ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 91 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
सत्तासंबद्धेदे सविसेसे जो हि णेव सामण्णे । (91)
सद्दहदि ण सो समणो सत्तो धम्मो ण संभवदि ॥98॥
अर्थ:
[यः हि] जो (जीव) [श्रामण्ये] श्रमणावस्था में [एतान् सत्ता-संबद्धान् सविशेषतान्] इन 'सत्तासंयुक्त' सविशेष (सामान्य-विशेष) पदार्थों की [न एव श्रद्दधाति] श्रद्धा नहीं करता, [सः] वह [श्रमण: न] श्रमण नहीं है; [ततः धर्म: न संभवति] उससे धर्म का उद्भव नहीं होता (अर्थात् उस श्रमणाभास के धर्म नहीं होता) ॥९१॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ निर्दोषिपरमात्मप्रणीतपदार्थश्रद्धानमन्तरेण श्रमणो न भवति, तस्माच्छुद्धोपयोगलक्षणधर्मोऽपि न संभवतीति निश्चिनोति --
सत्तासंबद्धे महासत्तासंबन्धेन सहितान् एदे एतान् पूर्वोक्तशुद्धजीवादिपदार्थान् । पुनरपि किंविशिष्टान् । सविसेसे विशेषसत्तावान्तरसत्ता स्वकीय-स्वकीयस्वरूपसत्ता तया सहितान् जो हि णेव सामण्णे सद्दहदि यः कर्ता द्रव्यश्रामण्ये स्थितोऽपि न श्रद्धत्ते हि स्फुटं ण सो समणो निजशुद्धात्मरुचिरूपनिश्चयसम्यक्त्वपूर्वकपरमसामायिकसंयमलक्षणश्रामण्या-भावात्स श्रमणो न भवति । इत्थंभूतभावश्रामण्याभावात् तत्तो धम्मो ण संभवदि तस्मात्पूर्वोक्तद्रव्य-श्रमणात्सकाशान्निरुपरागशुद्धात्मानुभूतिलक्षणधर्मोऽपि न संभवतीति सूत्रार्थः ॥९८॥
अथ 'उव-संपयामि सम्मं' इत्यादि नमस्कारगाथायां यत्प्रतिज्ञातं, तदनन्तरं 'चारित्तं खलु धम्मो' इत्यादिसूत्रेण चारित्रस्य धर्मत्वं व्यवस्थापितम् । अथ 'परिणमदि जेण दव्वं' इत्यादिसूत्रेणात्मनो धर्मत्वं भणितमित्यादि । तत्सर्वं शुद्धोपयोगप्रसादात्प्रसाध्येदानीं निश्चयरत्नत्रयपरिणत आत्मैव धर्म इत्यवतिष्ठते ।अथवा द्वितीयपातनिका — सम्यक्त्वाभावे श्रमणो न भवति, तस्मात् श्रमणाद्धर्मोऽपि न भवति ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
(अब चार स्वतंत्र गाथायें प्रारम्भ होती हैं ।)
[सत्ता संबद्धे] - महासत्ता के सम्बन्ध से सहित [एदे] - इन पूर्वोक्त (९४, ९६ एवं १७ वीं गाथा में कहे हुये) शुद्ध जीवादि पदार्थों की । वे जीवादि पदार्थ और किस विशेषता वाले हैं? [सविसेसे] - विशेषसत्ता - अवान्तरसत्ता अर्थात् अपनी-अपनी स्वरूप सत्ता से सहित जीवादि पदार्थों की [जो हि णेव सामण्णे सद्दहदि] - जो कर्ता - इस वाक्य का जो कर्ता है वह, द्रव्य श्रामण्य (द्रव्य-मुनिपना) में स्थित होते हुये भी श्रद्धान नहीं करता है, तो वास्तव में [ण सो समणो] - निज शुद्धात्मा की रुचि-रूप निश्चय-सम्यग्दर्शन पूर्वक परमसामायिक-संयम लक्षण श्रामण्य का अभाव होने से वह श्रमण नहीं है । इसप्रकार की भाव-श्रमणता का अभाव होने से [तत्तो धम्मो ण संभवदि] - उस पहले कहे हुये द्रव्यश्रमण से रागादि मलिनता रहित शुद्धात्मानुभूति लक्षण धर्म भी संभव नहीं है - यह गाथा का अर्थ है ।