ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 4
From जैनकोष
260. य: क्षायिको भावो नवविध उद्दिष्टस्तस्य भेदस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह -
260. जो क्षायिकभाव नौ प्रकार का कहा है उसके भेदों के स्वरूप का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –
ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च।।4।।
क्षायिक भाव के नौ भेद हैं – क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र।।4।।
261. ‘च’शब्द: सम्यक्त्वचारित्रानुकर्षणार्थ:। ज्ञानावरणस्यात्यन्तक्षयात्केवलज्ञानं क्षायिकं तथा केवलदर्शनम्। दानान्तरायस्यात्यन्तक्षयादनन्तप्राणिगणानुग्रहकरं क्षायिकमभयदानम्। लाभान्तरायस्याशेषस्य निरासात् परित्यक्तकवलाहारक्रियाणां केवलिनां यत: शरीरबलाधानहेतवोऽन्य-मनुजासाधारणा: परमशुभा: सूक्ष्मा: अनन्ता: प्रतिसमयं पुद्गला: संबन्धमुपयान्ति स क्षायिको लाभ:। कृत्स्नस्य भोगान्तरायस्य[1] तिरोभावादाविर्भूतोऽतिशयवाननन्तो भोग: क्षायिक:। यत: कुसुमवृष्ट्यादयो विशेषा: प्रादुर्भवन्ति। निरवशेषस्योपभोगान्तरायस्य प्रलयात्प्रादुर्भूतोऽनन्त उपभोग: क्षायिक:। यत: सिंहासनचामरच्छत्रयादयो विभूतय:। वीर्यान्तरायस्य कर्मणोऽत्यन्तक्षयादाविर्भूतमनन्तवीर्यं क्षायिकम्। पूर्वोक्तानां सप्तानां प्रकृतीनामत्यन्तक्षयात्क्षायिकं सम्यक्त्वम्। चारित्रमपि तथा। यदि क्षायिकदानादि-भावकृतमभयदानादि, सिद्धेष्वपि तत्प्रसंङ्ग: ? नैष दोष:; शरीरनामतीर्थंकरनामकर्मोदयाद्यपेक्षत्वात्। तेषां तदभावे तदप्रसंग:। कथं तर्हि तेषां सिद्धेषु वृत्ति: ? [2]परमानन्दाव्याबाधरूपेणैव तेषां तत्र वृत्ति:। केवलज्ञानरूपेणानन्तवीर्यवृत्तिवत्।
261. सूत्र में ‘च’ शब्द सम्यक्त्व और चारित्र के ग्रहण करने के लिए आया है ज्ञानावरण कर्म के अत्यन्त क्षय से क्षायिक केवलज्ञान होता है। इसी प्रकार केवलदर्शन भी होता है। दानान्तराय कर्म के अत्यन्त क्षय से अनन्त प्राणियों के समुदाय का उपकार करने वाला क्षायिक अभयदान होता है। समस्त लाभान्तराय कर्म के क्षय के कवलाहार क्रिया से रहित केवलियों के क्षायिक लाभ होता है, जिससे उनके शरीर को बल प्रदान करने में कारणभूत, दूसरे मनुष्यों को असाधारण अर्थात् कभी न प्राप्त होने वाले, परम शुभ और सूक्ष्म ऐसे अनन्त परमाणु प्रति समय सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं। समस्त भोगान्तराय कर्मके क्षयसे अतिशयवाले क्षायिक अनन्त भोगका प्रादुर्भाव होता है। जिससे कुसुमवृष्टि आदि अतिशय विशेष होते हैं। समस्त उपभोगान्तराय के नष्ट हो जाने से अनन्त क्षायिक उपभोग होता है। जिससे सिंहासन, चामर और तीन छत्र आदि विभूतियाँ होती हैं। वीर्यान्तराय कर्म के अत्यन्त क्षय से क्षायिक अनन्तवीर्य प्रकट होता है पूर्वोक्त सात प्रकृतियों के अत्यन्त विनाश से क्षायिक सम्यक्त्व होता है। इसी प्रकार क्षायिक चारित्र का स्वरूप समझना चाहिए। शंका – यदि क्षायिक दान आदि भावों के निमित्त से अभयदान आदि कार्य होते हैं तो सिद्धों में भी उनका प्रसंग प्राप्त होता है ? समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इन अभयदान आदि के होने में शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म के उदयकी अपेक्षा रहती है। परन्तु सिद्धों के शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म नहीं होते, अत: उनके अभयदान आदि प्राप्त नहीं होते। शंका – तो सिद्धों के क्षायिक दान आदि भावों का सद्भाव कैसे माना जाय ? समाधान – जिस प्रकार सिद्धों के केवलज्ञान रूप से अनन्तवीर्य का सद्भाव माना गया है उसी प्रकार परमानन्द और अव्याबाध रूप से ही उनका सिद्धों के सद्भाव है।
विशेषार्थ – घातिकर्मों के चार भेद हैं – ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय। इनमें-से ज्ञानावरण के अभाव से क्षायिक ज्ञान, दर्शनावरणके अभाव से क्षायिक दर्शन, मोहनीयके अभाव से क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र तथा अन्तराय के अभाव से क्षायिकदानादि पाँच लब्धियाँ होती हैं। इसी से क्षायिक भावके नौ भेद किये हैं। यद्यपि अघाति कर्मों के अभाव से जीव के क्षायिक अगुरुलघु आदि गुण प्रकट होते हैं पर वे अनुजीवी न होने से उनका यहाँ ग्रहण नहीं किया है। प्रश्न यह है कि टीका में जो अभयदान आदि को शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्मकी अपेक्षा रखनेवाले क्षायिक दान आदिके कार्य बतलाये हैं सो ऐसा बतलाना कहाँ तक उचित है ? बात यह है कि ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है कि तीर्थंकरके गर्भ में आने पर छह महीना पहले से भक्तिवश देव आकर, जिस नगरी में तीर्थंकर जन्म लेते हैं वहाँ रत्न वर्षा करते हैं। छप्पन कुमारिकाएँ आकर माता की सेवा करती हैं, गर्भशोधन करती हैं, रक्षा करती हैं। तीर्थंकर के गर्भ में आने पर देव-देवियाँ उत्सव मनाते हैं। जन्म, तप, केवल और निर्वाणके समय भी ऐसा ही करते हैं। केवलज्ञान होनेके बाद समवसरण की रचना करते हैं, कुसुमवृष्टि करते हैं आदि। इसलिए मुख्यत: ये अभयदानादि देवादिकों की भक्ति और धर्मानुराग के कार्य हैं, शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म की अपेक्षा रखनेवाले क्षायिक दान आदि के नहीं। फिर भी इन अभयदानादि को उपचारसे इनका कार्य कहा है। ऐसा नहीं माननेपर ये तीन दोष आते हैं – 1. निर्वाण कल्याणक के समय शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म नहीं रहता, इसलिए वह नहीं बन सकेगा। 2. गर्भ में आने के पहले जो रत्नवर्षा आदि कार्य होते हैं उन्हें अकारण मानना पड़ेगा। 3. गर्भ, जन्म और तप कल्याणक के समय न तो क्षायिक दान आदि ही पाये जाते हैं और न तीर्थंकर प्रकृति का उदय ही रहता है, इसलिए इन कारणों के अभाव से इन्हें भी अकारण मानना पड़ेगा। इन सब दोषों से बचने का एक ही उपय है कि पाँच कल्याणकों को और समवसरण आदि बाह्य विभूति को देवादिक की भक्ति और धर्मानुराग का कार्य मान लिया जाय। जिस प्रकार जिन-प्रतिमा का अभिषेक आदि महोत्सव भी इसी के कार्य हैं इसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए। इस पर यह प्रश्न होता है कि उक्त कार्य भले ही देवादिक की भक्ति और धर्मानुराग वश होते हों पर जन्मकल्याणक के समय जो घण्टानाद आदि कार्य विशेष होते हैं उनका कारण तो धर्मानुराग और भक्ति नहीं है। यदि उनका कारण पुण्यातिशय माना जाता है तो शेष कार्यों का कारण पुण्यातिशय मानने में क्या आपत्ति है ? समाधान यह है कि जिस प्रकार एक अवसर्पिणी या उत्सर्पिणी में चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण और नौ बलभद्र आदि के होनेका नियम है – यह कर्म विशेष का कार्य नहीं। उस-उस काल के साथ ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है कि इस काल में इतने तीर्थंकर, इतने चक्रवर्ती आदि ही होंगे न्यूनाधिक नहीं, इसी प्रकार तीर्थंकर के जन्मकाल के साथ ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक सम्बध है कि इस समय अमुक स्थान के अमुक प्रकार के बाजे बजेंगे, इसलिए इसे कर्म विशेष का कार्य मानना उचित नहीं। कर्म की अपनी मर्यादाएँ हैं। उन तक ही वह सीमित है। फिर भी मूल में जिस स्थिति के रहते हुए ये कार्य होते हैं उस स्थिति को ध्यान में रखकर उपचार से उस स्थिति को इनका कारण कहा है। शेष कथन सुगम है।