पर
From जैनकोष
रा.वा./२/३७/१/१४७/२९ परशब्दोऽयमनेकार्थवचनः। क्वचिद्वयवस्थायां वर्तते - यथा पूर्वः पर इति। क्चचिदन्यार्थे वर्तते - यथा परपुत्रः परभार्येति अन्यपुत्रोऽन्यभार्येति गम्यते। क्वचित्प्राधान्ये वर्तते - यथा परमियं कन्या अस्मिन्कुटुम्बे प्रधानमिति गम्यते। क्वचिदिष्टार्थे वर्तते - यथा परंधाम गत इष्टं धाम गत इत्यर्थः।
रा.वा./३/६/७/१६७/१७ परोत्कृष्टेति पर्यायौ। ७। = पर शब्द के अनेक अर्थ हैं जैसे -
- कहीं पर व्यवस्था अर्थ में वर्तता है जैसे - पहला, पिछला।
- कहीं पर भिन्न अर्थ में वर्तता है जैसे - ‘परपुत्र’, ‘परभार्या’। इससे ‘अन्य का पुत्र’ व ‘अन्य की स्त्री’ ऐसा ज्ञान होता है।
- कहीं पर प्राधान्य अर्थ में वर्तता है जैसे - इस कुटुम्ब में यह कन्या पर है। यहाँ ‘प्रधान है’ ऐसा ज्ञान होता है।
- कहीं पर इष्ट अर्थ में वर्तता है जैसे - ‘परंधाम गत’ अर्थात् अपने इष्ट स्थान पर गया ऐसा ज्ञान होता है।
- पर और उत्कृष्ट ये पर्यायवाची नाम हैं। (प.प्र./टी./१/२४/२९/८)।
स्या. मं./४/१८/२७ परत्वं चान्यत्वं तच्चैकान्तभेदाविनाभावि।
स्या. मं./२७/३०५/२७ परशब्दो हि शत्रुपर्यायोऽप्यस्ति। = परत्व शब्द एकान्तभेद का अविनाभावी है। इसका अर्थ अन्यपना होता है। ‘पर’ शब्द शत्रु शब्द का पर्यायवाची है।
पं.ध./उ./३९७ स्वापूर्वार्थद्वयोरेव ग्राहकं ज्ञानमेकशः। ३९७। = ज्ञान युगपत् स्व और अपूर्व अर्थात् पर दोनों ही अर्थों का ग्राहक है।