ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 5
From जैनकोष
262. य उक्त: क्षायोपशमिको भावोऽष्टादशविकल्पस्तद्भेदनिरूपणार्थमाह -
262. जो अठारह प्रकार का क्षायोपशमिक भाव कहा है उसके भेदों का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –
ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदा: सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च।।5।।
क्षायोपशमिक भाव के अठारह भेद हैं – चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, पाँच दानादि लब्धियाँ, सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम।।5।।
263. चत्वारश्च त्रयश्च त्रयश्च पञ्च च चतुस्त्रित्रिपञ्च[1]। ते भेदा: यासां ताश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदा:। यथाक्रममित्यनुवर्तते। तेनाभिसंबन्धाच्चतुरादिभिर्ज्ञानादीन्यभिसंबध्यन्ते। चत्वारि ज्ञानानि, त्रीण्यज्ञानानि, त्रीणि दर्शनानि, पञ्च लब्धय इति। सर्वघातिस्पर्द्धकानामुदयक्षयात्तेषामेव सदुपशमाद्देशघातिस्पर्द्धकानामुदये क्षायोपशमिको भावो भवति। तत्र ज्ञानादीनां वृत्ति: स्वावरणान्तरायक्षयोपशमाद् व्याख्यातव्या। ‘सम्यक्त्व’ग्रहणेन वेदकसम्यक्त्वं गृह्यते। अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयस्य मिथ्यात्वसम्यङ्मिथ्यात्व-योश्चोदयक्षयात्सदुपशमाच्च सम्यक्त्वस्य देशघातिस्पर्द्धकस्योदये तत्त्वार्थश्रद्धानं क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वम्। अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानद्वादशकषायोदयक्षयात्सदुपशमाच्च संज्वलनकषायचतुष्टयान्यतम-देशघातिस्पर्द्धकोदये नोकषायनवकस्य यथासंभवोदये च निवृत्तिपरिणाम आत्मन: क्षायोपशमिकं चारित्रम्। अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानकषायाष्टकोदयक्षयात्सदुपशमाच्च प्रत्याख्यानकषायोदये संज्वलनकषायस्य देशघातिस्पर्द्धकोदये नोकषायनवकस्य यथासंभवोदये च विरताविरतपरिणाम: क्षायोपशमिक: संयमासंयम इत्याख्यायते।
263. जिनके चार, तीन, तीन और पाँच भेद हैं वे चार, तीन, तीन और पाँच भेदवाले कहलाते हैं। इस सूत्र में ‘यथाक्रमम्’ पद की अनुवृत्ति होती है, जिससे चार आदि पदोंके साथ ज्ञान आदि पदोंका क्रमसे सम्बन्ध होता है। यथा – चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन और पाँच लब्धियाँ। वर्तमान कालमें सर्वघाती स्पर्द्धकोंका उदयाभावी क्षय होने से और आगामी काल की अपेक्षा उन्हीं का सदवस्था रूप उपशम होनेसे देशघाती स्पर्द्धकों का उदय रहते हुए क्षायोपशमिक भाव होता है। इन पूर्वोक्त भावों में-से ज्ञान आदि भाव अपने-अपने आवरण और अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से होते हैं ऐसा व्याख्यान यहाँ कर लेना चाहिए। सूत्र में आये हुए सम्यक्त्व पद से वेदक सम्यक्त्व लेना चाहिए। तात्पर्य यह है चार अनन्तानुबन्धी कषाय, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशमसे देशघाती स्पर्धकवाली सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में जो तत्त्वार्थश्रद्धान होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण इन बारह कषायों के उदयाभावी क्षय होने से और इन्हीं के सदवस्थारूप उपशम होने से तथा चार संज्वलनों में-से किसी एक देशघाती प्रकृति के उदय होने पर और नौ नोकषायों का यथासम्भव उदय होने पर जो संसार से पूरी निवृत्तिरूप परिणाम होता है वह क्षायोपशमिक चारित्र है। अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण इन आठ कषायोंके उदयाभावी क्षय होने से और सदवस्थारूप उपशम होने से तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय के और संज्वलन कषाय के देशघाती स्पर्द्धकों के उदय होने पर तथा नौ नोकषायों के यथासम्भव उदय होने पर जो विरताविरतरूप परिणाम होता है वह संयमासंयम कहलाता है।
विशेषार्थ – वर्तमान समयमें सर्वघाति स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय, आगामी काल की अपेक्षा उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम और देशघाति स्पर्द्धकों का उदय - यह क्षयोपशम का लक्षण है। यह तो सुनिश्चित है कि अधिकतर देशघाति कर्म ऐसे होते हैं जिनमें देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकार के स्पर्धक पाये जाते हैं। केवल नौ नोकषाय और सम्यक् प्रकृति ये दस प्रकृतियाँ इसकी अपवाद हैं। इनमें मात्र देशघाति स्पर्धक ही पाये जाते हैं, अत: नौ नोकषायों के सिवा शेष सब देशघाति कर्मों का क्षयोपशम सम्भव है, क्योंकि पूर्वोक्त लक्षण के अनुसार क्षयोपशम में दोनों प्रकार की शक्ति वाले कर्म लगते हैं। सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व से मिलकर क्षायोपशमिक भाव को जन्म देने में निमित्त होती है, इसलिए क्षायोपशमिक भाव के कुल अठारह भेद ही घटित होते हैं। उदाहरणार्थ – ज्ञानावरण की देशघाति प्रकृतियाँ चार हैं, अत: इनके क्षयोपशम से चार ज्ञान प्रकट होते हैं, पर मिथ्यादृष्टि के तीन अज्ञान और सम्यग्दृष्टि के चार ज्ञान इस प्रकार क्षायोपशमिक ज्ञान के कुल भेद सात होते हैं। इसी से अठारह क्षायोपशमिक भावों में इन सात ज्ञानों की परिगणना की जाती है। प्रकृत में दर्शन तीन और लब्धि पाँच क्षायोपशमिक भाव हैं यह स्पष्ट ही है। शेष रहे तीन भाव सो ये वेदक सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम लिये गये हैं। इन सब भावों में देशघाति स्पर्धकों का उदय होता है, इसलिए इन्हें वेदक भाव भी कहते हैं। जितने भी क्षायोपशमिक भाव होते हैं वे देशघाति स्पर्धकों के उदय से वेदक भी कहलाते हैं यह उक्त कथन का तात्पर्य है। इसमें सर्वघाति स्पर्धकों या सर्वघाति प्रकृतियों का वर्तमान समय में अनुदय रहता है, इसलिए इनका उदय काल के एक समय पहले उदयरूप स्पर्धकों या प्रकृति में स्तिबुक संक्रमण हो जाता है। प्रकृत में इसे ही उदयाभावी क्षय कहते हैं। यहाँ स्वरूप से उदय न होना ही क्षय रूपसे विवक्षित है। और आगामी काल में उदय में आने योग्य इन्हीं सर्वघाति स्पर्धकों व प्रकृतियों का सदवस्थारूप उपशम रहता है। इसका आशय यह है कि वे सत्ता में रहते हैं। उदयावलि से ऊपर के उन निषेकों की उदीरणा नहीं होती। मात्र उदयावलि में स्तिबुक संक्रमण के द्वारा इनका उदय काल से एक समय पहले सजातीय देशघाति प्रकृति या स्पर्धकरूप से संक्रमण होता रहता है। सर्वघाति अंश का उदय और उदीरणा न होने से जीव का निजभाव प्रकाश में आता है और देशघाति अंश का उदय रहने उसमें सदोषता आती है यह इस भाव का तात्पर्य है।
पूर्व सूत्र
अगला सूत्र
सर्वार्थसिद्धि अनुक्रमणिका
- ↑ पञ्च भेदा यासां—मु.।