मतानुज्ञा
From जैनकोष
न्या. सू./मू./५/२/२० स्वपक्षदोषाभ्युपगमात् परपक्षे दोषप्रसंगो मतानुज्ञा।२०। = प्रतिवादी द्वारा उठाये गये दोष को अपने पक्ष में स्वीकार करके उसका उद्धार किये बिना ही ‘तुम्हारे पक्ष में भी ऐसा ही दोष है’ इस प्रकार कहकर दूसरे के पक्ष में समान दोष उठाना मतानुज्ञा नाम का निग्रहस्थान है। (श्लो. वा. ४/१/३३/न्या. २५१/४१७/१४ पर इसका निराकरण किया गया है)।