ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 236 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
आगमपुव्वा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह संजमो तस्स । (236)
णत्थीदि भणदि सुत्तं असंजदो होदि किध समणो ॥270॥
अर्थ:
[इह] इस लोक में [यस्य] जिसकी [आगमपूर्वा दृष्टि:] आगमपूर्वक दृष्टि (दर्शन) [न भवति] नहीं है [तस्य] उसके [संयम:] संयम [नास्ति] नहीं है, [इति] इस प्रकार [सूत्रं भणति] सूत्र कहता है; और [असंयत:] असंयत वह [श्रमण:] श्रमण [कथं भवति] कैसे हो सकता है?
तात्पर्य-वृत्ति:
अथागमपरिज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धानतदुभयपूर्वकसंयतत्वत्रयस्य मोक्षमार्गत्वं नियमयति --
आगमपुव्वा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह आगमपूर्विका द्रष्टिः सम्यक्त्वं नास्ति यस्येह लोके संजमो तस्स णत्थि संयमस्तस्य नास्ति इदि भणदि इत्येवं भणति कथयति । किं कर्तृ । सुत्तं सूत्रमागमः । असंजदो होदि किध समणो असंयतः सन्श्रमणस्तपोधनः कथं भवति, न कथमपीति । तथाहि --
यदि निर्दोषिनिजपरमात्मैवोपादेय इति रुचिरूपंसम्यक्त्वं नास्ति तर्हि परमागमबलेन विशदैकज्ञानरूपमात्मानं जानन्नपि सम्यग्द्रष्टिर्न भवति, ज्ञानी चन भवति, तद्द्वयाभावे सति पञ्चेन्द्रियविषयाभिलाषषड्जीववधव्यावृत्तोऽपि संयतो न भवति । ततःस्थितमेतत् – परमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वत्रयमेव मुक्तिकारणमिति ॥२७०॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब, आगम-परिज्ञान और तत्त्वार्थ-श्रद्धान -- इन दोनों पूर्वक संयतपना -- इन तीनों के मोक्षमार्गत्व का नियम करते हैं --
[आगमपुव्वा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह] इस लोक में, जिसके आगमपूर्वक दृष्टि-सम्यक्त्व नहीं है, [संजमो तस्स णत्थि] उसके संयम नहीं है, [इति भणदि] इसप्रकार कहता है । कर्तारूप कौन ऐसा कहता है? [सुत्तं] सूत्र आगम ऐसा कहता है । [असंजदो होदि किध समणो] असंयत होता हुआ श्रमण-मुनिराज कैसे हो सकता है? किसी भी प्रकार नहीं हो सकता है । वह इसप्रकार- यदि दोष रहित अपना परमात्मा ही उपादेय है- ऐसी रुचिरूप सम्यक्त्व नहीं है, तो परमागम के बल से, स्पष्ट एक ज्ञानरूप आत्मा को जानता हुआ भी सम्यग्दृष्टि नहीं है और ज्ञानी नहीं है; इन दोनों का अभाव होने पर, पाँचों इन्द्रियों के विषयों की इच्छा और छहकय के जीवघात से व्यावृत्त-निवृत्त होने पर भी संयत नहीं है ।
इससे यह निश्चित हुआ कि परमागम का ज्ञान तत्त्वार्थ-श्रद्धान और संयतपना- तीन ही-तीनों का युगपद्पना ही मुक्ति का कारण है ॥२७०॥