ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 86 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा । (86)
खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं ॥93॥
अर्थ:
[जिनशास्त्रात्] जिनशास्त्र द्वारा [प्रत्यक्षादिभि:] प्रत्यक्षादि प्रमाणों से [अर्थान्] पदार्थों को [बुध्यमानस्य] जानने वाले के [नियमात्] नियम से [मोहोपचय:] *मोहोपचय [क्षीयते] क्षय हो जाता है [तस्मात्] इसलिये [शास्त्रं] शास्त्र का [समध्येतव्यम्] सम्यक् प्रकार से अध्ययन करना चाहिये ॥८६॥
*मोहोपचय = मोह का उपचय । (उपचय = संचय; समूह)
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ मोहक्षपणोपायान्तरमालोचयति -
यत्किल द्रव्यगुणपर्यायस्वभावेनार्हतो ज्ञानादात्मनस्तथाज्ञानं मोहक्षपणोपायत्वेन प्राक् प्रतिपन्नम्, तत् खलूपायान्तरमिदपेक्षते । इदं हि विहितप्रथमभूमिकासंक्रमणस्य सर्वज्ञोपज्ञतया सर्वतोऽप्यबाधितं शाब्दं प्रमाणमाक्रम्य क्रीडतस्तत्संस्कारस्फुटीकृतविशिष्टसंवेदनशक्तिसंपद: सहृदयहृदयानंदोद्भेददायिना प्रत्यक्षेणान्येन वा तदविरोधिना प्रमाणजातेन तत्त्वत: समस्तमपि वस्तुजातं परिच्छिन्दत: क्षीयत एवातत्त्वाभिनिवेशसंस्कारकारी मोहोपचय: । अतो हि मोहक्षपणे परमं शब्दब्रह्मोपासनं भावज्ञानावष्टम्भदृढीकृतपरिणामेन सम्यगधीयमानमुपायान्तरम् ॥८६॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
द्रव्य-गुण-पर्याय स्वभाव से अर्हन्त के ज्ञान द्वारा आत्मा का उस प्रकार का ज्ञान मोह-क्षय के उपाय के रूप में पहले (८० वीं गाथा में) प्रतिपादित किया गया था, वह वास्तव में इस (निम्न-लिखित) उपायान्तर की अपेक्षा रखता है । (वह उपायान्तर क्या है सो कहा जाता है) : -
जिसने प्रथम भूमिका में गमन किया है ऐसे जीव को, जो १सर्वज्ञोपज्ञ होने से सर्व प्रकार से अबाधित है ऐसे, शब्द प्रमाण को (द्रव्य श्रुत-प्रमाण को) प्राप्त करके क्रीड़ा करने पर, उसके संस्कार से विशिष्ट संवेदन (ज्ञान) शक्ति रूप सम्पदा प्रगट करने पर, २सहृदय-जनों के हृदय को आनन्द का ३उद्भेद देने वाले प्रत्यक्ष प्रमाण से अथवा उससे (प्रत्यक्ष प्रमाण से) अविरुद्ध अन्य प्रमाण समूह से १तत्त्वतः समस्त वस्तु-मात्र को जानने पर १अतत्त्व-अभिनिवेश के संस्कार करने वाला मोहोपचय (मोहसमूह) अवश्य ही क्षय को प्राप्त होता है । इसलिये मोह का क्षय करने में, परम शब्द-ब्रह्म की उपासना का भाव-ज्ञान के अवलम्बन द्वारा दृढ़ किये गये परिणाम से सम्यक् प्रकार अभ्यास करना सो उपायान्तर है । (जो परिणाम भाव-ज्ञान के अवलम्बन से दृढ़ीकृत हो ऐसे परिणाम से द्रव्य-श्रुत का अभ्यास करना सो मोह-क्षय करने के लिये उपायान्तर है) ॥८६॥
१सर्वज्ञोपज्ञ = सर्वज्ञ द्वारा स्वयं जाना हुआ (और कहा हुआ)
२सहृदय = भावुक; शास्त्र में जिस समय जिस भाव का प्रसंग होय उस भाव को हृदय में ग्रहण करने वाला; बुध; पंडित
३उद्भेद = स्फुरण; प्रगटता; फुवारा