ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 11
From जैनकोष
281. य ऐते संसारिणस्ते द्विविधा: -
281. पहले जो संसारी जीव कह आये हैं वे दो प्रकारके हैं। आगेके सूत्र-द्वारा इसी बातको बतलाते हैं –
समनस्कामनस्का:।।11।।
मनवाले और मनरहित ऐसे संसारी जीव हैं।।11।।
282. मनो द्विविधम् – द्रव्यमनो भावमनश्चेति। तत्र पुद्गलविपाकिकर्मोदयापेक्षं द्रव्यमन:। वीर्यान्तरायनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमापेक्षा[1] आत्मनो विशुद्धिर्भामन:। तेन मनसा सह वर्तन्त इति समनस्का:। न विद्यते मनो येषां त इमे अमनस्का: एवं मनसो भावाभावाभ्यां संसारिणो द्विविधा विभज्यन्ते। समनस्काश्चामनस्काश्च समनस्कामनस्का इति। अभ्यर्हितत्वात्समनस्कशब्दस्य पूर्वनिपात:। कथमभ्यर्हितत्वम् ? गुणदोषविचारकत्वात्।
282. मन दो प्रकारका है – द्रव्यमन और भावमन। उनमें-से द्रव्यमन पुद्गलविपाकी अंगोपांग नामकर्मके उदयसे होता है तथा वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमकी अपेक्षा रखनेवाले आत्माकी विशुद्धिको भावमन कहते हैं। यह मन जिन जीवोंके पाया जाता है वे समनस्क हैं। और जिनके मन नहीं पाया जाता है वे अमनस्क हैं। इस प्रकार मनके सद्भाव और असद्भावकी अपेक्षा संसारी जीव दो भागोंमें बँट जाते हैं।। ‘समनस्कामनस्का:’ इसमें समनस्क और अमनस्क इस प्रकार द्वन्द्व समास है। समनस्क शब्द श्रेष्ठ है अत: उसे सूत्रमें पहले रखा। शंका – श्रेष्ठता किस कारणसे है ? समाधान – क्योंकि समनस्क जीव गुण और दोषोंके विचारक होते हैं, इसलिए समनस्क पद श्रेष्ठ है।
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- ↑ -पेक्षया आत्मनो मु., ता.।