विवेक
From जैनकोष
- विवेक
स.सि./९/२२/४४०/७ संसक्तान्नपानोपकरणादिविभजनं विवेकः। संसक्त हुए अर्थात् परस्पर में मिले-जुले अन्न पान आदि का अथवा उपकरणादिक का विभाग करना विवेक प्रायश्चित्त है। (रा.वा./९/२२/५/६२१/२६) (त.सा./७/२५) (अन.ध./७/४९)।
ध.१३/५, ४, २६/६०/११ गण-गच्छ-दव्व-खेत्तादीहितो ओसारणं विवेगो णाम पायच्छित्तं। = गण, गच्छ, द्रव्य और क्षेत्र आदि से अलग करना विवेक नाम का प्रायश्चित्त है।
भ.आ./वि./६/३२/२१ येन यत्र वा अशुभोपयोगोऽभूत्तन्निराक्रिया, ततो परासनं विवेकः।
भ.आ./वि./१०/४३/११ एवमतिचारनिमित्तद्रव्यक्षेत्रादिकान्मनसा अपगतिस्तत्र अनाहतिर्विवेकः। = जिस जिस पदार्थ के अवलम्बन से अशुभ परिणाम होते हैं, उनको त्यागना अथवा उनसे स्वयं दूर होना यह विवेक तप है। अतिचार को कारणीभूत ऐसे द्रव्य क्षेत्र और कालादिक से मन से पृथक् रहना अर्थात् दोषोत्पादक द्रव्यादिकों का मन से अनादर करना, यह विवेक है।
चा.सा./१४२/१ संसवतेषु द्रव्यक्षेत्रान्नपानोपकरणादिषु दोषान्निवर्त्तयितुमलभमानस्य तद्द्रव्यादि विभजनं विवेकः। अथवा शक्तयनगूहनेन प्रयत्नेन परिहरतः कुतश्चित्कारणत् प्रासुकग्रहणग्राहणयोः प्रासुकस्यापि प्रत्याख्यातस्य विस्मरणात्प्रतिग्रहे च स्मृत्वा पुनस्तदुत्सर्जनं विवेकः। =- किसी मुनि का हृदय किसी द्रव्य, क्षेत्र, अन्न, पान अथवा उपकरण में आसक्त हो और किसी दोष को दूर करने के लिए गुरु उन मुनि को वह पदार्थ प्राप्त न होने दे, उस पदार्थ को उन मुनि से अलग कर ले तो, वह विवेक नाम का प्रायश्चित्त कहलाता है।
- अथवा अपनी शक्ति को न छिपाकर प्रयत्नपूर्वक जीवों की बाधा दूर करते हुए भी किसी कारण से अप्रासुक पदार्थ को ग्रहण कराले अथवा जिसका त्याग कर चुके हैं, ऐसे प्रासुक पदार्थों को भी भूलकर ग्रहण कर ले और फिर स्मरण हो आने पर सबका त्याग कर दे तो वह भी विवेक प्रायश्चित्त कहलाता है। (अन.ध./७/५०)।
- विवेक के भेद व लक्षण
भ.आ./मू./१६८-१६९/३८१ इंदियकसायउवधीण भत्तपाणस्स चावि देहस्स। एस विवेगो भणिदो पञ्चविधो दव्वभावगदो।१६८। अहवा सरीरसेज्जा संथारुवहीण भत्तपाणस्स। वेज्जावच्चकराण य होइ विवेगो तहा चेव।१६९। = इन्द्रियविवेक, कषायविवेक भक्तपान विवेक, उपधिविवेक, देहविवेक ऐसे विवेक के पाँच प्रकार पूर्वागम में कहे गये हैं।१६८। अथवा शरीरविवेक, वसतिसंस्तरविवेक, उपकरण विवेक, भक्तपान विवेक और वैयावृत्त्यकरणविवेक ऐसे पाँच भेद कहे गये हैं। इन पाँच भेदों में प्रत्येक के द्रव्य और भाव ऐसे दो-दो भेद है।१६९। (सा.ध./८/४४)।
भ.आ./वि.१६८-१६९/३८२/२ रूपादिविषये चक्षुरादीनामादरेण कोपेन वा अप्रवर्तनम्। इदं पश्यामि शृणोमीति वा।...इति वचनानुच्चारणं द्रव्यत इन्द्रियविवेकः। भावत इन्द्रियविवेको नाम जातेऽपि....विज्ञानस्य....रागाकोपाभ्यां विवेचनं, रागकोपसहचारिरूपादिविषयमानसज्ञानापरिणतिर्वा। द्रव्यतः कषायविवेको नाम कायेन वाचा चेति द्विविधिः। भ्रूलतासंकोचनं....इत्यादि कायव्यापाराकरणं। हन्मि....इत्यादि वचनाप्रयोगश्च। परपरिभवादिनिमित्तचित्तकलंकाभावो भावतः क्रोधविवेकः। तथा....गात्राणां स्तब्धाकरणं....मत्तः कोवा श्रुतपारगः-इति वचनाप्रयोगश्च....मनसाहंकारवर्जनं भावतो मानकषायविवेकः। अन्यं ब्रुवत इवान्यस्य यद्वचनं तस्य त्यागो मायोपदेशस्य वा....वाचा मायाविवेकः। अन्यत्कुर्वत इवान्यस्य कायेनाकरणं कायतो मायाविवेकः।....यत्रास्य लोभस्तदुद्दिश्य करप्रसारणं....एतस्य कायव्या-पारस्याकरणं कायेन लोभविवेकः।....एतन्मदीयं वस्तुग्रामादिकं वा वचनानुच्चारणं वाचा लोभविवेकः।....ममे-दंभावरूपमोहजपरिणामापरिणतिर्भावतो लोभविवेकः।१६८।....स्वशरीरेण स्वशरीरोपद्रवापरिहरणं कायविवेकः.... शरीरपीडां मां कृथा इत्याद्यवचनं। मां पालयेति वा...इति वचनं वाचाविवेकः। वसतिसंस्तरयोर्विवेको नाम कायेन वसतावनासनं प्रागध्युषितायां। संस्तरे वा प्राक्तने अशयनं अनासनं। वाचा त्यजामि वसतिसंस्तरमिति वचनं। कायेनोपकरणानामनादानं...। परित्यक्तानीमानि ज्ञानोपकरणादीनि इति वचनं वाचा उपधिविवेकः। भक्तपानाशनं वा कायेन भक्तपानविवेकः। एवंभूतं भक्तंपानं वा न गृह्वामि इति वचनं वाचा भक्तपानविवेकः। वैयावृत्त्यकरा स्वशिष्यादयो ये तेषां कायेन विवेकः तैः सहासंवासः। मा कृथा वैयावृत्त्यं इति वचनं।....सर्वत्र शरीरादौ अनुरागस्य ममेदंभावस्य वा मनसा अकरणं भावविवेकः।१६९। = रूपादि विषयों में नेत्रादिक इन्द्रियों की आदर से अथवा कोप से प्रवृत्ति न होना। अर्थांत् यह रूप मैं देखता हूँ, शब्द मैं सुन रहा हूँ ऐसे वचनों का उच्चारण न करना द्रव्यतः इन्द्रिय विवेक है। रूपादिक विषयों का ज्ञान होकर भी रागद्वेष से भिन्न रहना अर्थात् रागद्वेषयुक्त ऐसी रूपादिक विषयों में मानसिक ज्ञान की परिणति न होना भावतः इन्द्रियविवेक है। द्रव्यतः कषाय विवेक के शरीर से और वचन से दो भेद हैं। भौंहें संकुचित करना इत्यादि शरीर की प्रवृत्ति न होना कायक्रोध विवेक है। मैं मारूँगा इत्यादि वचन का प्रयोग न करना वचन क्रोध विवेक है। दूसरों का पराभव करना, वगैरह के द्वेषपूर्वक विचार मन में न लाना यह भावक्रोधविवेक है। इसी प्रकार द्रव्य, मान, माया व लोभ कषाय विवेक भी शरीर और वचन के व भाव के भेद से तीन-तीन प्रकार के हैं। तहाँ शरीर के अवयवों को न अकड़ाना, मेरे से अधिक शास्त्र प्रवीण कौन है ऐसे वचनों का प्रयोग न करना ये काय व वचनगत मानविवेक हैं। मन के द्वारा अभिमान को छोड़ना भाव मानकषाय विवेक है। मानो अन्य के विषय में बोल रहा है ऐसा दिखाना, ऐसे वचन का त्याग करना अथवा कपट का उपदेश न करना वाचा माया विवेक है। शरीर से एक कार्य करता हुआ भी मैं अन्य ही कर रहा हूँ ऐसा दिखाने का त्याग करना काय मायाविवेक है। जिस पदार्थ में लोभ है उसकी तरफ अपना हाथ पसारना इत्यादिक शरीर क्रिया न करना काय लोभ विवेक है। इस वस्तु ग्राम आदि का मैं स्वामी हूँ ऐसे वचन उच्चारण न करना वाचा लोभ विवेक है। ममेदं भावरूप मोहज परिणति को न होने देना भाव लोभ विवेक है।१६८। अपने शरीर से अपने शरीर के उपद्रव को दूर न करना काय शरीर विवेक है। शरीर को तुम पीड़ा मत करो अथवा मेरा रक्षण करो इस प्रकार के वचनों का न कहना वाचा शरीर विवेक है। जिस वसतिका में पूर्व काल में निवास किया था उसमें निवास न करना और इसी प्रकार पहिले वाले संस्तर में न सोना बैठना काय वसति संस्तर विवेक है। मैं इस वसति व संस्तर का त्याग करता हूँ। ऐसे वचन का बोलना वाचा वसतिसंस्तर विवेक है। शरीर के द्वारा उपकरणों को ग्रहण न करना काय उपकरण विवेक है। मैने इन ज्ञानोपकरणादि का त्याग किया है ऐसा वचन बोलना वाचा उपकरण विवेक है। आहार पान के पदार्थ भक्षण न करना काय भक्तपान विवेक है। इस तरह का भोजन पान मैं ग्रहण नहीं करूँगा ऐसा वचन बोलना वचाभक्तपान विवेक है। वैयावृत्त्य करने वाले अपने शिष्यादिकों का सहवास न करना काय वैयावृत्त्य विवेक है। तुम मेरी वैयावृत्त्य मत करो ऐसे वचन बोलना वाचा वैयावृत्त्य विवेक है। सर्वत्र शरीरादिक पदार्थों पर से प्रेम का त्याग करना अथवा ये मेरे हैं ऐसा भाव छोड़ देना भावविवेक है।
- विवेक तप के अतिचार
भ.आ./वि./४८७/७०७/२२ भावतोऽविवेको विवेकातिचारः। = परिणामों के द्वारा विवेक का न होना विवेक का अतिचार है।
- विवेक प्रायश्चित्त किस अपराध में दिया जाता है–दे. प्रायश्चित्त/४।