ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 31
From जैनकोष
321. एवं गच्छतोऽभिनवमूर्त्यन्तरनिर्वृत्ति[1]प्रकारप्रतिपादनार्थमाह--
321. इस प्रकार अन्य गतिको गमन करनेवाले जीवके नूतन दूसरे पर्यायकी उत्पत्तिके भेदोंको दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
संमूर्च्छनगर्भोपपादा जन्म।।31।।
सम्मूर्च्छन, गर्भ और उपपाद ये (तीन) जन्म हैं।।31।।
322. त्रिषु लोकेषूर्ध्वमधस्तिर्यक् च देहस्य समन्ततो मूर्च्छनं संमूर्च्छनमवयवप्रकल्पनम्। स्त्रिया उदरे [2]शुक्रशोणितयोर्गरणं मिश्रणं गर्भ:। [3]मात्रुपभुक्ताहारगरणाद्वा गर्भ:। उपेत्य[4] पद्यतेऽस्मिन्निति उपपाद:। देवनारकोत्पत्तिस्थानविशेषसंज्ञा। ऐते त्रय: संसारिणां जीवानां जन्मप्रकारा: शुभाशुभपरिणामनिमित्त-कर्मभेदविपाककृता:।
322. तीनों लोकोंमें ऊपर, नीचे और तिरछे देहका चारों ओरसे मूर्च्छन अर्थात् ग्रहण होना संमूर्च्छन है। इसका अभिप्राय है चारों ओरसे पुद्गलोंका ग्रहण कर अवयवोंकी रचना होना। स्त्रीके उदरमें शुक्र और शोणितके परस्पर गरण अर्थात् मिश्रणको गर्भ कहते हैं। अथवा माताके द्वारा उपभुक्त आहारके गरण होनेको गर्भ कहते हैं। प्राप्त होकर जिसमें जीव हलन-चलन करता है उसे उपपाद कहते हैं। उपपाद यह देव और नारकियोंके उत्पत्तिस्थान विशेषकी संज्ञा है। संसारी जीवोंके ये तीनों जन्मके भेद हैं, जो शुभ और अशुभ परिणामोंके निमित्तसे अनेक प्रकारके कर्म बँधते हैं, उनके फल हैं।