ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 235 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
सव्वे आगमसिद्धा अत्था गुणपज्जएहिं चित्तेहिं । (235)
जाणंति आगमेण हि पेच्छित्ता ते वि ते समणा ॥269॥
अर्थ:
[सर्वे अर्था:] समस्त पदार्थ [चित्रै: गुणपर्यायै:] विचित्र (अनेक प्रकार की) गुणपर्यायों सहित [आगमसिद्धा:] आगमसिद्ध हैं । [तान्] अपि उन्हें भी [ते श्रमणा:] वे श्रमण [आगमेन हि दृष्ट्वा] आगम द्वारा वास्तव में देखकर [जानन्ति] जानते हैं ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथागम-लोचनेन सर्वं द्रश्यत इति प्रज्ञापयति --
सव्वे आगमसिद्धा सर्वेऽप्यागमसिद्धा आगमेन ज्ञाताः । के ते । अत्था विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावो योऽसौ परमात्मपदार्थस्तत्प्रभृतयोऽर्थाः । कथं सिद्धाः । गुणपज्जएहिं चित्तेहिं विचित्रगुणपर्यायैः सह । जाणंति जानन्ति । कान् । ते वि तान् पूर्वोक्तार्थगुणपर्यायान् । किं कृत्वापूर्वम् । पेच्छित्ता द्रष्टवा ज्ञात्वा । केन । आगमेण हि आगमेनैव । अयमत्रार्थः - पूर्वमागमं पठित्वापश्चाज्जानन्ति । ते समणा ते श्रमणा भवन्तीति । अत्रेदं भणितं भवति --
सर्वे द्रव्यगुणपर्यायाः परमागमेनज्ञायन्ते । कस्मात् । आगमस्य परोक्षरूपेण केवलज्ञानसमानत्वात् । पश्चादागमाधारेण स्वसंवेदनज्ञाने जातेस्वसंवेदनज्ञानबलेन केवलज्ञाने च जाते प्रत्यक्षा अपि भवन्ति । ततःकारणादागमचक्षुषा परंपरया सर्वंद्रश्यं भवतीति ॥२६९॥
एवमागमाभ्यासकथनरूपेण प्रथमस्थले सूत्रचतुष्टयं गतम् ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[सव्वे आगमसिद्धा] सभी आगम-सिद्ध-आगम से ज्ञात हैं । वे कौन आगम से ज्ञात हैं? [अत्था] विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी जो वह परमात्मपदार्थ, तत्प्रभृति सभी पदार्थ आगम से ज्ञात हैं । वे पदार्थ आगम से कैसे ज्ञात हैं? [गुणपज्जयेहिं चित्तेहिं] वे पदार्थ, विचित्र गुण-पर्यायों के साथ ज्ञात हैं । [जाणंति] जानते हैं । किन्हें जानते हैं? [ते वि] उन पहले कहे गये अर्थ (द्रव्य) गुणपर्यायों को जानते हैं । पहले क्या करके जानते हैं? [पेच्छित्ता] पहले देखकर-जानकर जानते हैं । किससे देखकर जानते हैं? [अगमेण हि] आगम से ही देखकर जानते हैं । यहाँ अर्थ यह है- पहले आगम को पढ़कर, बाद में जानते हैं । [ते समणा] वे श्रमण हैं ।
यहाँ यह कहा गया है -- सभी द्रव्य-गुण-पर्याय परमागम से ज्ञात होते हैं । परमागम से क्यों ज्ञात होते हैं? परोक्षरूप से आगम केवलज्ञान के समान होने से, वे परमागम से जाने जाते हैं । बाद में आगम के आधार से स्वसंवेदनज्ञान होने पर और स्वसंवेदनज्ञान के बल से केवलज्ञान होने पर, प्रत्यक्ष भी होते हैं । इस कारण आगमरूपी नेत्र द्वारा परम्परा से सभी दिखाई देते हैं ॥२६९॥
इसप्रकार आगम-अभ्यास के कथनरूप से, पहले स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुईं ।
(अब, भेदाभेद रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग के कथन परक, चार गाथाओं में निबद्ध द्वितीय स्थल प्रारम्भ होता है ।)