ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 190 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
ण चयदि जो दु ममत्तिं अहं ममेदं ति देहदविणेसु । (190)
सो सामण्णं चत्ता पडिवण्णो होदि उम्मग्गं ॥203॥
अर्थ:
[यः तु] जो [देहद्रविणेषु] देह-धनादिक में [अहं मम इदम्] ‘मैं यह हूँ और यह मेरा है’ [इति ममतां] ऐसी ममता को [न त्यजति] नहीं छोड़ता, [सः] वह [श्रामण्यं त्यक्त्वा] श्रमणता को छोड़कर [उन्मार्गं प्रतिपन्न: भवति] उन्मार्ग का आश्रय लेता है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथाशुद्धनयादशुद्धात्मलाभ एवेत्यावेदयति -
यो हि नाम शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयनयनिरपेक्षोऽशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकव्यवहार-नयोपजनितमोह: सन् अहमिदं ममेदमित्यात्मात्मीयत्वेन देहद्रविणादौ परद्रव्ये ममत्वं न जहाति स खलु शुद्धात्मपरिणतिरूपं श्रामण्याख्यं मार्गं दूरादपहायाशुद्धात्मपरिणतिरूपमुन्मार्गमेव प्रतिपद्यते । अतोऽवधार्यते अशुद्धनयादशुद्धात्मलाभ एव ॥१९०॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
जो आत्मा शुद्ध-द्रव्य के निरूपण-स्वरूप निश्चय-नय से निरपेक्ष रहकर अशुद्धद्रव्य के निरूपण-स्वरूप व्यवहार-नय से जिसे मोह उत्पन्न हुआ है ऐसा वर्तता हुआ 'मैं यह हूँ और यह मेरा है' इस प्रकार आत्मीयता से देह धनादिक परद्रव्य में ममत्व नहीं छोड़ता वह आत्मा वास्तव में शुद्धात्म-परिणतिरूप श्रामण्यनामक मार्ग को दूर से छोड़कर अशुद्धात्म-परिणतिरूप उन्मार्ग का ही आश्रय लेता है । इससे निश्चित होता है कि अशुद्ध-नय से अशुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है ॥१९०॥
अब ऐसा निश्चित करते हैं कि शुद्धनय से शुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है :-