपरोक्त+वह\आ./असं.
५१ द्वीन्द्रिय अप. - विशेषाधिक उपरोक्त+वह\आ./असं.
५२ वन. अप्रति. प्रत्येक बा. प. - असं.गुणे गुणकार = पल्य/असं.
५३ वन. प्रति. प्रत्येक बा. प. या निगोद - असं.गुणे गुणकार = आ./असं.
५४ पृथिवी बा. प. - असं.गुणे गुणकार = आ./असं.
५५ अप.काय बा. प. - असं.गुणे गुणकार = आ./असं.
५६ वायु काय वा. प. - असं. गुणे गुणकार = प्रतरांगुल/असं.
५७ तेज काय वा. अप. - असं. गुणे गुणकार = असं. लोक
५८ वन. अप्रति. प्रत्येक वा. अप. - असं. गुणे गुणकार = असं. लोक
५९ वन. प्रति. प्रत्येक वा. अप. या निगोद - असं. गुणे गुणकार = असं.लोक
६० पृथिवी काय वा. अप. - असं. गुणे गुणकार = असं. लोक
६१ अप् काय वा. अप. - असं. गुणे गुणकार = असं. लोक
६२ वायु काय वा. अप. - असं. गुणे गुणकार = असं. लोक
६३ तेज काय सू. अप. - असं. गुणे गुणकार = असं. लोक
६४ पृथिवी काय वा. अप. - विशेषाधिक उपरोक्त + वह/असं. लोक
६५ अप् काय वा. अप. - विशेषाधिक उपरोक्त + वह/असं. लोक
६६ वायु काय वा. अप. - विशेषाधिक उपरोक्त + वह/असं. लोक
६७ तेज काय वा. प. - सं. गुणा -
६८ पृथिवी काय वा. प. - विशेषाधिक उपरोक्त + असं. लोक
६९ अप काय वा. प. - विशेषाधिक उपरोक्त + असं. लोक
७० वायु काय वा. अप. - विशेषाधिक उपरोक्त + असं. लोक
७१ अकायिक (सिद्ध) - अनन्तगुणे -
७२ वन. साधारण वा. पा. - अनन्तगुणे -
७३ वन. साधारण अप. - असं. गुणा गुणकार = असं. लोक
७४ वन. साधारण सा. - विशेषाधिक पर्याप्त + अपर्याप्त
७५ वन. साधारण सू. अप. - असं. गुणे गुणकार = असं. लोक
७६ वन. साधारण सू. प. - सं.गुणे -
७७ वन. साधारण सू. सा. - विशेषाधिक पर्याप्त + अपर्याप्त
७८ वन. साधारण सा. - विशेषाधिक सूक्ष्म सा. + बादर सा.
७९ निगोद - विशेषाधिक विशेष = वन. प्रति. - प्रत्येक बा. सा.
८. योग मार्गणा-
१. सामान्यकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा-
(षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ७/२,११/सू.१०७-११०)
१०७ मनोयोगी सा. - स्तोक देव सा./असं.
१०८ वचनयोगी सा. - सं. गुणे -
१०९ अयोगी (सिद्ध) - अनन्त गुणे -
११० काय योगी - अनन्त गुणे -
२. विशेषकी अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा-
(षट्खण्डागम पुस्तक संख्या ७/२,११सू.१११-१२९)
१११ आहारक मिश्र योग - स्तोक -
११२ आहारक काय योग - दुगुने -
११३ वैक्रियक मिश्र योग - असं. गुणे -
११४ सत्य मनो योग - सं. गुणे -
११५ मृषा मनो योग - सं. गुणे -
११६ उभय मनो योग - सं. गुणे -
११७ अनुभय मनो योग - सं. गुणे -
११८ मनोयोगी सा. - विशेषाधिक चारों मनोयोगी
११९ सत्य वचन योग - सं. गुणे -
१२० मृषा वचन योग - सं. गुणे -
१२१ उभय वचन योग - सं. गुणे -
१२२ वैक्रियक काय योग - सं. गुणे -
१२३ अनुभय वचन योग - सं. गुणे -
१२४ वचन योगी सा. - विशेषाधिक चारों वचन योगी
सूत्र मार्गणा गुणस्थान अल्पबहुत्व कारण व विशेष
१२५ अयोगी (सिद्ध) - अनन्त गुणे -
१२६ कार्माण काय योग - अनन्त गुणे -
१२७ औदारिक मिश्र योग - असं.गुणे गुणकार=अन्तर्मूहूर्त
१२८ औदारिक काय योग - सं. गुणे -
१२९ काय योगी सा. - विशेषाधिक चारों काय योगी