ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 271 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
जे अजधागहिदत्था एदे तच्च त्ति णिच्छिदा समये । (271)
अच्चंतफलसमिद्धं भमंति ते तो परं कालं ॥307॥
अर्थ:
[ये] जो [समये] भले ही समय में हों (भले ही वे द्रव्यलिंगी के रूप में जिनमत में हों) तथापि वे [एते तत्त्वम्] यह तत्त्व है (वस्तुस्वरूप ऐसा ही है) [इति निश्चिता:] इस प्रकार निश्चयवान वर्तते हुए [अयथागृहीतार्था:] पदार्थों को अयथार्थरूप से ग्रहण करते हैं (जैसे नहीं हैं वैसा समझते हैं), [ते] वे [अत्यन्तफलसमृद्धम्] अत्यन्तफलसमृद्ध (अनन्त कर्मफलों से भरे हुए) ऐसे [अत: परं कालं] अब से आगामी काल में [भ्रमन्ति] परिभ्रमण करेंगे ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ संसारस्वरूपं प्रकटयति --
जे अजधागहिदत्था वीतरागसर्वज्ञ-प्रणीतनिश्चयव्यवहाररत्नत्रयार्थपरिज्ञानाभावात् येऽयथागृहीतार्थाः विपरीतगृहीतार्थाः । पुनरपिकथंभूताः । एदे तच्च त्ति णिच्छिदा एते तत्त्वमिति निश्चिताः, एते ये मया कल्पिताः पदार्थास्त एवतत्त्वमिति निश्चिताः, निश्चयं कृतवन्तः । क्व स्थित्वा । समये निर्ग्रन्थरूपद्रव्यसमये । अच्चंतफलसमिद्धं भमंति ते तो परं कालं अत्यन्तफलसमृद्धं भ्रमन्ति ते अतः परं कालम् । द्रव्यक्षेत्रकालभवभावपञ्चप्रकार-संसारपरिभ्रमणरहितशुद्धात्मस्वरूपभावनाच्युताः सन्तः परिभ्रमन्ति । कम् । परं कालं अनन्तकालम् । नारकादिदुःखरूपात्यन्तफलसमृद्धम् । पुनरपि कथंभूतम् । अतो वर्तमानकालात्परं भाविनमिति । कथंभूतम् । अयमत्रार्थः — इत्थंभूतसंसारपरिभ्रमणपरिणतपुरुषा एवाभेदेन संसारस्वरूपं ज्ञातव्य-मिति ॥३०७॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[जे अजधागहिदत्था] वीतराग-सर्वज्ञ प्रणीत, निश्चय-व्यवहार रत्नत्रयरूप भाव की जानकारी का अभाव होने से, जो पदार्थों को अन्यथा ग्रहण करनेवाले - विपरीत ग्रहण करनेवाले हैं । और जो कैसे हैं? [एदे तच्च त्ति णिच्छिदा] ये तत्व हैं -ऐसा निश्चय करनेवाले हैं ये जो मेरे द्वारा कल्पित पदार्थ हैं वे ही तत्त्व हैं - ऐसा निश्चय करनेवाले हैं । कहाँ स्थित होकर ऐसा निश्चित करनेवाले हैं? [समये] निर्ग्रन्थ रूप द्रव्यसमय में स्थित होकर ऐसा निश्चय करने वाले हैं । [अच्चंतफलसमिद्धं भमंति ते तो परं काल] वे अत्यन्त फलसमृद्ध हो, अनन्त काल तक घूमते हैं । द्रव्य- क्षेत्र- काल- भव- भाव रूप पाँच प्रकार के संसार परिभमण से रहित शुद्धात्मस्वरूप की भावना से च्युत - भ्रष्ट होते हुये घूमते हैं । कब तक घूमते हैं ? परकाल- अनन्तकाल तक घूमते हैं । कैसे घूमते हैं? नारक आदि दुःखरूप अत्यन्त फलसमृद्ध होते हुये, घूमते हैं । और कैसे (कब तक) घूमते हैं? इस वर्तमानकाल से आगे भविष्य तक घूमते हैं ।
यहाँ अर्थ यह है- इसप्रकार संसार परिभ्रमणरूप परिणत पुरुष ही, अभेदरूप से संसारस्वरूप जानना चाहिये ॥३०७॥