ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 44
From जैनकोष
346. पुनरपि तेषां विशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह –
346. फिर भी उन शरीरोंका विशेष ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
निरुपभोगमन्त्यम्।।44।।
अन्तिम शरीर उपभोगरहित है।।44।।
347. अन्ते भवमन्त्यम्। किं तत् ? कार्मणम्। इन्द्रियप्रणालिकया शब्दादीनामुपलब्धिरुपभोग:। तदभावान्निरुपभोगम्। विग्रहगतौ सत्यामपि इन्द्रियलब्धौ द्रव्येन्द्रियनिर्वृत्त्यभावाच्छब्दाद्युपभोगाभाव इति। ननु तैजसमपि निरुपभोगम् तत्र किमुच्यते निरुपभोगमन्त्यमिति ? तैजसं शरीरं योगनिमित्तमपि न भवति, ततोऽस्योपभोगविचारेऽनधिकार:।[1]
347. जो अन्तमें होता है वह अन्त्य कहलाता है। शंका – वह अन्त का शरीर कौन है ? समाधान – कार्मण। इन्द्रियरूपी नालियों के द्वारा शब्दादि के ग्रहण करने को उपभोग कहते हैं। यह बात अन्त के शरीर में नहीं पायी जाती; अत: वह निरुपभोग है। विग्रहगति में लब्धिरूप भावेन्द्रिय के रहते हुए भी वहाँ द्रव्येन्द्रिय की रचना न होनेसे शब्दादिक का उपभोग नहीं होता। शंका – तैजस शरीर भी निरुपभोग है, इसलिए वहाँ यह क्यों कहते हो कि अन्त का शरीर निरुपभोग है ? समाधान – तैजस शरीर योग में निमित्त भी नहीं होता, इसलिए इसका उपभोग के विचार में अधिकार नहीं है।विशेषार्थ – औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीनों शरीरों में इन्द्रियों की रचना होकर उन द्वारा अपने-अपने विषयों का ग्रहण होता है, इसलिए ये तीनों शरीर सोपभोग माने गये हैं। यद्यपि कार्मण काययोग केवली जिनके प्रतर और लोकपूरण समुद्घात के समय तथा विग्रहगति में होता है। पर इनमें-से प्रतर और लोकपूरण समुद्घात के समय केवलज्ञान होने से वहाँ उपभोग का प्रश्न ही नहीं उठता। मात्र विग्रहगति में कार्मण काययोग के रहते हुए उपभोग होता है या नहीं यह प्रश्न होता है और इसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए ‘निरुपभोगमन्त्यम्’ यह सूत्र रचा गया है। अन्त का शरीर उपभोगरहित क्यों है इस बात का खुलासा करते हुए बतलाया है कि विग्रहगति में भावेन्द्रियाँ तो होती हैं पर द्रव्येन्द्रियाँ नहीं होतीं, इसलिए यहाँ शब्दादि विषयों का ग्रहण नहीं होता। यही कारण है कि अन्त के शरीर को निरुपभोग कहा है। रहा तैजस शरीर सो अन्य चार शरीरों के समान इसका स्वतन्त्र अधिकार नहीं है। अनि:सृत तैजस शरीर सब संसारी जीवों के सदा होता है और नि:सृत तैजस शरीर कादाचित्क होता है। इस प्रकार तैजस शरीर पाया तो जाता है सब संसारी जीवों के, पर आत्मप्रदेश परिस्पन्द में यह शरीर कारण नहीं है, इसलिए इन्द्रियों-द्वारा विषयों के ग्रहण करने में इस शरीर को उपयोगी नहीं माना गया है। यही कारण है कि तैजस शरीर निरुपभोग है कि सोपभोग यह प्रश्न ही नहीं उठता ।
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- ↑ -नधिकार:। तत्रोक्त-ता., ना.।