ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 32
From जैनकोष
323. अथाधिकृतस्य संसारविषयोपभोगोपलब्ध्य[1]धिष्ठानप्रवणस्य जन्मनो योगिविकल्पा[2] वक्तव्या इत्यत आह –
323. यहाँ तक संसारी विषयोंके उपभोगकी प्राप्तिमें आधारभूत जन्मोंका अधिकार था। अब इनकी योनियोंके भेद कहने चाहिए, इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं –
सचित्तशीतसंवृता: सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्यानेय:।।32।।
सचित्त, शीत और संवृत तथा इनकी प्रतिपक्षभूत अचित्त, उष्ण और विवृत तथा मिश्र अर्थात् सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत ये उसकी अर्थात् जन्मकी योनियाँ हैं।।32।।
324. आत्मनश्चैतन्यविशेषपरिणामश्चित्तम्। सह चित्तेन वर्तत इति सचित्त:। शीत इति स्पर्शविशेष:; शुक्लादिवदुभयवचनत्वात्तद्युक्तं द्रव्यमप्याह[3]। सम्यग्वृत: संवृत:। संवृत इति दुरुपलक्ष्यप्रदेश उच्यते। सह इतरैर्वर्तन्त इति सेतरा:। सप्रतिपक्षा इत्यर्थ:। के पुनरितरे ? अचित्तोष्णविवृता:। उभयात्मको मिश्र:। सचित्ताचित्त: शीतोष्ण: संवृतविवृत इति। ‘च’शब्द: समुच्चयार्थ: मिश्राश्च योनयो भवन्तीति। इतरथा हि पूर्वोक्तानामेव विशेषणं स्यात्। ‘एकश:’ इति वीप्सार्थ:। तस्य ग्रहणं क्रममिश्रप्रतिपत्त्यर्थम्। यथैवं विज्ञायेत – सचित्तश्च अचित्तश्च, शीतश्च उष्णश्च, संवृतश्च विवृतश्चेति। मैवं विज्ञायि – सचित्तश्च शीतश्चेत्यादि। ‘तद्ग्रहणं जन्मप्रकारप्रतिनिर्देशार्थम्। तेषां संमूर्च्छनादीनां जन्मनां योनय इति। त एते नव योनयो वेदितव्या:। योनिजन्मनोरविशेष इति चेत् ? न; आधाराधेयभेदत्तद्भेद:। त एते चित्तादयो योनय आधारा:। आधेया जन्मप्रकारा:। यत: सचित्तादियोन्यधिष्ठाने आत्मा संमूर्च्छनादिना जन्मना शरीराहारेन्द्रियादियोग्यान्पुद्गलानुपादत्ते। देवनारका अचित्तयोनय:। तेषां हि योनिरुपपाददेशपुद्गल-प्रचयोऽचित्त:। गर्भजा मिश्रयोनय:। तेषां हि मातुरुदरे शुक्रशोणितमचित्तम्, तदात्मना चित्तवता मिश्रणान्मिश्रयोनि:[4]। संमूर्च्छनजास्त्रिविकल्पोनय:। केचित्सचित्तयोनय:। अन्ये अचित्तयोनय:। अपरे मिश्रयोनय:। सचित्तयोनय: साधारणशरीरा:। कुत: ? परस्पराश्रयत्वात्। इतरे अचित्तयोनयो मिश्रयोनयश्च। शीतोष्णयोनयो देवनारका:। तेषां हि उपपादस्थानानि कानिचिच्छीतानि कानिचिदुष्णानीति। उष्णयोनयस्तैजस्कायिका:। इतरे त्रिविकल्पयोनय:। केचिच्छीतयोनय:। केचिदुष्णयोनय:। अपरे मिश्रयोनय इति। देवनारकैकेन्द्रिया: संवृतयोनय:। विकलेन्द्रिया विवृतयोनय:। गर्भजा: मिश्रयोनय:। तद्भेदाश्चतुरशीति-शतसहस्रसंख्या आगमतो वेदितव्या:। उक्तं च -
‘’णिच्चिदरधादु सत्त य तरु दस वियलिंदिएसु छच्चेव।सुरणिरयतिरिय चउरो चोद्दस मणुए सदसहस्सा[5]।।‘’
324. आत्माके चैतन्यविशेषरूप परिणामको चित्त कहते हैं। जो चित्तके साथ रहता है वह सचित्त कहलाता है। शीत यह स्पर्शका एक भेद है। शुक्ल आदिके समान यह द्रव्य और गुण दोनोंका वाची है, अत: शीतगुणवाला द्रव्य भी शीत कहलाता है। जो भले प्रकार ढका हो वह संवृत कहलाता है। यहाँ संवृत ऐसे स्थानको कहते हैं जो देखनेमें न आवे। इतर का अर्थ अन्य है और इनके साथ रहनेवाले सेतर कहे जाते हैं। शंका – वे इतर कौन हैं ? समाधान – अचित्त, उष्ण और विवृत्त। जो उभयरूप होते हैं वे मिश्र कहलाते हैं। यथा – सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत। सूत्रमें ‘च’ शब्द समुच्चयवाची है। जिससे योनियाँ मिश्र भी होती हैं इसका समुच्चय हो जाता है। यदि ‘च’ पदका यह अर्थ न लिया जाय तो मिश्रपद पूर्वोक्त पदोंका ही विशेषण हो जाता। ‘एकश:’ यह पद वीप्सावाची है। सूत्रमें इस पदका ग्रहण क्रम और मिश्रका ज्ञान करानेके लिए किया है। जिससे यह ज्ञान हो कि सचित्त, अचित्त, शीत, उष्ण, संवृत, विवृत इस क्रमसे योनियाँ ली हैं। यह ज्ञान न हो कि सचित्त, शीत इत्यादि क्रमसे योनियाँ ली हैं। जन्मके भेदोंके दिखलानेके लिए सूत्रमें ‘तत्’ पदका ग्रहण किया है। उन संमूर्च्छन आदि जन्मोंकी ये योनियाँ हैं यह इसका भाव है। ये सब मिलाकर नौ योनियाँ जानना चाहिए। शंका – योनि और जन्ममें कोई भेद नहीं ? समाधान – नहीं; क्योंकि आधार और आधेयके भेदसे उनमें भेद हैं। ये सचित्त आदिक योनियाँ आधार हैं और जन्मके भेद आधेय हैं, क्योंकि सचित्त आदि योनिरूप आधारमें संमूर्च्छन आदि जन्मके द्वारा आत्मा शरीर, आहार और इन्द्रियोंके योग्य पुदृगलोंको ग्रहण करता है। देव और नारकियोंकी अचित्त योनि होती है, क्योंकि उनके उपपाददेशके पुद्गलप्रचयरूप योनि अचित्त है। गर्भजोंकी मिश्र योनि होती है, क्योंकि उनकी माताकि उदरमें शुक्र और शोणित अचित्त होते हैं जिनका सचित्त माताकी आत्मासे मिश्रण है इसलिए वह मिश्रयोनि है। संमूर्च्छनोंकी तीन प्रकारकी योनियाँ होती हैं। किन्हींकी सचित्त योनि होती है, अन्यकी अचित्तयोनि होती है और दूसरोंकी मिश्रयोनि होती है। साधारण शरीरवाले जीवोंकी सचित्त योनि होती है, क्योंकि ये एक-दूसरेके आश्रयसे रहते हैं। इनसे अतिरिक्त शेष संमूर्च्छन जीवोंके अचित्त और मिश्र दोनों प्रकारकी योनियाँ होती हैं। देव और नारकियोंकी शीत और उष्ण दोनों प्रकारकी योनियाँ होती हैं; क्योंकि उनके कुछ उपपादस्थान शीत हैं और कुछ उष्ण। तेजस्कायिक जीवोंकी उष्णयोनि होती है। इनसे अतिरिक्त जीवोंकी योनियाँ तीन प्रकारकी होती हैं। किन्हींकी शीत योनियाँ होती हैं, किन्हींकी उष्णयोनियाँ होती हैं और किन्हींकी मिश्रयोनियाँ होती हैं। देव, नारकी और एकेन्द्रियोंकी संवृत योनियाँ होती हैं। विकलेन्द्रियों की विवृत योनियाँ होती हैं। तथा गर्भजोंकी मिश्र योनियाँ होती हैं। इन सब योनियोंके चौरासी लाख भेद हैं यह बात आगमसे जाननी चाहिए। कहा भी है –
नित्यनिगोद, इतरनिगोद, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंकी सात-सात लाख योनियाँ हैं। वृक्षोंकी दस लाख योनियाँ हैं। विकलेन्द्रियोंकी मिलाकर छह लाख योनियाँ हैं। देव, नारकी और तिर्यंचोंकी चार-चार लाख योनियाँ हैं तथा मनुष्योंकी चौदह लाख योनियाँ हैं।