ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 90 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
तम्हा जिणमग्गादो गुणेहिं आदं परं च दव्वेसु । (90)
अभिगच्छदु णिम्मोहं इच्छदि जदि अप्पणो अप्पा ॥97॥
अर्थ:
[तस्मात्] इसलिये (स्व-पर के विवेक से मोह का क्षय किया जा सकता है इसलिये) [यदि] यदि [आत्मा] आत्मा [आत्मनः] अपनी [निर्मोहं] निर्मोहता [इच्छति] चाहता हो तो [जिनमार्गात्] जिनमार्ग से [गुणै:] गुणों के द्वारा [द्रव्येषु] द्रव्यों में [आत्मानं परं च] स्व और पर को [अभिगच्छतु] जानो (अर्थात् जिनागम के द्वारा विशेष गुणों से ऐसा विवेक करो कि- अनन्त द्रव्यों में से यह स्व है और यह पर है) ॥९०॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ पूर्वसूत्रे यदुक्तं स्वपरभेदविज्ञानं तदागमतःसिद्धयतीति प्रतिपादयति --
तम्हा जिणमग्गादो यस्मादेवं भणितं पूर्वं स्वपरभेदविज्ञानाद् मोहक्षयोभवति, तस्मात्कारणाज्जिनमार्गाज्जिनागमात् गुणेहिं गुणैः आदं आत्मानं, न केवलमात्मानं परं च परद्रव्यं च । केषु मध्ये । दव्वेसु शुद्धात्मादिषड्द्रव्येषु अभिगच्छदु अभिगच्छतु जानातु । यदिकिम् । णिम्मोहं इच्छदि जदि निर्मोहभावमिच्छति यदि चेत् । स कः । अप्पा आत्मा । कस्य संबन्धित्वेन । अप्पणो आत्मन इति । तथाहि --
यदिदं मम चैतन्यं स्वपरप्रकाशकं तेनाहं कर्ता विशुद्धज्ञानदर्शन-स्वभावं स्वकीयमात्मानं जानामि, परं च पुद्गलादिपञ्चद्रव्यरूपं शेषजीवान्तरं च पररूपेण जानामि, ततः कारणादेकापवरक प्रबोधितानेकप्रदीपप्रकाशेष्विव संभूयावस्थितेष्वपि सर्वद्रव्येषु मम सहजशुद्ध-चिदानन्दैकस्वभावस्य केनापि सह मोहो नास्तीत्यभिप्रायः ॥९७॥
एवं स्वपरपरिज्ञानविषये मूढत्व-निरासार्थं गाथाद्वयेन चतुर्थज्ञानकण्डिका गता ।
इति पञ्चविंशतिगाथाभिर्ज्ञानकण्डिकाचतुष्टयाभिधानोद्वितीयोऽधिकारः समाप्तः ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[तम्हा जिणमग्गादो] - जिस कारण पहले (९६ वीं गाथा मे) स्व-पर भेद-विज्ञान से मोह-क्षय होता है - ऐसा कहा था उस कारण जिनमार्ग से - जिनागम/जिनवाणी से [गुणेहिं] - गुणों द्वारा [आदं] - आत्मा को - स्वयं को, मात्र आत्मा को ही नहीं [परं च] - अपितु परद्रव्य को भी । गुणों द्वारा आत्मा और पर को किनके बीच जानो? [दव्वेसु] - शुद्धात्मादि छह द्रव्यों में [अभिगच्छदु] - जानो । यदि क्या चाहते हो? [णिम्मोहं इच्छदि जदि] - यदि निर्मोह भाव को चाहते हो तो । वह कौन निर्मोह भाव को चाहता है? [अप्पा] - आत्मा निर्मोह भाव को चाहता है तो । किस सम्बन्धी उसे चाहता है? [अप्पणो] - आत्मा का - स्वयं का निर्मोह भाव चाहता है तो ।
वह इस प्रकार - जो यह मेरा स्व-पर को जानने वाला चैतन्य है, उसके द्वारा मैं कर्तारूप विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी अपने आत्मा को जानता हूँ तथा पुद्गलादि पाँच द्रव्य और शेष दूसरे जीव-रूप पर को पररूप से जानता हूँ, इस कारण एक अपवरक - अन्दर के कमरे में जलते हुए अनेक दीपकों के प्रकाश के समान एक साथ रहने पर भी सहज-शुद्ध चिदानन्द एक स्वभावी मेरा सभी द्रव्यों मे किसी के साथ भी मोह नहीं है - यह अभिप्राय है ।
इसप्रकार स्व और पर की जानकारी के विषय मे मूढ़ता-निराकरण के लिये दो गाथाओं द्वारा चतुर्थ ज्ञान-कण्डिका पूर्ण हुई ।
इसप्रकार पच्चीस गाथाओं द्वारा ज्ञान-कण्डिका चतुष्टय नामक दूसरा अधिकार पूर्ण हुआ ।