ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 189 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयेण णिद्दिट्ठो । (189)
अरहंतेहिं जदीणं ववहारो अण्णहा भणिदो ॥202॥
अर्थ:
[एष:] यह (पूर्वोक्त प्रकार से), [जीवानां] जीवों के [बंधसमास:] बंध का संक्षेप [निश्चयेन] निश्चय से [अर्हद्भि:] अर्हन्तभगवान ने [यतीनां] यतियों से [निर्दिष्ट:] कहा है; [व्यवहार:] व्यवहार [अन्यथा] अन्य प्रकार से [भणितः] कहा है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ निश्चयव्यवहाराविरोधं दर्शयति -
रागपरिणाम एवात्मन: कर्म, स एव पुण्यपापद्वैतम् । रागपरिणामस्यैवात्मा कर्ता, तस्यैवोपादाता हाता चेत्येष शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चयनय: । यस्तु पुद्गलपरिणाम आत्मन: कर्म स एव पुण्यपापद्वैतं, पुद्गलपरिणामस्यात्मा कर्ता, तस्योपादाता हाता चेति सोऽशुद्ध-द्रव्यनिरूपणात्मको व्यवहारनय: । उभावप्येतौ स्त, शुद्धाशुद्धत्वेनोभयथा द्रव्यस्य प्रतीय-मानत्वात् । किन्त्वत्र निश्चयनय: साधकतमत्वादुपात्त:, साध्यस्य हि शुद्धत्वेन द्रव्यस्य शुद्धत्व-द्योतकत्वान्निश्चयनय एव साधकतमो, न पुनरशुद्धत्वद्योतको व्यवहारनय: ॥१८९॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
राग-परिणाम ही आत्मा का कर्म है, वही पुण्य-पापरूप द्वैत है, आत्मा
- राग-परिणाम का ही कर्ता है,
- उसी का ग्रहण करने वाला है और
- उसी का त्याग करने वाला है;
- पुद्गल-परिणाम का कर्ता है,
- उसका ग्रहण करने वाला और
- छोड़ने वाला है; --
अब ऐसा कहते हैं कि अशुद्धनय से अशुद्ध आत्मा की ही प्राप्ति होती है :-