साधारण शरीर में जीवों का उत्पत्ति क्रम
From जैनकोष
- साधारण शरीर में जीवों का उत्पत्ति क्रम
- निगोद शरीर में जीवों की उत्पत्ति क्रम से होती हैं
ष.खं.१४/५, ६/५८२-५८६/४६९ जो णिगोदो पढमदाए वक्कममाणो अणंता वक्कमंति जीवा । एयसमएण अणंताणंतसाहारणजीवेण घेत्तूण एगसरीरं भवदि असंखेज्जलोगमेत्तसरीराणि घेत्तूण एगो णिगोदो होदि ।५८२। विदियसमए असंखेज्जगुणहीणा वक्कमंति ।५८३। तदियसमए असंखेज्जगुणहीणा वक्कमंति ।५८४। एवं जाव असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए णिरंतरं वक्कमंति जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदि भागो ।५८५। तदो एक्को वा दो वा तिण्णि वा समए अंतरं काऊण णिरंतरं वक्कमंति जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदि भागो ।५८६।
ध.१४/५, ६/ १२७/२३३/५ एवं सांतरणिरं तरकमेण ताव उप्पज्जंति जाव उप्पत्तीए संभवो अत्थि । = प्रथम समय में जो निगोद उत्पन्न होता है उसके साथ अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं । यहाँ एक समय में अनन्तानन्त जीवों को ग्रहण कर एक शरीर होता है, तथा असंख्यात लोक प्रमाण शरीरों को ग्रहण कर एक निगोद होता है ।५८२। दूसरे समय में असंख्यात गुणे हीन निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ।५८३। तीसरे समय में असंख्यात गुणे हीन निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ।५८४। इस प्रकार आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण कालतक निरन्तर असंख्यातगुणे हीन श्रेणी रूप से निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ।५८५। उसके बाद एक, दो और तीन समय से लेकर आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल का अन्तर करके आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाणकालतक निरन्तर निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ।५८६। इस प्रकार सान्तर निरन्तर क्रम से तब तक जीव उत्पन्न होते हैं जब तक उत्पत्ति सम्भव है । (गो.जी./जी.प्र./१९३/४३२/५) ।
गो.जी./जी.प्र./१९३/४३२/९ एवं सान्तरनिरन्तरक्रमेण तावदुत्पद्यन्ते यावत्प्रथमसमयोत्पन्नसाधारणजीवस्य सर्वजघन्यो निर्वृत्तयपर्याप्तकालोऽवशिष्यते ।२० पुनरपि तत्प्रथमादिसमयोत्पन्नसर्वसाधारणजीवानां आहारशरीरेन्द्रियोच्छ्वासनिःश्वासपर्याप्तीनां स्वस्वयोग्यकाले निष्पत्तिर्भवति । = इस प्रकार सान्तर निरन्तर क्रम से तब तक जीव उत्पन्न होते हैं जब तक प्रथम समय में उत्पन्न हुआ साधारण जीव का जघन्य निर्वृत्ति अपर्याप्त अवस्था का काल अवशेष रहे । फिर पीछे उन प्रथमादि समय में उपजे सर्वसाधारण जीव के आहार, शरीर, इन्द्रिय श्वासोच्छ्वास की सम्पूर्णता अपने-अपने योग्य काल में होती है ।
- निगोद शरीर में जीवों की मृत्यु क्रम व अक्रम दोनों प्रकार से होती है
ष.खं.१४/५, ६/सू.६३१/४८५ जो णिगोदो जहण्णएण वक्कमणकालेण वक्कमंतो जहण्णएण पबंधणकालेण पबद्धो तेसिं बादरणिगोदाणं तथा पबद्धाणं मरणक्कमेण णिग्गमो होदि ।६३१।
ध.१४/५, ६, ६३१/४८६/९ एक्कम्हि सरीरे उप्पज्जमाणबादरणिगोदा किमक्कमेण उप्पज्जंति आहो कमेण । जदि अक्कमेण उप्पज्जंति तो अक्कमेणेव मरणेण वि होदव्वं, एक्कम्हि मरंते संते अण्णेसिं मरणाभावे सहारणत्तविरोहादो । अह जइ कमेण असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए उप्पज्जंति तो मरणं पि जवमज्झागारेण ण होदि, साहारणत्तस्स विणासप्पसंगादो त्ति । एत्थ परिहारो बुच्चदे-असंखेज्जगुणहीणाए कमेण वि उप्पज्जंति अक्कमेन वि अणंता जीवा एगसयए उप्पज्जंति । ण च फिट्टदि ।........एदीय गाहाए भणिदलक्खणाणमभावे साहारणत्तविणासदो । तदो एगसरीरुप्पण्णाणं मरणक्मेण णिग्गमो होदि त्ति एदं पि ण विरुज्झदे । ण च एगसरीरुप्पण्णा सव्वे समाणाउवा चेव होंति त्ति णियमो णत्थि जेण अक्कमे तेसिं मरणं होज्ज । तम्हा एगसरीरट्ठिदाणं पि मरणजवमज्झं समिजालवमज्झं च होदि त्ति घेत्तव्वं । = जो निगोद जघन्य उत्पत्ति काल के द्वारा बन्ध को प्राप्त हुआ है उन बादर निगोदों का उस प्रकार से बन्ध होने पर मरण के क्रमानुसार निर्गम होता है ।६३१। प्रश्न - एक शरीर में उत्पन्न होने वाले बादर निगोद जीव क्या अक्रम से उत्पन्न होते हैं या क्रम से? यदि अक्रम से उत्पन्न होते हैं तो अक्रम से ही मरण होना चाहिए, क्योंकि एक के मारने पर दूसरों का मरण न होने पर उनके साधारण होने में विरोध आता है । यदि क्रम से असंख्यातगुणी हीन श्रेणी रूप से उत्पन्न होते हैं, तो मरण भी यवमध्य के आकार रूप से नहीं हो सकता है, क्योंकि साधारणपने के विनाश का प्रसंग आता है । उत्तर - असंख्यातगुणी हीन श्रेणि के क्रम से भी उत्पन्न होते हैं, और अक्रम से भी अनन्तजीव एक समय में उत्पन्न होते हैं और साधारणपना भी नष्ट नहीं है । (साधारणआहार व उच्छ्वास का ग्रहण साधारण जीवों का लक्षण है - देखें - वनस्पति / ४ / २ ) । इस प्रकार गाथा द्वारा कहे गये लक्षणों के अभाव में ही साधारणपने का विनाश होता है । इस प्रकार यह कथन भी विरोध को प्राप्त नहीं होता है और एक शरीर में उत्पन्न हुए सब समान आयु वाले ही होते हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है, जिससे अक्रम से उनका मरण होवे, इसलिए एक शरीर में स्थित हुए निगोदों का मरण यवमध्य और शामिला यवमध्य है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।
- आगे-पीछे उत्पन्न होकर भी उनकी पर्याप्ति युगपत् होती है
ध.१४/५, ६, १२४/२२९/२ एक्कम्हि सरीरे जे पढमं चेव उप्पण्णा अणंता जीवा जे च पच्छा उप्पण्णा ते सव्वे समगं वक्कंता णाम । कथं भिण्णकालमुप्पण्णाणं जीवाणं समगत्तं जुज्जदे । ण, एगसरीरसंबंधेण तेसिं सव्वेसिं पि समपत्तं पडिविरोहाभावादो ।... एक्कम्हि सरीरे पच्छा उप्पज्जमाणा जीवा अत्थि, कथं तेसिं पढमं चेव उप्पत्ती होदि । ण, पढमसमए उप्पण्णाणं जीवाणमणुग्गहणफलस्स पच्छा उप्पण्णजीवेसु वि उवलंभादो । तम्हा एगणिगोदसरीरे उप्पज्जमाणसव्वजीवाणं पढमसमए चेव उप्पत्ती एदेण णाएण जुज्जदे ।
ध.१४/५, ६, १२२/२२७/४ एदस्स भावत्थो-सव्वजहण्णेण पज्जत्तिकालेण जदि पुव्वुप्पण्णणिगोदजीवा सरीरपज्जत्ति-इंदियपज्जत्तिआहार-आणपाणपज्जतीहि पज्जत्तयदा होंति तम्हि सरीरे तेहि समुप्पण्णमंदजोगिणिगोदजीवा वि तेणेव कालेण एदाओ पज्जत्तीओ समाणेंति, अण्णहा आहारगहणादोणं साहारणत्तणुववत्तीदां । जदि दीहकालेन पढममुप्पण्णजीवा चत्तरि पज्जत्तीओ समाणेंति तो तम्हि सरीरे पच्छा उप्पण्णजीवा तेणेव कालेण ताओ पज्जत्तीओ समाणेंति त्ति भणिदं होदि ।.... सरीरिंदियापज्जत्तीणं साहारणत्तं किण्ण परूविदं । ण, आहारणावणणिद्देसो देसामासिओ त्ति तेसिं पि एत्थेव अंतव्भावदो । =- एक शरीर में जो पहले उत्पन्न हुए अनन्त जीव हैं और जो बाद में उत्पन्न हुए अनन्त जीव हैं वे सब एक साथ उत्पन्न हुए कहे जाते हैं । प्रश्न - भिन्न काल में उत्पन्न हुए जीवों का एक साथपना कैसे बन सकता है । उत्तर - नहीं, क्योंकि एक शरीर के सम्बन्ध से उन जीवों के भी एक साथपना होने में कोई विरोध नहीं आता है ।.... प्रश्न - एक शरीर में बाद में उत्पन्न हुए जीव हैं, ऐसी अवस्था में उनकी प्रथम समय में ही उत्पत्ति कैसे हो सकती है । उत्तर - नहीं, क्योंकि प्रथम समय में उत्पन्न हुए जीवों के अनुग्रहण का फल बाद में उत्पन्न हुए जीवों में भी उपलब्ध होता है, इसलिए एक निगोद शरीर में उत्पन्न होने वाले सब जीवों की प्रथम समय में ही उत्पत्ति इस न्याय के अनुसार बन जाती है ।
- इसका तात्पर्य यह है कि - सबसे जघन्य पर्याप्ति काल के द्वारा यदि पहले उत्पन्न हुए निगोद जीव शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, आहारपर्याप्ति और उच्छ्वानिःश्वास पर्याप्ति से पर्याप्त होते हैं, तो उसी शरीर में उनके साथ उत्पन्न हुए मन्द योग वाले जीव भी उसी काल के द्वारा इन पर्याप्तियों को पूरा करते हैं, अन्यथा आहार ग्रहण आदि का साधारणपना नहीं बन सकता है । यदि दीर्घ काल के द्वारा पहले उत्पन्न हुए जीव चारों पर्याप्तियों को प्राप्त करते हैं तो उसी शरीर में पीछे से उत्पन्न हुए जीव उसी काल के द्वारा उन पर्याप्तियों को पूरा करते हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है ।... प्रश्न - शरीर पर्याप्ति और इन्द्रिय पर्याप्ति ये सबके साधारण हैं ऐसा (सूत्र में) क्यों नहीं कहा । उत्तर - नहीं, क्योंकि गाथा सूत्र में ‘आहार’ और आनपान का ग्रहण देशामर्शक है, इसलिए उनका भी इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है ।
- एक ही निगोद शरीर में जीवों के आवागमन का प्रवाह चलता रहता है
ध.१४/५, ६, ५८३/४७०/५ एगसमएण जम्हि समए अणंतजीवा उप्पज्जंति तम्हि चेव समए सरीरस्स पुलवियाए च उप्पत्ती होदि, तेहि विणा तेसिमुप्पत्तिविरोहादो । कत्थ वि पुलवियाए पुव्वं पि उप्पत्ती होदि, अणेगसरीराधारत्तदो । = जिस समय में अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं उसी समय में शरीर की और पुलविकी उत्पत्ति होती है, क्योंकि इनके बिना अनन्त जीवों की उत्पत्ति होने में विरोध है । कहीं पर पुलविकी पहले भी उत्पत्ति होती है, क्योंकि वह अनेक शरीरों का आधार है ।
गो.जी./जी.प्र./१९३/४३१/१६ यन्निगोदशरीरे यदा एको जीवः स्वस्थितिक्षयवशेन म्रियते तदा तन्निगोदशरीरे यदा एको जीवःप्रक्रमति उत्पद्यते तथा तन्निगोदशरीरे समस्थितिकाः अनन्तानन्ता जीवाः सहैव म्रियन्ते । यन्निगोदशरीरे यदा एको जीवः प्रक्रमति उत्पद्यते तथा तन्निगोदशरीरे समस्थितिकाः अनन्तानन्ता जीवाः सहैव प्रक्रामन्ति । एवमुत्पत्तिमरणयोः समकालत्वमपि साधारणलक्षणं प्रदर्शितं । द्वितीयादिसमयोत्पन्नानामनन्तानन्तजीवानामपि स्वस्थितिक्षये सहैव मरणं ज्ञातव्यं एवमेकनिगोदशरीरे प्रतिसमयमनन्तानन्तजीवास्तावत्सहैव म्रियन्ते सहैवोत्पद्यन्तेयावदसंख्यातसागरोपमकोटिमात्रो असंख्यातलोकमात्रसमयप्रमिता उत्कृष्टनिगोदकायस्थितिः परिसमाप्यते । = एक निगोद शरीर में जब एक-एक जीव अपनी आयु की स्थिति के पूर्ण होने पर मरता है तब जिनकी आयु उस निगोद शरीर में समान हो वे सब युगपत् मरते हैं । और जिस काल में एक जीव उस निगोद शरीर में जन्म लेता है, तब उस ही के साथ समान स्थिति के धारक अनन्तानन्त जीव उत्पन्न होते हैं । ऐसे उपजने मरने के समकालपने को भी साधारण जीव का लक्षण कहा है ( देखें - वनस्पति / ४ / २ ) और द्वितीयादि समयों में उत्पन्न हुए अनन्तानन्त जीवों का भी अपनी आयु का नाश होने पर साथ ही मरण होता है । ऐसे एक निगोद शरीर में अनन्तानन्त जीव एक साथ उत्पन्न होते हैं, एक साथ मरते हैं और निगोद शरीर ज्यों का त्यों बना रहता है । इस निगोद शरीर की उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । सो असंख्यात लोकमात्र समय प्रमाण जानना । जब तक वह स्थिति भवतः पूर्ण नहीं होती, तब तक जीवों का मरना उत्पन्न होना रहा करता है ।
- बादर व सूक्ष्म निगोद शरीरों में पर्याप्त व अपर्याप्त जीवों के अवस्थान सम्बन्धी नियम
ष.खं.१४/५, ६/सू.६२९-६३० सव्वो बादरणिगोदो पज्जत्ते वा वामिस्सी वा ।६२९। सु मणिगोदवग्गणाए पुण णियमा वा मिस्सो ।६३०।
ध.१४/५, ६, ६२९/४८३-४८४/१० खंधंडरावासपुलवियाओ अस्सिदूण एदं सुत्तं परूविदं ण सरीरे, एगम्मि सरीरे पज्जत्तपज्जत्तजीवाणमवट्ठाणविरंहादो ।... सव्वो बादरणिगोदो पज्जत्ते वा होदि । कुदो । बादरणिगोदपज्जत्तेहि सह खंधंडरावासपुलवियासु उप्पण्णबादरणिगोदअणंतापज्जत्तएसु अंतोमुहुत्तेण कालेण णिस्सेसं मुदेसु सुद्धाणं बादरणिगोदपज्जत्तणं चेव तत्थावट्ठाणदंसणादो ।... एत्ते हेट्ठा पुण बादरणिगोदो वामिस्सो होदि, खंधंडरावासपुलवियासु बादरबणगोदपज्जत्तपज्जत्तणं अणंताणं सहावट्ठाणदंसणादो ।
ध.१४/५, ६, ६३०/४८४/९ सुहुमणिगोदवग्गणाए पज्जत्तपज्जत्त च जेण सव्वकालं संभवंति तेण सा णियमा पज्जत्तपज्जत्तजीवेहिं वामिस्सा होदि । किमट्ठं सव्वकालं संभवदि । सुहुमणिगोदपज्जत्तपज्जत्तणं वक्कमणपदेसकालणियमाभावादो । एत्थ पदेसेएत्तियं चेव कालमुप्पत्ती परदो ण उप्पज्जंति त्ति जेण णियमो णत्थि तेण सा सव्वकाले वामिस्सा त्ति भणिदं होदि । = सब बादर निगोद पर्याप्त है या मिश्र रूप है ।६२९। परन्तु सूक्ष्म निगोद वर्गणा में नियम से मिश्र रूप हैं ।६३०। स्कन्ध अण्डर आवास और पुलवियों का आश्रय लेकर यह सूत्र कहा गया है, शरीरों का आश्रय लेकर नहीं कहा गया है, क्योंकि एक शरीर में पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों का अवस्थान होने में विरोध है ।...सब बादर निगोद जीव पर्याप्त होते हैं, क्योंकि बादर निगोद पर्याप्तकों के साथ स्कन्ध, अण्डर, आवास और पुलवियों में उत्पन्न हुए अनन्त बादर निगोद अपर्याप्त जीवों के अन्तर्मुहूर्त काल के भीतर सबके मर जाने पर वहाँ केवल बादर निगोद पर्याप्तकों का ही अवस्थान देखा जाता है ।.... परन्तु इससे पूर्व बादर निगोद व्यामिश्र होता है, क्योंकि स्कन्ध, अण्डर, आवास और पुलवियों में अनन्त बादर निगोद पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों का एक साथ अवस्थान देखा जाता है । यतः सूक्ष्म निगोद में पर्याप्त और अपर्याप्त जीव सर्वदा सम्भव है, इसलिए वह से पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों से मिश्र रूप होती है । प्रश्न - उसमें सर्वकाल किसलिए सम्भव है । उत्तर - क्योंकि सूक्ष्म निगोद पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों की उत्पत्ति के प्रदेश और काल का कोई नियम नहीं है । इस प्रदेश में इतने ही काल तक उत्पत्ति होती है, आगे उत्पत्ति नहीं होती इस प्रकार का चूँकि नियम नहीं है, इसलिए वह सूक्ष्म निगोद वर्गणा मिश्ररूप होती है ।
गो.जी./जी.प्र./१९३/४३२/३ अत्र विशेषोऽम्ति स च कः । एकबादरनिगोदशरीरे सूक्ष्मनिगोदशरीरे वा अनन्तानन्ताः साधारणजीवाः केवलपर्याप्ता एवोत्पद्यन्ते पुनरपि एकशरीरे केवलमपर्याप्ता एवोत्पद्यन्ते न च मिश्रा उत्पद्यन्ते तेषां समानकर्मोदयनियमात् । = इतना विशेष है कि एक बादर निगोद शरीर में अथवा सूक्ष्म निगोद शरीर में अनन्तानन्त साधारण जीव केवल पर्याप्त ही उत्पन्न होते हैं, वहाँ अपर्याप्त नहीं उपजते । और कोई शरीर में अपर्याप्त ही उपलते हैं वहाँ पर्याप्त नहीं उपजते । एक ही शरीर में पर्याप्त अपर्याप्त दोनों युगपत् नहीं उत्पन्न होते । क्योंकि उन जीवों के समान कर्म के उदय का नियम है ।
- अनेक जीवों का एक शरीर होने में हेतु
ध.१/१, १, ४१/२६९/८ प्रतिनियतजीवप्रतिबद्धैः पुद्गलविपाकित्वादाहारवर्गणास्कन्धानां कायाकारपरिणमन-हेतुभिरौदारिककर्मस्कन्धैः कथं भिन्नजीवफलदातृभिरेकं शरीरं निष्पाद्यते विरोधादिति चेन्न, पुद्गलानामेकदेशावस्थिता-नामेकदेशावस्थितमिथासमवेतजीवसमवेतानां तत्स्थाशेषप्राणिसंबन्ध्येकशरीरेनिष्पादनं न विरुद्धं साधारणकारणतः समुत्पन्नकार्यस्य साधारणत्वाविरोधात् । कारणानुरूपं कार्यमिति न निषेद्धुं पार्यते सकलनैयायिकलोकप्रसिद्धत्वात् । = प्रश्न - जीवों से अलग-अलग बँधे हुए, पुद्गल विपा की होने से आहर-वर्गणा के स्कन्धों को शरीर के आकार रूप से परिणमन कराने में कारण रूप और भिन्न-भिन्न जीवों को भिन्न-भिन्न फल देने वाले औदारिक कर्म स्कन्धों के द्वारा अनेक जीवों के एक-एक शरीर कैसे उत्पन्न किया जा सकता है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है । उत्तर - नहीं, क्योंकि जो एक देश में अवस्थित हैं और जो एक देश में अवस्थित तथा परस्पर सम्बद्ध जीवों के साथ समवेत हैं, ऐसे पुद्गल वहाँ पर स्थित सम्पूर्ण जीव सम्बन्धी एक शरीर को उत्पन्न करते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि साधारण कारण से उत्पन्न हुआ कार्य भी साधारण होता है । कारण के अनुरूप ही कार्य होता है, इसका निषेध भी तो नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह बात सम्पूर्ण नैयायिक लोगों में प्रसिद्ध है ।
- अनेक जीवों का एक आहार होने में हेतु
ध.१४/५, ६, १२२/२२७/९ कथमेगेण जीवेण गहिदो आहारो तक्काले तत्थ अणंताणं जीवाणं जायदे । ण, तेणाहारेण जणिसत्तीए पच्छा उप्पण्णजीवाणं उप्पणपढमसमए चेव उवलंभादो । जदि एवं तो आहारो साहारणो होदि आहारजणिदसत्ती साहारणे त्ति वत्तव्यं । न एस दोसो, कज्जे कारणोवयारेण आहारजणिदसत्तीए वि आहारववएससिद्धीओ । = प्रश्न - एक जीव के द्वारा ग्रहण किया गया आहार उस काल में वहाँ अनन्त जीवों का कैसे हो सकता है? उतर - नहीं, क्योंकि उस आहार से उत्पन्न हुई शक्ति का बाद में उत्पन्न हुए जीवों के उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही ग्रहण हो जाता है । प्रश्न - यदि ऐसा है तो ‘आहार साधारण है इसके स्थान में आहार जनित शक्ति साधारण है’ ऐसा कहना चाहिए । उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि कार्य में कारण का उपचार कर लेने से आहार जनित शक्ति के भी आहार संज्ञा सिद्ध होती है ।
- निगोद शरीर में जीवों की उत्पत्ति क्रम से होती हैं