ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 272 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
अजधाचारविजुत्तो जधत्थपदणिच्छिदो पसंतप्पा । (272)
अफले चिरं ण जीवदि इह सो संपुण्णसामण्णो ॥308॥
अर्थ:
[यथार्थपदनिश्चित:] जो जीव यथार्थतया पदों का तथा अर्थों (पदार्थों) का निश्चय वाला होने से [प्रशान्तात्मा] प्रशान्तात्मा है और [अयथाचारवियुक्त:] अयथाचार (अन्यथाआचरण, अयथार्थआचरण) रहित है, [सः संपूर्णश्रामण्य:] वह संपूर्ण श्रामण्य वाला जीव [अफले] अफल (कर्मफल रहित हुए) [इह] इस संसार में [चिर न जीवति] चिरकाल तक नहीं रहता (अल्पकाल में ही मुक्त होता है ।)
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ मोक्षस्वरूपं प्रकाशयति --
अजधाचारविजुत्तो निश्चयव्यवहारपञ्चाचारभावना-परिणतत्वादयथाचारवियुक्तः, विपरीताचाररहित इत्यर्थः, जधत्थपदणिच्छिदो सहजानन्दैकस्वभावनिज-परमात्मादिपदार्थपरिज्ञानसहितत्वाद्यथार्थपदनिश्चितः, पसंतप्पा विशिष्टपरमोपशमभावपरिणतनिजात्म-द्रव्यभावनासहितत्वात्प्रशान्तात्मा, जो यः कर्ता सो संपुण्णसामण्णो स संपूर्णश्रामण्यः सन् चिरं ण जीवदि चिरं बहुतरकालं न जीवति, न तिष्ठति । क्व । अफले शुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतरसास्वाद-रहितत्वेनाफले फलरहिते संसारे । किन्तु शीघ्रं मोक्षं गच्छतीति । अयमत्र भावार्थः -- इत्थंभूत-मोक्षतत्त्वपरिणतपुरुष एवाभेदेन मोक्षस्वरूपं ज्ञातव्यमिति ॥३०८॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[अजधाचारविजुत्तो] निश्चय-व्यवहार पंचाचार रूप भावना से परिणत होने के कारण, अयथाचारवियुक्त-विपरीत आचार से रहित हैं- ऐसा अर्थ है; [जधत्थपदणिच्छिदो] सहज आनन्द एक स्वभावी अपने परमात्मा आदि पदार्थों के परिज्ञान से सहित होने के कारण, यथार्थ पदों के निश्चय से सहित हैं; [पसंतप्पा] विशिष्टरूप से उत्कृष्ट उपशम भावरूप परिणत अपने आत्मद्रव्य की भावना से सहित होने के कारण, प्रशान्तात्मा हैं; जो- कर्तारूप [जो सो संपुण्णसामण्णो] वे सम्पूर्ण श्रामण्य होते हुये [चिरं ण जीवदि] चिर-बहुत कालतक नहीं जीते हैं-नहीं रहते हैं । कहाँ नहीं रहते हैं? [अफले इह] शुद्धात्मा के संवेदन से उत्पन्न सुखरूपी अमृतरस के आस्वाद से रहित होने के कारण अफल-फल रहित यहाँ- इस संसार में नहीं रहते हैं, अपितु शीघ्र मोक्ष जाते हैं ।
यहाँ भाव यह है- इसप्रकार मोक्षतत्त्व परिणत पुरुष ही अभेदनय से मोक्षस्वरूप जानना चाहिये ॥३०८॥