ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 226 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
इहलोगणिरावेक्खो अप्पडिबद्धो परम्हि लोयम्हि । (226)
जुत्ताहारविहारो रहिदकसाओ हवे समणो ॥256॥
अर्थ:
[श्रमण:] श्रमण [रहितकषाय:] कषायरहित वर्तता हुआ [इहलोक निरापेक्षः] इस लोक में निरपेक्ष और [परस्मिन् लोके] परलोक में [अप्रतिबद्ध:] अप्रतिबद्ध होने से [युक्ताहारविहार: भवेत्] युक्ताहार-विहारी होता है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ युक्ताहारविहारलक्षणतपोधनस्य स्वरूपमाख्याति --
इहलोगणिरावेक्खो इहलोकनिरापेक्षः, टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावनिजात्मसंवित्तिविनाशकख्यातिपूजा-लाभरूपेहलोककाङ्क्षारहितः, अप्पडिबद्धो परम्हि लोयम्हि अप्रतिबद्धः परस्मिन् लोके, तपश्चरणे कृतेदिव्यदेवस्त्रीपरिवारादिभोगा भवन्तीति, एवंविधपरलोके प्रतिबद्धो न भवति, जुत्ताहारविहारो हवे युक्ताहारविहारो भवेत् । स कः । समणो श्रमणः । पुनरपि कथंभूतः । रहिदकसाओ निःकषायस्वरूप-संवित्त्यवष्टम्भबलेन रहितकषायश्चेति । अयमत्र भावार्थः --
योऽसौ इहलोकपरलोकनिरपेक्षत्वेननिःकषायत्वेन च प्रदीपस्थानीयशरीरे तैलस्थानीयं ग्रासमात्रं दत्वा घटपटादिप्रकाश्यपदार्थस्थानीयं निजपरमात्मपदार्थमेव निरीक्षते स एव युक्ताहारविहारो भवति, न पुनरन्यः शरीरपोषणनिरत इति ॥२५६॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब, युक्त (उचित) आहार-विहार लक्षण मुनिराज का स्वरूप प्रसिद्ध करते हैं -
[इह लोगणिरावेक्खो] इस लोक से निरपेक्ष, टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभावी अपने आत्मा की अनुभूति को नष्ट करनेवाली, प्रसिद्धि, पूजा, लाभरूप इस लोक सम्बन्धी इच्छाओं से रहित; [अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि] परलोक में अप्रतिबद्ध, तपश्चरण करने पर दिव्य देव-स्त्री-परिवार आदि भोग प्राप्त होते है- इसप्रकार परलोक के विषय में प्रतिबद्ध (विषयाकांक्षारूप बंधन) नहीं हैं; [जुत्ताहारविहारो हवे] युक्ताहार-विहारी हों । कौन युक्ताहार-विहारी हों? [समणो] श्रमण युक्ताहार-विहारी हों । वे श्रमण किस विशेषतावाले हैं? [रहिदकसाओ] और कषाय रहित स्वरूप की अनुभूतिरूप अवलम्बन के बल से वे कषाय रहित हैं ।
यहाँ भावार्थ यह है- जो वे, इस लोक और परलोक से निरपेक्ष तथा कषाय रहित होने के कारण दीपक के स्थानीय शरीर में, तेल के स्थानीय ग्रास मात्र देकर घड़े-कपड़े आदि प्रकाशित होने योग्य पदार्थों के स्थानीय अपने परमात्म-पदार्थ का ही निरीक्षण करते हैं; वे ही युक्ताहार-विहारी हैं; शरीर की पुष्टि में लगे हुये और दूसरे नहीं ॥२५६॥