ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 84 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स । (84)
जायदि विविहो बंधो तम्हा ते संखवइदव्वा ॥91॥
अर्थ:
[मोहेन वा] मोहरूप [रागेण वा] रागरूप [द्वेषेण वा] अथवा द्वेषरूप [परिणतस्य जीवस्य] परिणमित जीव के [विविध: बंध:] विविध बंध [जायते] होता है; [तस्मात्] इसलिये [ते] वे (मोह-राग-द्वेष) [संक्षपयितव्या:] सम्पूर्णतया क्षय करने योग्य हैं ॥८४॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथानिष्टकार्यकारणत्वमभिधाय त्रिभूमिकस्यापि मोहस्य क्षयमासूत्रयति -
एवमस्य तत्त्वाप्रतिपत्तिनिमीलितस्य, मोहेन वा रागेण वा द्वेषेण वा परिणतस्य, तृणपटला वच्छन्नगर्तसंगतस्य करेणुकुट्टनीगात्रासक्तस्य प्रतिद्विरददर्शनोद्धतप्रविधावितस्य च सिन्धुरस्येव, भवति नाम नानाविधो बन्ध: । ततोऽमी अनिष्टकार्यकारिणो मुमुक्षुणा मोहरागद्वेषा: सम्यग्निर्मूलकाषं कषित्वा क्षपणीया: ॥८४॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
इस प्रकार तत्त्व-अप्रतिपत्ति (वस्तु-स्वरूप के अज्ञान) से बंद हुए, मोह-रूप, राग-रूप या द्वेष-रूप परिणमित होते हुए इस जीव को-
- घास के ढेर से ढँके हुए खड्डे का संग करने वाले हाथी की भाँति,
- हथिनी-रूपी कुट्टनी के शरीर में आसक्त हाथी की भाँति और
- विरोधी हाथी को देखकर, उत्तेजित होकर (उसकी ओर) दौड़ते हुए हाथी की भाँति