ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 49
From जैनकोष
356. वैक्रियिकानन्तरं युदपदिष्टं तस्य स्वरूपनिर्धारणार्थं स्वामिनिर्देशार्थं चाह -
356. वैक्रियिक शरीर के पश्चात् जिस शरीर का उपदेश दिया है उसके स्वरूप का निश्चय करने के लिए और उसके स्वामी का निर्देश करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –
शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव।।49।।
आहारक शरीर शुभ, विशुद्ध और व्याघात रहित है और वह प्रमत्तसंयतके ही होता है।।49।।
357. शुभकारणत्वाच्छुभव्यपदेश:। शुभकर्मण आहारककाययोगस्य कारणत्वाच्छुभमित्युच्यते अन्नस्य प्राणव्यपदेशवत्। विशुद्धकार्यत्वाद्विशुद्धव्यपदेश:। विशुद्धस्य [1]पुण्यकर्मण: अशबलस्य निवद्यस्य कार्यत्वाद्विशुद्धमित्युच्यते तन्तूनां कार्पासव्यपदेशवत्। उभयतो व्याघाताभावादव्याघाति। न ह्याहारकशरीरेणान्यस्य व्याघात:। नाप्यन्येनाहारकस्येति। तस्य प्रयोजनसमुच्यार्थ: ‘च’शब्द: क्रियते । तद्यथा – कदाचिल्लब्धिविशेषसद्भावज्ञापनार्थं कदाचित्सूक्ष्मपदार्थनिर्धारणार्थं संयमपरिपालनार्थं च। आहारकमिति प्रागुक्तस्य प्रत्याम्नाय:। यदाहारकशरीररं निर्वर्तयितुमारभते तदा प्रमत्तो भवतीति ‘प्रमत्तसंयतस्य’ इत्युच्यते। इष्टतोऽवधारणार्थं ‘एव’- कारोपादानम्। यथैवं विज्ञायेत प्रमत्तसंयतस्यैवाहारकं नान्यस्येति। मैवं विज्ञायि प्रमत्तसंयतस्याहारकमेवेति। मा भूदौदारिकादिनिवृत्तिरिति।
357. शुभकर्म का कारण होने से इसे शुभ कहा है। यह शरीर आहारक काययोगरूप शुभकर्म का कारण है, इसलिए आहारक शरीर शुभ कहलाता है। यहाँ कारण में कार्य का उपचार है। जैसे अन्न में प्राण का उपचार करके अन्न को प्राण कहते हैं। विशुद्धकर्म का कार्य होने से आहारक शरीर को विशुद्ध कहा है। तात्पर्य यह है कि जो चित्र-विचित्र न होकर निर्दोष है ऐसे विशुद्ध अर्थात् पुण्यकर्म का कार्य होने से आहारक शरीर को विशुद्ध कहते हैं। यहाँ कार्य में कारण का उपचार है। जैसे तन्तुओं में कपास का उपचार करके तन्तुओं को कपास कहते हैं। दोनों ओर से व्याघात नहीं होता, इसलिए यह अव्याघाती है। तात्पर्य यह है कि आहारक शरीर से अन्य पदार्थ का व्याघाते नहीं होता और अन्य पदार्थ से आहारक शरीरका व्याघात नहीं होता। आहारक शरीर के प्रयोजन का समुच्चय करेन के लिए सूत्र में ‘च’ शब्द दिया है। यथा – आहारक शरीर कदाचित् लब्धि-विशेष के सद्भाव को जताने के लिए सूत्रमें कदाचित् सूक्ष्म पदार्थका निश्चय करनेके लिए और संयमकी रक्षा करने के लिए उत्पन्न होता हे। सूत्र में ‘आहारक’ पद आया है उससे पूर्व में कहे गये आहारक शरीर को दुहराया है। जिस समय जीव आहारक शरीर की रचना का आरम्भ करता है उस समय वह प्रमत्त हो जाता है, इसलिए सूत्र में प्रमत्तसंयत के ही आहारक शरीर होता है यह कहा है। इष्ट अर्थ के निश्चय करने के लिए सूत्र में ‘एवकार’ पद को ग्रहण किया है। जिससे यह जाना जाय कि आहारक शरीर प्रमत्तसंयत के ही होता है अन्य के नहीं किन्तु यह न जाना जाय कि प्रमत्तसंयत के आहारक ही होता है। तात्पर्य यह है कि प्रमत्तसंयत के औदारिक आदि शरीरों का निराकरण न हो, इसलिए प्रमत्तसंयत पद के साथ ही एवकार पद लगाया है।
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अगला सूत्र
सर्वार्थसिद्धि अनुक्रमणिका
- ↑ पुण्यस्य कर्मण: मु.।