274. यथोक्तेनानेनाभिहितपरिणामेन सर्वात्मसाधारणेनोपयोगेन ये उपलक्षिता उपयोगिनस्ते द्विविधा: -
274. सब आत्माओं में साधारण उपयोगरूप जिस आत्मपरिणाम का पहले व्याख्यान किया है उससे उपलक्षित सब उपयोग वाले जीव दो प्रकार के हैं, इस बात का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -
संसारिणो मुक्ताश्च।।10।।
जीव दो प्रकार के हैं – संसारी और मुक्त।।10।।
275. संसरणं संसार: परिवर्तनमित्यर्थ:। स एषामस्ति ते संसारिण:। तत्परिवर्तनं पञ्चविधम् – द्रव्यपरिवर्तनं क्षेत्रपरिवर्तनं कालपरिवर्तनं भवपरिवर्तनं भावपरिवर्तनं चेति। तत्र द्रव्यपरिवर्तनं द्विविधम् – नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनं कर्मद्रव्यपरिवर्तनं चेति। तत्र नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनं नाम त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां च योग्या ये पुद्गला एकेन जीवेन एकस्मिन्समये गृहीता: स्निग्धरूक्षवर्णगन्धादिभिस्तीव्रमन्द-मध्यमभावेन च यथावस्थिता द्वितीयादिषु समयेषु निर्जीर्णा अगृहीताननन्तवारानतीत्य मिश्रकांश्चानन्त-वारानतीत्य मध्ये गृहीतांश्चानन्तवारानतीत्य त एव तेनैव प्रकारेण तस्यैव जीवस्य नोकर्मभावमापद्यन्ते यावत्तावत्समुदितं नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनम्। कर्मद्रव्यपरिवर्तनमुच्यते – एकस्मिन्समये एकेन जीवेनाष्टविध-कर्मभावेन ये गृहीता: पुद्गला: समयाधिकामावलिकामतीत्य द्वितीयादिषु समयेषु निर्जीर्णा:, पूर्वोक्तेनैव क्रमेण त एव तेनैव प्रकारेण तस्य जीवस्य कर्मभावमापद्यन्ते यावत्तावत्कर्मद्रव्यपरिवर्तनम्। उक्तं च –
‘’ सव्वे वि पुग्गला खलु कमसो भुत्तुज्झिया य जीवेण।
[1]असइं अणंतखुत्तो पुग्गलपरियट्टसंसारे[2]।।‘’
275. संसरण करने को संसार कहते हैं, जिसका अर्थ परिवर्तन है। यह जिन जीवों के पाया जाता है वे संसारी हैं। परिवर्तन के पाँच भेद हैं – द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन, भवपरिवर्तन और भावपरिवर्तन। द्रव्यपरिवर्तन के दो भेद हैं – नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन और कर्म द्रव्यपरिवर्तन। अब नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन का स्वरूप कहते हैं – किसी एक जीव ने तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों को एक समय में ग्रहण किया। अनन्तर वे पुद्गल स्निग्ध या रूक्ष स्पर्श तथा वर्ण और गन्ध आदि के द्वारा जिस तीव्र, मन्द और मध्यम भावरूप से ग्रहण किये थे उस रूप से अवस्थित रहकर द्वितीयादि समयों में निर्जीर्ण हो गये। तत्पश्चात् अगृहीत परमाणुओं को अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा, मिश्र परमाणुओं को अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा और बीच में गृहीत परमाणुओं को अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा। तत्पश्चात् जब उसी जीव के सर्वप्रथम ग्रहण किये गये वे ही नोकर्म परमाणु उसी प्रकार से नोकर्म भाव को प्राप्त होते हैं तब यह सब मिलकर एक नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन होता है। अब कर्मद्रव्यपरिवर्तन का कथन करते हैं – एक जीव ने आठ प्रकार के कर्मरूप से जिन पुद्गलों को ग्रहण किया, वे समयाधिक एक आवलीकाल के बाद द्वितीयादिक समयों में झर गये। पश्चात् जो क्रम नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन में बतलाया है उसी क्रम से वे ही पुद्गल उसी प्रकार से उस जीव के जब कर्मभाव को प्राप्त होते हैं तब यह सब एक कर्म द्रव्यपरिवर्तन कहलाता है। कहा भी है –
‘इस जीव ने सभी पुद्गलों को क्रम से भोगकर छोड़ दिया। और इस प्रकार यह जीव असकृत अनन्त बार पुद्गल परिवर्तनरूप संसार में घूमता है।’
276. क्षेत्रपरिवर्तनमुच्यते – सूक्ष्मनिगोजीवोऽपर्याप्तक: सर्वजघन्यप्रदेशशरीरो लोकस्याष्टमध्य-प्रदेशान्स्वशरीरमध्ये
[3] कृत्वोत्पन्न: क्षुद्रभवग्रहणं जीवित्वा मृत:। स एव पुनस्तेनैवावगाहेन द्विरुत्पन्नस्तथा त्रिस्तथा चतुरित्येवं यावद्
[4]घनांगुलस्यासंख्येयभागप्रमिताकाशप्रदेशास्तावत्कृत्वस्तत्रैव जनित्वा पुनरेकैक-प्रदेशाधिकभावेन सर्वो लोक आत्मनो जन्मक्षेत्रभावमुपनीतो भवति यावत्तावत्क्षेत्रपरिवर्तनम्। उक्तं च –
[5]‘‘सव्वम्हि लोयखेत्ते कमसो तं णत्थि जं ण उप्पण्णं।ओगाहणाए[6] बहुसो परिभमिदो खेत्तसंसारे।।’’
276. अब क्षेत्रपरिवर्तन का कथन करते हैं – जिसका शरीर आकाश के सबसे कम प्रदेशों पर स्थित है ऐसा एक सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव लोकके आठ मध्य प्रदेशों को अपने शरीर के मध्य में करके उत्पन्न हुआ और क्षुद्रभवग्रहण काल तक जीकर मर गया। पश्चात् वही जीव पुन: उसी अवगाहना से वहाँ दूसरी बार उत्पन्न हुआ, तीसरी बार उत्पन्न हुआ, चौथी बार उत्पन्न हुआ। इस प्रकार घनांगुल के असंख्यातवें भाग में आकाश के जितने प्रदेश प्राप्त हों उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ। पुन: उसने आकाश का एक-एक प्रदेश बढ़ाकर सब लोक को अपना जन्मक्षेत्र बनाया। इस प्रकार यह सब मिलकर एक क्षेत्रपरिवर्तन होता है। कहा भी है -‘सब लोक क्षेत्र में ऐसा एक प्रदेश नहीं है जहाँ यह अवगाहना के साथ क्रम से नहीं उत्पन्न हुआ। इस प्रकार इस जीव ने क्षेत्र संसार में अनेक बार परिभ्रमण किया।’
277. कालपरिवर्तनमुच्यते – उत्सर्पिण्या: प्रथमसमये जात: कश्चिज्जीव: स्वायुष: परिसमाप्तौ मृत:। स एव
[7]पुनर्द्वितीयाया उत्सर्पिण्या द्वितीयसमये जात: स्वायुष: क्षयान्मृत:। स एव पुनस्तृतीयाया उत्सर्पिण्यास्तृतीयसमये जात:। एवमनेन क्रमेणोत्सर्पिणी परिसमाप्ता। तथावसर्पिणी च। एवं जन्मनैरन्तर्यमुक्तम्।
[8]मरणस्यापि नैरन्तर्यं तथैव ग्राह्यम्। एतावत्कालपरिवर्तनम्। उक्तं च –
‘‘[9]उस्सप्पिणिअवसप्पिणिसमायावलियासु णिरवसेसासु।जादो मुदो य बहुसो भमणेण दु कालसंसारे।।’’
277. अब कालपरिवर्तन का कथन करते हैं – कोई जीव उत्सर्पिणी के प्रथम समय में उत्पन्न हुआ और आयु के समाप्त हो जाने पर मर गया। पुन: वही जीव दूसरी उत्सर्पिणी के दूसरे समय में उत्पन्न हुआ और अपनी आयु के समाप्त हो जाने पर मर गया। पुन: वही जीव तीसरी उत्सर्पिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार इसने क्रम से उत्सर्पिणी समाप्त की और इसी प्रकार अवसर्पिणी भी। यह जन्म का नैरन्तर्य कहा। तथा इसी प्रकार मरण का भी नैरन्तर्य लेना चाहिए। इस प्रकार यह सब मिलकर एक कालपरिवर्तन है। कहा भी है -‘कालसंसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के सब समयों में अनेक बार जन्मा और मरा।’
278. भवपरिवर्तनमुच्यते – नरकगतौ सर्वजघन्यमायुर्दशवर्षसहस्राणि। तेनायुषा तत्रोत्पन्न: पुन: परिभ्रम्य तेनैवायुषा जात:। एवं दशवर्षसहस्राणां यावन्त: समयास्तावत्कृत्वस्तत्रैव जातो मृत:। पुनरेकैकसमयाधिकभावेन त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि परिसमापितानि। तत: प्रच्युत्य तिर्यग्गतावन्तर्मुहूर्तायु: समुत्पन्न:। पूर्वोक्तेनैव क्रमेण त्रीणि पल्योपमानि तेन परिसमापितानि। एवं मनुष्यगतौ च
[10]। देवगतौ च नारकवत्। अयं तु विशेष: - एकत्रिंशत्सागरोपमाणि परिसमापितानि यावत्तावद् भवपरिवर्तनम्। उक्तं च –
"[11]णिरयादिजहण्णादिसु जाव दु उवरिल्लया दु गेवज्जा ।
मिच्छत्तसंसिदेण दु बहुसो वि भवट्ठिदी भमिदा ॥"
278. अब भवपरिवर्तनका कथन करते हैं – नरकगतिमें सबसे जघन्य आयु दस हजार वर्षकी है। एक जीव उस आयुसे वहाँ उत्पन्न हुआ, पुन: घूम-फिरकर उसी आयुसे वहीं उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दस हजार वर्षके जितने समय हैं उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ और मरा। पुन: आयुके एक-एक समय बढ़ाकर नरककी तेंतीस सागर आयु समाप्त की। तदनन्तर नरकसे निकलकर अन्तर्मुहूर्त आयुके साथ तिर्यंचगतिमें उत्पन्न हुआ। और पूर्वोक्त क्रमसे उसने तिर्यंचगतिकी तीन पल्योपम आयु समाप्त की। इसी प्रकार मनुष्यगतिमें अन्तर्मुहूर्तसे लेकर तीन पल्योपम आयु समाप्त की। तथा देवगतिमें नरकगतिके समान आयु समाप्त की। किन्तु देवगतिमें इतनी विशेषता है कि यहाँ इकतीस सागरोपम आयु समाप्त होने तक कथन करना चाहिए। इस प्रकार यह सब मिलकर एक भवपरिवर्तन है। कहा भी है –
’इस जीवने मिथ्यात्वके संसर्गसे उपरिम ग्रैवेयक तक नरक आदि गतियोंकी जघन्य आदि स्थितियोंमें उत्पन्न हो-होकर अनेक बार परिभ्रमण किया।’
279. भावपरिवर्तनमुच्यते – पञ्चेन्द्रिय: संज्ञी पर्याप्तको मिथ्यादृष्टि: कश्चिज्जीव: स सर्वजघन्यां स्वयोग्यां ज्ञानावरणप्रकृते: स्थितिमन्त:कोटीकोटीसंज्ञिकामापद्यते। तस्य कषायाध्यवसायस्थानान्य-संख्येयलोकप्रमितानि षट्स्थानपतितानि तत्स्थितियोग्यानि भवन्ति। तत्र सर्वजघन्यकषायाध्यवसाय-स्थाननिमित्तान्यनु
[12]भागाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकप्रमितानि भवन्ति। एवं सर्वजघन्यां स्थितिं सर्वजघन्यं च कषायाध्यवसायस्थानं सर्वजघन्यमेवानुभागबन्धस्थानमास्कन्दतस्तद्योग्यं सर्वजघन्यं योगस्थानं भवति। तेषामेव स्थितिकषायानुभागस्थानानां द्वितीयमसंख्येयभागवृद्धियुक्तं योगस्थानं भवति। एवं च तृतीयादिषु
[13] चतु:स्थानपतितानि श्रेण्यसंख्येयभागप्रमितानि योगस्थानानि भवन्ति । तथा तामेव स्थितिं तदेव कषायाध्यवसायस्थानं च प्रतिपद्यमानस्य द्वितीयमनुभवाध्यवसायस्थानं भवति। तस्य च योगस्थानानि पूर्वद्वेदितव्यानि। एवं तृतीयादिष्वपि अनुभवाध्यवसायस्थानेषु आ असंख्येयलोकपरिसमाप्ते:। एवं तामेव स्थितिमापद्यमानस्य द्वितीयं कषायाध्यवसायस्थानं भवति। तस्याप्यनुभवाध्यवसायस्थानानि योगस्थानानि च पूर्ववद्वेदितव्यानि। एवं तृतीयादिष्वपि कषायाध्यवायस्थानेषु आ असंख्येयलोकपरिसमाप्तेर्वृद्धिक्रमो वेदितव्य:। उक्ताया जघन्याया: स्थिते: समयाधिकाया: कषायादिस्थानानि पूर्ववत्
[14]। एवं समयाधिकक्रमेण आ उत्कृष्टस्थितेस्त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीपरिमिताया: कषायादिस्थानानि
[15] वेदितव्यानि। अनन्तभागवृद्धि: असंख्येयभागवृद्धि: संख्येयभागवृद्धि: संख्येयगुणवृद्धि: असंख्येयगुणवृद्धि अनन्तगुणवृद्धि: इमानि षट् वृद्धिस्थानानि। हानिरपि तथैव। अनन्तभागवृद्ध्यनन्तगुणवृद्धिरहितानि चत्वारि स्थानानि। एवं सर्वेषां कर्मणां मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां च परिवर्तनक्रमो वेदितव्य:। तदेतत्सर्वं समुदितं भावपरिवर्तनम्। उक्तं च –
[16]‘‘सव्वा पयडिट्ठिदीओ अणुभागपदेसबंधठाणाणि।
मिच्छत्तसंसिदेण य भमिदा पुण भावसंसारे।।’’
279. अब भावपिरवर्तनका कथन करते हैं – पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि कोई एक जीव ज्ञानावरण प्रकृतिकी सबसे जघन्य अपने योग्य अन्त:कोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिको प्राप्त होता है। उसके उस स्थितिके योग्य षट्स्थानपतित असंख्यात लोकप्रमाण कषायअध्यवसाय स्थान होते हैं। और सबसे जघन्य इन कषायअध्यवसायस्थानोंके निमित्तसे असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागअध्यवसायस्थान होते हैं। इस प्रकार सबसे जघन्य स्थिति, सबसे जघन्य कषायअध्यवसायस्थान और सबसे जघन्य अनुभागअध्यवसायस्थानको धारण करनेवाले इस जीवके तद्योग्य सबसे जघन्य योगस्थान होता है। तत्पश्चात् स्थ्िाति, कषाय अध्यवसायस्थान और अनुभागअध्यवसायस्थान वही रहते हैं, किन्तु योगस्थान दूसरा हो जाता है जो असंख्यात भागवृद्धिसंयुक्त होता है। इसी प्रकार तीसरे, चौथे आदि योगस्थानोंमें समझना चाहिए। ये सब योगस्थान चार स्थान पतित होते हैं और इनका प्रमाण श्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तदनन्तर उसी स्थिति और उसी कषायअध्यवसायस्थानको धारण करनेवाले जीवके दूसरा अनुभागअध्यवसायस्थान होता है। इसके योगस्थान पहलेके समान जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि यहाँ भी पूर्वोक्त तीनों बातें ध्रुव रहती हैं किन्तु योगस्थान जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागअध्यवसायस्थानोंके होने तक तीसरे आदि अनुभाग अध्यवसायस्थानोंमें जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि यहाँ स्थिति और कषाय अध्यवसायस्थान तो जघन्य ही रहते हैं किन्तु अनुभागअध्यवसायस्थान क्रमसे असंख्यात लोकप्रमाण हो जाते हैं और एक-एक अनुभागअध्यवसायस्थानके प्रति जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण योगस्थान होते हैं। तत्पश्चात् उसी स्थितिको प्राप्त होनेवाले जीवके दूसरा कषायअध्यवसायस्थान होता है। इसके भी अनुभागअध्यवसायस्थान और योगस्थान पहलेके समान जानना चाहिए। अर्थात् एक-एक कषायअध्यवसायस्थानके प्रति असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागअध्यवसायस्थान होते हैं और एक-एक अनुभागअध्यवसायस्थानके प्रति जगश्रेणी असंख्यातवें भागप्रमाण योगस्थान होते हैं। इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण कषायअध्यवसायस्थानोंके होने तक तीसरे आदि कषायअध्यसायस्थानोंमें वृद्धिका क्रम जानना चाहिए। जिस प्रकार सबसे जघन्य स्थितिके कषायादि स्थान कहे हैं उसी प्रकार एक समय अधिक जघन्य स्थितिके भी कषायादि स्थान जानना चाहिए और इसी प्रकार एक-एक समय अधिकके क्रमसे तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितितक प्रत्येक स्थितिविकल्पके भी कषायादि स्थान जानना चाहिए। अनन्त भागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनन्त गुणवृद्धि इस प्रकार ये वृद्धिके छह स्थान हैं तथा इसी प्रकार हानि भी छह प्रकारकी है। इनमें-से अनन्त भागवृद्धि और अनन्त गुणवृद्धि इन दो स्थानोंके कम कर देनेपर चार स्थान होते हैं। इसी प्रकार सब मूल प्रकृतियोंका और उनकी उत्तर प्रकृतियोंके परिवर्तनका क्रम जानना चाहिए। यह सब मिलकर एक भावपरिवर्तन होता है। कहा भी है -‘इस जीवने मिथ्यात्वके संसर्गसे सब प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्धके स्थानों को प्राप्त कर भावसंसारमें परिभ्रमण किया।’
280. उक्तापञ्चविधात्संसारन्निवृत्ता ये ते मुक्ता:। संसारिणां प्रागुपादानं तत्पूर्वकत्वान्मुक्त-व्यपदेशस्य।
280. जो उक्त पाँच प्रकाके संसारसे निवृत्त हैं वे मुक्त हैं। सूत्रमें ‘संसारि’ पदका पहले ग्रहण किया, क्योंकि ‘मुक्त’ यह संज्ञा संसारपूर्वक प्राप्त होती है।विशेषार्थ – जीवके मुख्य भेद दो हैं – संसारी और मुक्त। ये भेद जीवकी बद्ध और अबद्ध अवस्थाको ध्यानमें रखकर किय गये हैं। वस्तुत: ये जीवकी दो अवस्थाएँ हैं। पहले जीव बद्ध अवस्थामें रहता है, इसलिए उसे संसारी कहते हैं और बादमें उसके मुक्त होनेपर वही मुक्त कहलाता है। जीवका संसार निमित्त-सापेक्ष होता है, इसलिए इस अपेक्षासे संसारके पाँच भेदे किये गये हैं – द्रव्यसंसार, क्षेत्रसंसार, कालसंसार, भवसंसार और भावसंसार। इनका दूसरा नाम परिवर्तन भी हैं। द्रव्य पदसे कर्म और नोकर्म लिये गये हैं, क्षेत्र पद से लोकाकाशके प्रदेशों का ग्रहण किया है, काल पदसे उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी सम्बन्धी समयका ग्रहण किया है, भव पदसे जीवकी नर नारक आदि अवस्थाओंका ग्रहण किया है और भाव पदसे जीवके योग और कषायस्थान विवक्षित हैं। इन द्रव्यादिके निमित्तसे संसारमें जीवका परिभ्रमण किस प्रकार होता रहता है यही यहाँ बतलाया गया है। इन परिवर्तनोंके होनेमें उत्तरोत्तर अधिक-अधिक काल लगता है। मुख्यरूपसे जीवका संसार सम्यदर्शनके प्राप्त होनेके पूर्वतक माना गया है, इससे ये परिवर्तन जीवकी मिथ्यात्व अवस्थामें होते हैं यह सिद्ध होता है। सम्यग्दर्शनके होने पर जीवका ईषत् संसार शेष रहनेपर भी वह इन परिवर्तनोंसे मुक्त हो जाता है। पूर्ण मोक्ष मुक्त अवस्थामें होता है। इसीसे जीवके संसारी और मुक्त ये दो भेद किये गये हैं।
पूर्व सूत्र
अगला सूत्र
सर्वार्थसिद्धि अनुक्रमणिका
- ↑ अच्छइ अणं—दि. 1, दि. 2, आ., मु.।
- ↑ बा. अणु, गा. 25।
- ↑ शरीरमध्यप्रदेशान् कृत्वा मु.।
- ↑ यावदङ्गुलस्या—दि. 1, दि. 2, आ.।
- ↑ बा. आ., आयु., गा. 26।
- ↑ --हणेण बहुसो मु., ना.।
- ↑ एवं तृती—आ., दि. 1, दि. 2।
- ↑ मरणमपि तथैव ग्रा—ता.। मरणस्यापि तथैव ग्रा.—ना.।
- ↑ बा. अणु. गा. 27।
- ↑ च तिर्यंचवत्। मू., ता.।
- ↑ बा.अ.गा. 28
- ↑ --नुभवाध्य– दि.।
- ↑ --दिषु योगस्थानेषु चतु: -म., ता.।
- ↑ पूर्ववदेकसम—मु.।
- ↑ --स्थानानि(पूर्ववत्) वेदि-मु.।
- ↑ बा. अणु. गा. 29।