ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 85 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
अट्ठे अजधागहणं करुणाभावो य तिरियमणुएसु । (85)
विसएसु य प्पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि ॥92॥
अर्थ:
[अर्थे अयथाग्रहणं] पदार्थ का अयथाग्रहण (अर्थात् पदार्थों को जैसे हैं वैसे सत्य-स्वरूप न मानकर उनके विषय में अन्यथा समझ) [च] और [तिर्यङ्मनुजेषु करुणाभाव:] तिर्यच-मनुष्यों के प्रति करुणाभाव, [विषयेषु प्रसंग: च] तथा विषयों की संगति (इष्ट विषयों में प्रीति और अनिष्ट विषयों में अप्रीति) - [एतानि] यह सब [मोहस्य लिंगानि] मोह के चिह्न-लक्षण हैं ॥८५॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथामी अमीभिर्लिङ्गैरुपलभ्योद्भवन्त एव निशुम्भनीया इति विभावयति -
अर्थानामयथातथ्यप्रतिपत्त्या तिर्यग्मनुष्येषु प्रेक्षार्हेष्वपि कारुण्यबुद्धय्या च मोहमभीष्टविषयप्रसंगेन रागमनभीष्टविषयाप्रीत्या द्वेषमिति त्रिभिर्लिङ्गैरधिगम्य झगिति संभवन्नपि त्रिभूमिकोऽपि मोहो निहन्तव्य: ॥८५॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
१पदार्थों की अयथा-तथ्य रूप प्रतिपत्ति के द्वारा और तिर्यंच-मनुष्य २प्रेक्षायोग्य होने पर भी उनके प्रति करुणा-बुद्धि से मोह को (जानकर), इष्ट विषयों की आसक्ति से राग को और अनिष्ट विषयों की अप्रीति से द्वेष को (जानकर) -इस प्रकार तीन लिंगों के द्वारा (तीन पकार के मोह को) पहिचानकर तत्काल ही उत्पन्न होते ही तीनो प्रकार का मोह नष्ट कर देने योग्य है ॥८५॥
१पदार्थों की अयथातथ्य रूप प्रतिपत्ति = पदार्थ जैसे नहीं है उन्हें वैसा समझना अर्थात् उन्हें अन्यथा स्वरूप से अंगीकार करना
२प्रेक्षायोग्य = मात्र प्रेक्षक भाव से- दृष्टा-ज्ञाता रूप से- मध्यस्थ भाव से देखने योग्य