ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 50
From जैनकोष
358. एवं विभक्तानि शरीराणि बिभ्रतां संसारिणां प्रतिगति किं त्रिलिङ्गसंनिधानं उत लिङ्गनियम: कश्चिदस्तीत्यत आह -
358. इस प्रकार इन शरीरों को धारण करने वाले संसारी जीवों के प्रत्येक गति में क्या तीनों लिंग होते हैं या लिंग का कोई स्वतन्त्र नियम है ? अब इस बात का ज्ञान करानेके लिए आगे का सूत्र कहते हैं –
नारकसंमूर्च्छिनो नपुंसकानि।।50।।
नारक और संमूर्च्छिन नपुंसक होते हैं।।50।।
359. नरकाणि वक्ष्यन्ते। नरकेषु भवा नारका:। संमूर्च्छनं संमूर्च्छ: स येषामस्ति[1] ते संमूर्च्छिन:। नारकाश्च संमूर्च्छिनश्च नारकसंमूर्च्छिन:। चारित्रमोहविकल्पनोकषायभेदस्य नपुंसकवेदस्याशुभनाम्नश्चो-दयान्न स्त्रियो न पुमांस इति नुपंसकानि भवन्ति। नारकसंमूर्च्छिनो नपुंसकान्येवेति नियम:। तत्र हि स्त्रीपुंसविषयमनोज्ञशब्दगन्धरूपरसस्पर्शसंबन्धनिमित्ता स्वल्पापिसुखमात्रा नास्ति।
359. नरकों का कथन आगे करेंगे। जो नरकों में उत्पन्न होते हैं वे नारकी कहलाते हैं। जो संमूर्च्छन जन्म से पैदा होते हैं वे संमूर्च्छिन कहलाते हैं। सूत्र में नारक और संमूर्च्छिन इन दोनों पदों का द्वन्द्वसमास है। चारित्रमोह के दो भेद हैं – कषाय और नोकषाय। इनमें-से नोकषाय के भेद नपुंसक वेद के उदय से और अशुभ नामकर्म के उदय से उक्त जीव स्त्री और पुरुष न होकर नपुंसक होते हैं। यहाँ ऐसा नियम जानना कि नारक और संमूर्च्छिन नपुंसक ही होते हैं। इन जीवों के मनोज्ञ शब्द, गन्ध, रूप, रस और स्पर्श के सम्बन्ध से उत्पन्न हुआ स्त्री-पुरष विषयक थोड़ा भी सुख नहीं पाया जाता है।
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