स्याद्वाद निर्देश
From जैनकोष
स्याद्वाद निर्देश
१. स्याद्वाद का लक्षण
न.च.वृ./२५१ णियमणिसेहणसीलो णिपादणादो य जोहु खलु सिद्धो। सो सियसद्दो भणियो जो सावेक्खं पसाहेदि।२५१। = जो नियम का निषेध करने वाला है, निपात से जिसकी सिद्धि होती है, जो सापेक्षता की सिद्धि करता है वह स्यात् शब्द कहा गया है।
स्व.स्तो./मू./१०२-१०३ सर्वथा नियमत्यागी यथादृष्टमपेक्षक:। स्याच्छब्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ।१०२। अनेकान्तोऽप्यनेकान्त: प्रमाणनयसाधन:। अनेकान्त: प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितान्नयात् ।१०३।
स.सा./ता.वृ./स्याद्वाद अधिकार/५१९/११/पर उद्वत-धर्मिणोऽनन्तरूपत्वं धर्माणां न कथंचन। अनेकान्तोऽप्यनेकान्त इति जैनमतं तत:। = १. सर्वथा रूप से-सत् ही है, असत् ही है इत्यादि रूप से प्रतिपादन के नियम का त्यागी और यथादृष्ट को-जिस प्रकार से वस्तु प्रमाण प्रतिपन्न है उसको अपेक्षा में रखने वाला जो स्यात् शब्द है वह आपके न्याय (मत) में है। दूसरों के न्याय में नहीं है जो कि आपके वैरी हैं।१०२। आपके मत में अनेकान्त भी प्रमाण और नय साधनों को लिये हुए अनेकान्त स्वरूप है, प्रमाण की दृष्टि से अनेकान्त स्वरूप दृष्टिगत होता है और विवक्षित नय की अपेक्षा से अनेकान्त में एकान्त रूप सिद्ध होता है।१०३। (स.सा./स्याद्वाद अधिकार/ता.वृ./५१९/९)। २. धर्मी अनेकान्त रूप है क्योंकि वह अनेक धर्मों का समूह है परन्तु धर्म अनेकान्त रूप् कदाचित् भी नहीं क्योंकि एक धर्म के आश्रय अन्य धर्म नहीं पाया जाता (इस प्रकार अनेकान्त भी अनेकान्त रूप है अर्थात् अनेकान्तात्मक वस्तु अनेकान्त रूप भी है और एकान्तरूप भी है।
स.सा./ता.वृ./स्याद्वाद अधिकार/५१३/१७ स्यात्कथंचित् विवक्षितप्रकारेणानेकान्तरूपेण वदनं वादो जल्प: कथनं प्रतिपादनमिति स्याद्वाद:। = स्यात् अर्थात् कथंचित् या विवक्षित प्रकार से अनेकान्त रूप से वदना, वाद करना, जल्प करना, कहना प्रतिपादन करना स्याद्वाद है।
स्व.स्तो./टी./१३४/२६४ उत्पाद्येत उत्पाद्यते येनासौ वाद:, स्यादिति वादो वाचक: शब्दो यस्यानेकान्तवादस्यादौ स्याद्वाद:। = 'उत्पाद्यते' अर्थात् जिसके द्वारा प्रतिपादन किया जाये वह वाद कहलाता है। स्याद्वाद का अर्थ है वह वाद जिसका वाचक शब्द 'स्यात्' हो अर्थात् अनेकान्तवाद है।
२. विवक्षा का ठीक-ठीक स्वीकार ही स्याद्वाद की सत्यता है
स.सा./पं.जयचन्द/३४४/४७३ आत्मा के कर्तृत्व-अकर्तृत्व की विवक्षा को यथार्थ मानना ही स्याद्वाद को यथार्थ मानना है।
३. स्याद्वाद के प्रामाण्य में हेतु
न्या.वि./३/८९/३६४ स्याद्वाद: श्रवणज्ञानहेतुत्वाच्चक्षुरादिवत् । प्रमा प्रमितिहेतुत्वात्प्रामाण्यमुपगम्यते।८९। = शब्द को सुनने का कार्य वाच्य पदार्थ का ज्ञान है उसके कारण ही स्याद्वाद की स्थिति है। इसलिए भगवत्प्रवचन रूप शाब्दिक स्याद्वाद उपचार से प्रमाण है पर तज्जनित ज्ञान रूप स्याद्वाद चक्षु आदि ज्ञानवत् मुख्यत: प्रमाण है, क्योंकि उसकी हेतु प्रमाकी प्रमिति है।
अपेक्षा निर्देश
१. सापेक्ष व निरपेक्ष का अर्थ
न.च.वृ./२५० अवरोप्परसावेक्खं णयविसयं अह पमाण विसयं वा। तं सावेक्खं तत्तं णिरवेक्खं ताण विवरीयं। = प्रमाण व नय के विषय परस्पर एक-दूसरे की अपेक्षा करके हैं अथवा एक नय का विषय दूसरी नय के विषय की अपेक्षा करता है, इसी को सापेक्ष तत्त्व कहते हैं। निरपेक्ष तत्त्व इससे विपरीत है।
२. विवक्षा एक ही अंश पर लागू होती है अनेक पर नहीं
पं.ध./पू./३०० नहि किंचिद्विधिरूपं किंचित्तच्छेषतो निषेधांशम् । आस्तां साधनमस्मिन्नाम द्वैतं न निर्विशेषत्वात ।३००। = कुछ विधि रूप और उस विधि से शेष रहा कुछ निषेध रूप नहीं है तथा ऐसे निरपेक्ष विधि निषेध रूप सत् के साध्य करने में हेतु का मिलना तो दूर, विशेषता न रहने से द्वैत भी सिद्ध नहीं हो सकता है।
३. विवक्षा की प्रयोग विधि
रा.वा./२/१९/१/१३१/८ स्पर्शनादीनां करणसाधनत्वं पारतन्त्र्यात् कर्तृसाधनत्वं च स्वातन्त्र्याद् बहुलवचनात् ।१।...कुत: पारतन्त्र्यात् । इन्द्रियाणां हि लोके पारतन्त्र्येण विवक्षा विद्यते, आत्मन: स्वातन्त्र्यविवक्षायां यथा 'अनेन चक्षुषा सुष्ठु पश्यामि, अनेन कर्णेन सुष्ठु शृणोमि' इति। ...कर्तृ साधनं च भवति स्वातन्त्र्यविवक्षायाम् ।...यथा इदं मेऽक्षि सुष्ठु पश्यति, अयं मे कर्ण: सुष्ठु शृणोतीति। = स्पर्शन आदिक इन्द्रियों का परतन्त्र विवक्षा से करण साधनत्व और स्वतन्त्र विवक्षा से कर्तृसाधनत्व दोनों निष्पन्न होते हैं।१। कैसे ? सो ही बतलाते हैं-इन्द्रियों की लोकपरतन्त्रता के द्वारा विवक्षा होती है और अपने में स्वतन्त्र विवक्षा होने से जैसे-'इस चक्षु के द्वारा मैं अच्छा देखता हूँ और इस कर्ण द्वारा मैं अच्छा सुनता हूँ।' स्वतन्त्र विवक्षा में कर्तृसाधन भी होता है जैसे-'यह मेरी आँख अच्छा देखती है, यह मेरे कान अच्छा सुनते हैं' इस प्रकार। (स.सि./२/१९/७७/३)।
पं.का./ता.वृ./१८/३८/१७ जैनमते पुनरनेकस्वभावं वस्तु तेन कारणेन द्रव्यार्थिकनयेन द्रव्यरूपेण नित्यत्वं घटते पर्यायार्थिकनयेन पर्यायरूपेणानित्यत्वं च घटते। तौ च द्रव्यपर्यायौ परस्परं सापेक्षौ। = जैन मत में वस्तु अनेकस्वभावी है इसलिए द्रव्यार्थिक नय से द्रव्यरूप से नित्यत्व घटित होता है, पर्यायार्थिक नय से पर्याय रूप से अनित्यत्व घटित होता है। दोनों ही द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय परस्पर सापेक्ष हैं। ( देखें - उत्पाद / २ )।
देखें - द्रव्य / ३ / ५ धर्मादिक चार शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय के अभाव से अपरिणामी वा नित्य कहलाते हैं, परन्तु अर्थ पर्याय की अपेक्षा सभी पदार्थ परिणामी कहलाते हैं। और व्यंजन पर्याय होने के कारण जीव व पुद्गल नित्य भी।
४. विवक्षा की प्रयोग विधि प्रदर्शक सारणी
न.च./गद्य श्रुत/पृ.६५-६७
सं. |
अपेक्षा |
प्रयोग |
प्रयोजन |
१ |
स्यादस्ति |
स्वरूपेणास्तित्वमिति |
अनेकस्वभावाराधत्व |
|
स्यान्नास्ति |
इति पररूपेणैव |
संस्कारादि दोष रहितत्व |
२ |
स्यान्नित्यत्व |
द्रव्यरूपेण नित्येति |
चिरकाल स्थायित्व |
|
स्यादनित्यत्व |
इति पर्यायरूपेणैव |
निज हेतुओं के द्वारा अनित्यत्व स्वभावी कर्म का ग्रहण त्याग होता है। |
३ |
स्यादेकत्व |
सामान्यरूपेणेति |
सामान्यपने में समर्थ है। |
|
स्यादनेकत्व |
इति विशेषरूपेणैव |
अनेक स्वभाव दर्शकत्व |
४ |
स्याद्भेदत्व |
सद्भूत व्यवहार रूपेणेति |
व्यवहार की सिद्धि |
|
स्यादभेदत्व |
इति द्रव्यार्थिकेनैव |
परमार्थ की सिद्धि |
५ |
स्याद्भव्यत्व |
स्वकीयरूपेण भवनादि |
स्वपर्याय परिणामित्व |
|
स्यादभव्यत्व |
इति पररूपेणैव कुर्यात् |
परपर्याय त्यागित्व |
६ |
स्याच्चेतन |
चेतन स्वभाव प्रधानत्वेन |
कर्म की हानि |
|
स्यादचेतन |
इति व्यवहारेणैव |
कर्म का ग्रहण |
७ |
स्यान्मूर्त |
असद्भूत व्यवहारेणेति |
कर्म बन्ध |
|
स्यादमूर्त |
इति परमभावेनैव |
स्वभाव में अपरित्याग |
८ |
स्यात्परम |
पारिणामिक स्वभावत्वेनेति |
स्वभाव में अचलवृत्ति |
|
स्यादपरम |
विभाव इति कर्मज रूपेणैव |
स्वभाव में विकृति |
९ |
स्यादेकप्रदेशत्व |
भेदकल्पना निर्पेक्षत्वेनेति |
निश्चय से एकत्व |
|
स्यादनेकप्रदेशत्व |
इतिव्यवहारेणैव |
अनेक कार्यकारित्व |
१० |
स्याच्छुद्ध |
केवल स्वभाव प्रधानत्वेनेति |
स्वभाव प्राप्ति |
|
स्यादशुद्धत्व |
इति मिश्रभावेनैव |
तद्विपरीत |
११ |
स्यादुपचरित |
स्वभावस्याप्यन्यत्रोपचारादिति |
पर (भाव) को जानना |
|
स्यादनुपचरित |
इति निश्चयादेव |
तद्विपरीत |
नोट--ये तथा अन्य भी अनेकों विधि निषेधात्मक अपेक्षाएँ एक ही पदार्थ में उसके किसी एक ही गुण या पर्याय के साथ अनेकों भिन्न दृष्टियों से लागू की जानी असम्भव है। ऐसा करते हुए उनमें विरोध भी नहीं आता।
५. अपेक्षा प्रयोग का कारण वस्तु का जटिल स्वरूप
न.च.वृ./७४ इदि पुव्वुत्ता धम्मा सियसावेक्खा ण गेहणाए जो हु। सो हू मिच्छाइट्ठी णायव्वो पवयणे भणिओ।७४। = इस प्रकार पूर्वोक्त धर्मों को जो सापेक्ष रूप से ग्रहण नहीं करता है उसे मिथ्यादृष्टि जानो। ऐसा आगम में कहा है।
का.अ./मू./२६१ जं वत्थु अणेयंतं एयंतं तं पि होदि सविपेक्खं। सुय-णाणेण णएहि य णिरवेक्खं दीसदे णेव।२६। = जो वस्तु अनेकान्त रूप है वही सापेक्ष दृष्टि से एकान्त भी है। श्रुतज्ञान की अपेक्षा अनेकान्त रूप है और नय की अपेक्षा एकान्त रूप है। बिना अपेक्षा के वस्तु का स्वरूप नहीं देखा जा सकता।
देखें - अनेकान्त / ५ / ४ वस्तु एक नय से देखने पर एक प्रकार दिखाई देती है, और दूसरी नय से देखने पर दूसरी प्रकार।
पं.ध./पू./६५५ नैवमसंभवदोषाद्यतो न कश्चिन्नयो हि निरपेक्ष:। सति च विधौ प्रतिषेध: प्रतिषेधे सति विधे: प्रसिद्धत्वात् ।६५५। = असम्भव दोष के आने से इस प्रकार कहना ठीक नहीं (कि केवल निश्चय नय से काम चल जावेगा) क्योंकि निश्चय से कोई भी नयनिरपेक्ष नहीं है। परन्तु विधि होने में प्रतिषेध और प्रतिषेध होने में विधि की प्रसिद्धि है।
६. एक अंश का लोप होने पर सबका लोप हो जाता है
स्व.स्तो./२२ अनेकमेकं च तदेव तत्त्वं भेदान्वयज्ञानमिदं हि सत्यम् । मृषोपचारोऽन्यतरस्य लोपे तच्छेषलोपोऽपि ततोऽनुपाख्यम् ।२२। = वह सुयुक्तिनीत वस्तुतत्त्व भेदाभेद ज्ञान का विषय है और अनेक तथा एक रूप है। और यह वस्तु को भेद-अभेदरूप से ग्रहण करने वाला ज्ञान ही सत्य है। जो लोग इनमें से एक को ही सत्य मानकर दूसरे में उपचार का व्यवहार करते हैं वह मिथ्या है क्योंकि दोनों में से एक का अभाव मानने पर दूसरे का भी अभाव हो जाता है, दोनों का अभाव हो जाने से वस्तुतत्त्व अनुपाख्यनि:स्वभाव हो जाता है।
पं.ध./पू./१९ तन्न यतो द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयात्मकं वस्तु। अन्यतरस्य विलोपे शेषस्यापीह लोप इति दोष:।१९। = यह ठीक नहीं (कि एक नय से सत्ता की सिद्धि हो जाती है) क्योंकि वस्तु द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, इन दोनों का विषय मय है। इनमें से किसी एक का लोप होने से दूसरे नय का भी लोप हो जायेगा। यह दोष आवेगा।
७. अपेक्षा प्रयोग का प्रयोजन
का.अ./मू./२६४ णाणाधम्मयुदं पि य, एयं धम्मं पि वुच्चदे अत्थं। तस्सेयविवक्खादो णत्थि विवक्खादा हु सेसाणं।२६४। = अनेक धर्मों से युक्त पदार्थ है, तो भी उन्हें एक धर्म युक्त कहता है, क्योंकि जहाँ एक धर्म की विवक्षा करते हैं वहाँ उसी धर्म को कहते हैं शेष धर्मों की विवक्षा नहीं कर सकते हैं।
मुख्य गौण व्यवस्था
१. मुख्य व गौण के लक्षण
स्व.स्तो./५३ विवक्षितो मुख्यं इतीष्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्षो। = जो विवक्षित होता है वह मुख्य कहलाता है, दूसरा जो अविवक्षित होता है वह गौण कहलाता है। (स्व.स्तो./२५)
स्या.म./७/६३/२२ अव्यभिचारी मुख्योऽविकलोऽसाधारणोऽन्तरङ्गश्च। विपरीतो गौणोऽर्थ: सति मुख्ये धी: कथं गौणे। = अव्यभिचारी, अविकल, असाधारण और अन्तरंग अर्थ को मुख्य कहते हैं और उससे विपरीत को गौण कहते हैं। मुख्य अर्थ के रहने पर गौण बुद्धि नहीं हो सकती।
२. मुख्य गौण व्यवस्था से ही वस्तु स्वरूप की सिद्धि है
स्व.स्तो./२५-६२ विधिर्निषेधश्च कथंचिदिष्टौ विवक्षया मुख्य-गुण-व्यवस्था।२५। यथैकश: कारकमर्थ-सिद्धये, समीक्ष्य शेषं स्वसहायकारकम् । तथैव सामान्य-विशेषमातृका नयास्तवेष्टा गुण-मुख्य कल्पत:।६२। = विधि और निषेध दोनों कथंचित् इष्ट हैं। विवक्षा से उनमें मुख्य गौण की व्यवस्था होती है।२५। जिस प्रकार एक-एक कारक शेष अन्य को अपना सहायक रूप कारक अपेक्षित करके अर्थ की सिद्धि के लिए समर्थ होता है उसी प्रकार आपके मत में सामान्य और विशेष से उत्पन्न होने वाले जो नय हैं वे मुख्य और गौण की कल्पना से इष्ट हैं।६२।
३. सप्तभंगी में मुख्य गौण व्यवस्था
रा.वा./४/४२/१५/२५३/२१-२६ गुणप्राधान्यव्यवस्थाविशेषप्रतिपादनार्थत्वात् सर्वेषां भङ्गानां प्रयोगोऽर्थवान् । तद्यथा, द्रव्यार्थिकस्य प्राधान्ये पर्यायगुणभावे च प्रथम:। पर्यायार्थिकस्य प्राधान्ये द्रव्यगुणभावे च द्वितीय:। तत्र प्राधान्यं शब्देन विवक्षितत्वाच्छब्दाधीनम्, शब्देनानुपात्तस्यार्थतो गम्यमानस्याप्राधान्यम् । तृतीये तु युगपद्भावे उभयस्याप्राधान्यं शब्देनाभिधेयतयानुपात्तत्वात् । चतुर्थस्तूभयप्रधान: क्रमेण उभयस्यास्त्यादिशब्देन उपात्तत्वात् । तथोत्तरे च भङ्गा वक्ष्यन्ते। = गौण और मुख्य विवक्षा से सभी भंगों की सार्थकता है। द्रव्यार्थिक की प्रधानता तथा पर्यायार्थिक की गौणता में प्रथम भंग सार्थक है और द्रव्यार्थिक की गौणता और पर्यायार्थिक की प्रधानता में द्वितीय भंग। यहाँ प्रधानता केवल शब्द प्रयोग की है, वस्तु तो सभी भंगों में पूरी ही ग्रहण की जाती है। जो शब्द से कहा नहीं गया है अर्थात् गम्य हुआ है वह यहाँ अप्रधान है। तृतीय भंग में युगपत् विवक्षा होने से दोनों ही अप्रधान हो जाते हैं क्योंकि दोनों को प्रधान भाव से कहने वाला कोई शब्द नहीं है। चौथे भंग में क्रमश: उभय प्रधान होते हैं।
४. विवक्षावश मुख्य व गौणता होती है
पं.का./ता.वृ./१८/३९/१८ द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनययो: परस्परगौणमुख्यभावव्याख्यानादेकदेवदत्तस्य जन्यजनकादिभाववत् एकस्यापि द्रव्यस्य नित्यानित्यत्वं घटते नास्ति विरोध इति।
पं.का./ता.वृ./१९/४१/१ स एव नित्य: स एवानित्य: कथं घटत इति चेत् । यथैकस्य देवदत्तस्य पुत्रविवक्षाकाले पितृविवक्षा गौणा पितृविवक्षाकाले पुत्रविवक्षा गौणा, तथैकस्य जीवस्य जीवद्रव्यस्य वा द्रव्यार्थिकनयेन नित्यत्वविवक्षाकाले पर्यायरूपेणानित्यत्वं गौणं पर्यायरूपेणानित्यत्वविवक्षाकाले द्रव्यरूपेण नित्यत्वं गौणं। कस्मात् विवक्षितो मुख्य इति वचनात् । = द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयों में परस्पर गौण और मुख्य भाव का व्याख्यान होने से एक ही देवदत्त के पुत्र व पिता के भाव की भाँति एक ही द्रव्य के नित्यत्व व अनित्यत्व ये दोनों घटित होते हैं इसमें कोई विरोध नहीं है। प्रश्न-वह ही नित्य और वही अनित्य यह कैसे घटित होता है? उत्तर-जिस प्रकार एक ही देवदत्त के पुत्रविवक्षा के समय पितृविवक्षा गौण होती है और पितृविवक्षा के समय पुत्रविवक्षा गौण होती है, उसी प्रकार एक ही जीव के वा जीव द्रव्य के द्रव्यार्थिक नय से नित्यत्व की विवक्षा के समय पर्यायरूप अनित्यत्व गौण होता है, और पर्यायरूप अनित्यत्व की विवक्षा के समय द्रव्यरूप नित्यत्व गौण होता है। क्योंकि 'विवक्षा मुख्य होती है' ऐसा वचन है।
पं.का./ता.वृ./१०६/१६९/२२ विवक्षितो मुख्य इति वचनात् । = 'विवक्षा मुख्य होती है' ऐसा वचन है।
५. गौण का अर्थ निषेध करना नहीं
स्व.स्तो./मू./२३ सत: कथंचित्तदसत्त्वशक्ति:-खे नास्ति पुष्पं तरुषु प्रसिद्धम् । = जो सत् है उसके कथंचित् असत्त्व शक्ति भी है-जैसे पुष्प वृक्षों पर तो अस्तित्व को लिये हुए है परन्तु आकाश पर उसका अस्तित्व नहीं है, आकाश की अपेक्षा वह असत् रूप है।
देखें - एकांत / ३ / ३ कोई एक धर्म विवक्षित होने पर अन्य धर्म विवक्षित नहीं होते।
स.भं.त./९/८ प्रथमभङ्गादावसत्त्वादीनां गुणभावमात्रं, न तु प्रतिषेध:। =प्रथम भङ्ग 'स्यादस्त्येव घट:' आदि से लेकर कई भंगों में जो असत्त्व आदि का भान होता है वह उनकी गौणता है न कि निषेध।
स्यात् व कथंचित् शब्द प्रयोग विधि
१. स्यात्कार का सम्यक् प्रयोग ही कार्यकारी है
प्र.सा./त.प्र./११५ सप्तभङ्गिकैवकारविश्रान्तमश्रान्तसमुच्चार्यमाणस्यात्कारामोघमन्त्रपदेन समस्तमपि विप्रतिषेधविषमोहमुदस्यति। = सप्तभंगी सतत सम्यक्तया उच्चारित करने पर स्यात्काररूपी अमोघ मन्त्र पद के द्वारा 'एव' कार में रहने वाले समस्त विरोध विष के मोह को दूर करती है।
२. व्यवहार नय के साथ ही स्यात्कार आवश्यक है निश्चय के साथ नहीं
न.च./श्रुत/३१-३६ स्याच्छब्दरहितत्वेऽपि न चास्य निश्चयाभासत्वमुपनयरहितत्वात् । कथमुपनयाभावे स्याच्छब्दस्याभाव इति चेत्, स्याच्छब्दप्रधानत्वेनोपनयो हि व्यवहारस्य जनकत्वात् । यदा तु निश्चयनयेनोपनय: प्रलयं नीयते तदा निश्चय एव प्रकाशते।...किमर्थं व्यवहारोऽसत्कल्पनानिवृत्त्यर्थं सद्रत्नत्रयसिध्यर्थं च। ...निश्चयं गृह्णन्नपि अन्ययोगव्यवछेदनं करोति।३१। (यथा) भेदेन अन्यत्रोपचारात् उपचारेण स्याच्छब्दमपेक्षते तथा व्यवहारेऽपि। सर्वथा भेदे तयोर्द्रव्याभाव:। अभेदे तु व्यवहारविलोप: तथोपचारेऽपि सकरादिदोषसंभवात् । अन्यथा कर्तृत्वादिकारकरूपाणामनुत्पत्तित: स्यादेवं व्यवहारविलोपापत्ति:।३६। = १. स्यात् पद से रहित होने पर भी इसके निश्चयाभासपना नहीं है। क्योंकि यह उपनय से रहित है। उपनय के अभाव से 'स्यात्' पद का अभाव किस तरह हो सकता है ? इस प्रकार कोई पूछे तो उत्तर यह है कि स्यात् पद की प्रधानता के द्वारा उपनय ही व्यवहार का जनक है। किन्तु जब निश्चय नय के द्वारा उपनय प्रलय को प्राप्त करा दिया जाता है तब निश्चय ही प्रकाशित होता है।...प्रश्न-यदि ऐसा है तो अर्थ का व्यवहार किसलिए होता है ? उत्तर-असत् कल्पना निवारण करने के लिए और सम्यग् रत्नत्रय की सिद्धि के लिए अर्थ का व्यवहार होता है।...निश्चय को ग्रहण करते हुए भी अन्य के मत का निषेध नहीं करता। २. अन्यत्र भेद के द्वारा उपचार होने से उपचार से स्यात् शब्द की अपेक्षा करता है। उसी प्रकार व्यवहार करने योग्य में भी सर्वथा भेद मानने पर उन दोनों के द्रव्यपने का अभाव होता है। इतना विशेष है कि सर्वदा अभेद मान लेने पर व्यवहार के मानने पर भी संकर वगैरह दोष सम्भव है। ऐसा न मानने पर कर्ता कारक वगैरह की उत्पत्ति नहीं होती है इस प्रकार व्यवहार लोप का प्रसंग आता है।
३. स्यात्कार का प्रयोग धर्मों में होता है गुणों में नहीं
स्या.म./२५/२९५ स्यान्निशि नित्यं सदृशं विरूपं वाच्यं न वाच्यं सदसत्तदेव। विपश्चितां नाथ निपीततत्त्वसुधोद्गतोद्गारपरम्परेयम् ।२५। = हे विद्वद्-शिरोमणि ! आपने अनेकान्त रूपी अमृत को पीकर प्रत्येक वस्तु को कथंचित् अनित्य, कथंचित् नित्य, कथंचित् सामान्य, कथंचित् विशेष, कथंचित् वाच्य, कथंचित् अवाच्य, कथंचित् सत् और कथंचित् असत् का प्रतिपादन किया है।२५। तथा इसी प्रकार सर्वत्र ही 'स्यात्कार' का प्रयोग धर्मों के साथ किया है, कहीं भी अनुजीवी गुणों के साथ नहीं किया गया है (देखें - सप्तभंगी )।
श्लो.वा.२/भाषा/१/६/५६/४९३/१३ स्याद्वाद प्रक्रिया आपेक्षिक धर्मों में प्रवर्तती है। अनुजीवी गुणों में नहीं।
४. स्यात्कार भाव में आवश्यक है शब्द में नहीं
यु.अनु./४४ तथा प्रतिज्ञाशयतोऽप्रयोग:...।४४। = स्यात् शब्द के प्रयोग की प्रतिज्ञा का अभिप्राय रहने से 'स्यात्' शब्द का अप्रयोग देखा जाता है।
क.पा.१/१,१३-१४/२७२/३०८/५ दव्वम्मि अवुत्तासेसधम्माण घडावणट्ठं सियासद्दो जोजेयव्वो। सुत्ते किमिदि ण पउत्तो। ण; तहापइं-जासयस्स पओआभावे वि सदत्थावगमो अत्थि त्ति दोसाभावादो। उत्तं च-तथाप्रतिज्ञाशयतोऽप्रयोग:।१२६। = द्रव्य में अनुक्त समस्त धर्मों के घटित करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। प्रश्न-'रसकसाओ' इत्यादि सूत्र में स्यात् शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया है। उत्तर-नहीं, क्योंकि स्यात् शब्द के प्रयोग का अभिप्राय रखने वाला वक्ता यदि स्यात् शब्द का प्रयोग न भी करे तो भी उसके अर्थ का ज्ञान हो जाता है अतएव स्यात् शब्द का प्रयोग नहीं करने पर भी कोई दोष नहीं है, कहा भी है-स्यात् शब्द के प्रयोग की प्रतिज्ञा का अभिप्राय रखने से 'स्यात्' शब्द का अप्रयोग देखा जाता है।
ध.९/४,१,४५/१८३/९ चैतेषु सप्तस्वपि वाक्येषु स्याच्छब्दप्रयोगनियम:, तथा प्रतिज्ञाशयादप्रयोगोपलम्भात् । = सातों ही वाक्यों में (सप्तभंगी सम्बन्धी) 'स्यात्' शब्द के प्रयोग का नियम नहीं है, क्योंकि वैसी प्रतिज्ञा का आशय होने से अप्रयोग पाया जाता है।
देखें - स्याद्वाद / ४ / २ स्याद् पद से रहित होने पर भी निश्चय नय के निश्चयाभासपना नहीं है क्योंकि यह उपनय से रहित है।
श्लो.वा.२/१/६/श्लो.५६/४५७ सोऽप्रयुक्तोऽपि वा तज्ज्ञै: सर्वत्रार्थात्प्रतीयते। तथैवकारो योगादिव्यवच्छेदप्रयोजन:।५६। = स्यात् शब्द प्रत्येक वाक्य या पद में नहीं बोला गया भी सभी स्थलों पर स्याद्वाद को जानने वाले पुरुषों करके प्रकरण आदि की सामर्थ्य से प्रतीत कर लिया जाता है। जैसे कि अयोग अन्ययोग और अत्यन्तायोग का व्यवच्छेद करना है प्रयोजन जिसका ऐसा एवकार बिना कहे भी प्रकरणवश समझ लिया जाता है। (स्या.म./२३/२७९/९), (स.भं.त.३१/२ पर उद्धृत)।
५. कथंचित् शब्द के प्रयोग
स्व.स्तो./मू./४२ तदेव च स्यान्न तदेव च स्यात् तथा प्रतीतेस्तव तत्कथंचित् । नात्यन्तमन्यत्वमनन्यता च विधेर्निषेधस्य च शून्यदोषात् ।४२। = आपका वह तत्त्व कथंचित् तद्रूप (सद्रूप) है और कथंचित् तद्रूप नहीं है, क्योंकि वैसी ही सत्-असत् रूप की प्रतीति होती है। स्वरूपादि-चतुष्टय रूप विधि और पररूपादि चतुष्टय रूप निषेध के परस्पर में अत्यन्त भिन्नता तथा अभिन्नता नहीं है क्योंकि सर्वथा ऐसा मानने पर शून्य दोष आता है।४२।
रा.वा./२/८/१८/१२२/१५ सर्वस्य वागर्थस्य विधिप्रतिषेधात्मकत्वात्, न हि किंचिद्वस्तु सर्वनिषेधगम्यमस्ति। अस्ति त्वेतत् उभयात्मकम्, यथा कुरवका रक्तश्वेतव्युदासेऽपि नावर्णा भवन्ति नापि रक्ता एव श्वेता एव वा प्रतिषिद्धत्वात् । एवं वस्त्वपि परात्मना नास्तीति प्रतिषेधेऽपि स्वात्मना अस्तीति सिद्ध:। तथा चोक्तम्-अरितत्वमुपलब्धिश्च कथंचिदसत: स्मृते:। नास्तितानुपलब्धिश्च कथंचित्सत एव ते।१। सर्वथैव सतो नेमौ धर्मौ सर्वात्मदोषत:। सर्वथैवासतो नेमौ वाचां गोचरताप्रत्ययात् ।२। = जितने भी पदार्थ शब्दगोचर हैं वे सब विधि-निषेधात्मक हैं। कोई भी वस्तु सर्वथा निषेध गम्य नहीं होती। जैसे कुरवक पुष्प लाल और सफेद दोनों रंगों का होता है। न केवल रक्त ही होता है, न केवल श्वेत ही होता है और न ही वह वर्ण शून्य है। इस तरह पर की अपेक्षा से वस्तु में नास्तित्व होने पर भी स्व दृष्टि से उसका अस्तित्व प्रसिद्ध ही है। कहा भी है-
कथंचित् असत् की भी उपलब्धि और अस्तित्व है और कथंचित् सत् की भी अनुपलब्धि और नास्तित्व। यदि सर्वथा अस्तित्व और उपलब्धि मानी जाये तो घट की पटादि रूप से भी उपलब्धि होने से सभी पदार्थ सर्वात्मक हो जायेंगे और यदि पर की तरह स्व रूप से भी असत्त्व माना जाये तो पदार्थ का ही अभाव हो जायेगा और वह शब्द का विषय न हो सकेगा।
प्र.सा./त.प्र./३५,१०६ सर्वेऽर्था ज्ञानवर्तिन एव कथंचिद् भवन्ति।३५। अतएव च सत्ताद्रव्ययो: कथंचिदनर्थान्तरत्वेऽपि सर्वथैकत्वं न शङ्कनीयम् । = १. समस्त पदार्थ कथंचित् ज्ञानवर्ती ही हैं। २. यद्यपि सत्ता द्रव्य के कथंचित् अनर्थान्तरत्व है तथा उनके सर्वथा एकत्व होगा ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए।
स.सा./आ./३३१/क.२०४ कर्मैव प्रवितर्क्यकर्तृहतकै: क्षिप्त्वात्मन: कर्तृताम् । कर्तात्मैष कथंचिदित्यचलिता कैश्चिछ्रुति: कोपिता। = कोई आत्म घातक कर्म को ही कर्ता विचार कर आत्मा के कर्तृत्व को उड़ाकर, यह आत्मा कथंचित् कर्ता है' ऐसी कहने वाली अचलित श्रुति को कोपित करते हैं।
प्र.सा./ता.वृ./२७/३७/९ यदि पुनरेकान्तेन ज्ञानमात्मेति भण्यते तदा ज्ञानगुणमात्र एवात्मा प्राप्त: सुखादिधर्माणामवकाशो नास्ति।...तस्मात्कथंचिज्ज्ञानमात्मा च सर्वथेति। = यदि एकान्त से ज्ञान को ही आत्मा कहते हैं तो तब ज्ञान गुण मात्र ही आत्मा प्राप्त होती है सुखादि धर्मों को अवकाश नहीं है। ...इसलिए कथंचित् ज्ञानमात्र आत्मा है सर्वथा नहीं।
पं.ध./पू./९१ द्रव्यं तत: कथंचित्केनचिदुत्पद्यते हि भावेन। व्येति तदन्येन पुनर्नैतद्द्वितयं हि वस्तुतया।९१। = निश्चय से द्रव्य कथंचित् किसी अवस्था रूप से उत्पन्न होता है और किसी अन्य अवस्था से नष्ट होता है किन्तु परमार्थ से निश्चय करके ये दोनों ही नहीं हैं।
स्यात्कार का कारण व प्रयोजन
१. स्यात्कार प्रयोग का प्रयोजन एकान्त निषेध
आप्त.मी./१०३-१०४ वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्यं प्रति विशेषणम् । स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात् तव केवलिनामपि।१०३। स्याद्वाद: सर्वथैकान्तत्यागात्किं चिद्विधि:। सप्तभङ्गनयापेक्षो हेयादेयविशेषक:।१०४। = स्यात् ऐसा शब्द है यह निपात या अव्यय है। वाक्यों में प्रयुक्त यह शब्द अनेकान्त द्योतक वस्तु के स्वरूप का विशेषण है।१०३। स्याद्वाद अर्थात् सर्वथा एकान्त का त्याग होने से किंचित् ऐसा अर्थ बताने वाला है। सप्त भंगरूप नय की अपेक्षा वाला तथा हेय व उपादेय का भेद करने वाला है।१०४।
रा.वा./४/४२/१७/२६०/२९ ननु च सामान्यार्थाविच्छेदेन विशेषणविशेष्यसंबन्धावद्योतनार्थे एवकारे सति तदवधारणादितरेषां निवृत्ति: प्राप्नोति। नैष दोष:; अत्राप्यत एव स्याच्छब्दप्रयोग: कर्तव्य: 'स्यादस्त्येव जीव:' इत्यादि। कोऽर्थ:। एवकारेणेतरनिवृत्तिप्रसङ्गे स्वात्मलोपात् सकलो लोपो मा विज्ञायीति वस्तुनि यथावस्थितं विवक्षितधर्मस्वरूपं तथैव द्योतयति स्याच्छब्द:। 'विवक्षितार्थवागङ्गम्' इति वचनात् । = प्रश्न-जब आप विशेषणविशेष्य के नियमन को एवकार देते हो तब अर्थात् ही इतर की निवृत्ति हो जाती है ? उदासीनता कहाँ रही ? उत्तर-इसलिए शेष धर्मों के सद्भाव को द्योतन करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है। एवकार से जब इतर निवृत्ति का प्रसंग प्रस्तुत होता है तो सकल लोप न हो जाय इसलिए 'स्याद्' शब्द विवक्षित धर्म के साथ ही साथ अन्य धर्मों के सद्भाव की सूचना दे देता है।
देखें - स्यात् / १ स्यात् शब्द अनेकान्त का द्योतक होता है।
देखें - स्याद्वाद / १ / १ नियम का निषेध करना तथा सापेक्षता की सिद्धि करना स्याद्वाद का प्रयोजन है।
श्लो.वा.२/१/६/५४/४५४/४ तत्त्वतोऽस्तित्वादीनामेकत्र वस्तुन्येवमभेदवृत्तेरसंभवे कालादिभिर्भिन्नात्मनामभेदोपचार: क्रियते। तदेवाभ्यामभेदवृत्त्यभेदोपचाराभ्यामेकेन शब्देनैकस्य जीवादिवस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकस्योपात्तस्य स्यात्कारो द्योतक: समवतिष्ठते।
श्लो.वा.२/१/६/५५/४५ स्याच्छब्दादप्यनेकान्तसामान्यस्यावबोधने।...।५५। = १. जबकि वास्तविक रूप से अस्तित्व, नास्तित्व आदि धर्मों की एक वस्तु में इस प्रकार अभेद वृत्ति का होना असम्भव है तो अब काल, आत्मरूप आदि करके भिन्न-भिन्न स्वरूप हो रहे धर्मों का अभेद रूप से उपचार किया जाता है। तिस कारण इन अभेद वृत्ति और अभेदोपचार से एक शब्द करके ग्रहण किये गये अनन्तधर्मात्मक एक जीव आदि वस्तु का कथन किया गया है। उन अनेक धर्मों का द्योतक स्यात्कार निपात भले प्रकार व्यवस्थित हो रहा है। २. स्यात् शब्द से भी सामान्य रूप से अनेक धर्मों का द्योतन होकर ज्ञान हो जाता है।५५।
ध.१२/४,२,९,२/२९५/१० सिया सद्दा दोण्णि-एक्को किरियाए वाययो, अवरो णइवादियो। ...सव्वहाणियमपरिहारेण सो सव्वत्थ परूवओ, पमाणाणुसारित्तादो। = स्यात् शब्द दो हैं-एक क्रियावाचक व दूसरा अनेकान्तवाचक।...उक्त स्यात् शब्द 'सर्वथा' नियम को छोड़कर सर्वत्र अर्थ की प्ररूपणा करने वाला है, क्योंकि वह प्रमाण का अनुसरण करता है।
न.च.वृ./२५१ पर उद्धृत-सिद्धमन्तो यथा लोके एकोऽनेकार्थदायक:। स्याच्छब्दोऽपि तथा ज्ञेय एकोऽनेकार्थसाधक:। = जिस प्रकार लोक में सिद्ध किया गया मन्त्र एक व अनेक पदार्थों को देने वाला होता है, उसी प्रकार 'स्यात्' शब्द को एक तथा अनेक अर्थों का साधक जानना चाहिए।
न.च.श्रुत./६५ स्याच्छब्देन किं। यथा द्रव्यरूपेण नित्यत्वतथापर्यायरूपेण नित्यत्व मा भूदिति स्याच्छब्द:, स्यादस्ति स्यादनित्यइति। अनित्यत्व इति पर्यायरूपेणेव कुर्यात् ।...तर्हि स्याच्छब्देन किं यथा सद्भूतव्यवहारेण भेदस्तथा द्रव्यार्थिकेनापि माभूदिति स्याच्छब्द:। =प्रश्न-स्यात् शब्द से यहाँ क्या प्रयोजन है ? उत्तर-जिस प्रकार द्रव्य रूप से नित्य है, उसी प्रकार पर्याय रूप से नित्य न हो यह स्यात् शब्द का प्रयोजन है। स्यात् शब्द स्यादस्ति स्यादनित्य इस प्रकार से होता है। अनित्यता पर्याय रूप से समझना चाहिए।...=प्रश्न-यहाँ स्यात् शब्द से क्या प्रयोजन है ? उत्तर-जिस प्रकार सद्भूत व्यवहार नय से भेद है, उसी प्रकार द्रव्यार्थिक नय से भेद न हो, यह स्यात् पद का यहाँ प्रयोजन है।
पं.का./त.प्र./१४ अत्र सर्वथात्वनिषेधकोऽनेकान्तद्योतक: कथंचिदर्थे स्याच्छब्दो निपात:। = यहाँ (सप्तभंगी में) सर्वथापने का निषेधक, अनेकान्त का द्योतक 'स्यात्' शब्द कथंचित् ऐसे अर्थ में अव्यय रूप से प्रयुक्त हुआ है। (स.भं.त./३०/१०)।
२. स्यात्कार प्रयोग के अन्य प्रयोजन
स्व.स्तो./मू.४४ अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं, वृक्षा इति प्रत्ययवत्प्रकृत्या। आकाङ्क्षिण: स्यादिति वै निपातो गुणानपेक्षे नियमेऽपवाद:।४४। =पद (शब्द) का वाच्य प्रकृति से एक और अनेक दोनों रूप है। 'वृक्षा:' इस पद ज्ञान की तरह। अनेकान्तात्मक वस्तु के अस्तित्वादि किसी एक धर्म का प्रतिपादन करने पर उस समय गौणभूत नास्तित्वादि दूसरे धर्म के प्रतिपादन में जिसकी आकांक्षा है, ऐसी आकांक्षा (स्याद्वादी) का स्यात् यह निपात गौण की अपेक्षा न रखने वाले नियम में निश्चय रूप से बाधक होता है।४४।
न.च.श्रुत./६५ यथा स्वरूपेणास्तित्वं तथा पररूपेणाप्यस्तित्वं माभूदिति स्याच्छब्द:। ...यथा द्रव्यरूपेण नित्यत्वं तथा पर्यायरूपेणैव नित्यत्वं माभूदिति स्याच्छब्द:। = जिस प्रकार स्वस्वरूप से है उसी प्रकार परस्वरूप से भी है, इसी प्रकार की आपत्ति का निवारण करना स्यात् शब्द का प्रयोजन है।...जिस प्रकार द्रव्य रूप से नित्य है उसी प्रकार पर्याय रूप से नित्य न हो यह स्यात् शब्द का प्रयोजन है।
स्या.म./१९/२५४/३ यथावस्थितपदार्थप्रतिपादनोपयिकं नान्यदिति ज्ञापनार्थम् । अनन्तधर्मात्मकस्य सर्वस्य वस्तुन: सर्वनयात्मकेन स्याद्वादेन विना यथावद्गृहीतुमशक्यत्वात् । = यथावस्थित पदार्थ का प्रतिपादन करने का अन्य कोई उपाय नहीं है। ...क्योंकि प्रत्येक वस्तु में अनन्तस्वभाव हैं, अतएव सम्पूर्ण नय स्वरूप स्याद्वाद के बिना किसी भी वस्तु का ठीक-ठीक प्रतिपादन नहीं किया जा सकता।
३. सप्तभंगी में 'स्यात्' शब्द प्रयोग का फल
क.पा.१/१,१३-१४/२७३/३०८/८ सिया कसाओ, सियाओ एत्थतणसियासद्दो [णोकसायं] कसायं कसायणोकसायविसय अत्थपज्जाए च दव्वम्मि घडावेइ। सिया अवत्तव्वं 'कसायणोकसायविसयअत्थपज्जाय सरूवेण, एत्थतण-सिया-सद्दो कषायणोकसायविसयवंजणपज्जाए ढोएइ। 'सिया कसाओ च णोकसाओ च' एत्थतण-सियासद्दो कसाय णोकसायविसयअत्थपज्जाए दव्वेण सह ढोएइ। 'सिया कसाओ च अवत्तव्वओ च' एत्थतण सियासद्दो णोकसायत्तं घडावेइ।' सिया णोकसाओ च अवत्तव्वओ च' एत्थतणसियासद्दो कसायत्तं घडावेइ। 'सिया कसाओ च णोकसाओ च अवत्तव्वओ च' एत्थतणसियासद्दो कषायणोकषाय-अवत्तव्वधम्माणं तिण्हं पि कमेण भण्णमाणाणं दव्वम्मि अक्कमउत्तिं सूचेदि। = १. द्रव्य स्यात् कषाय रूप है, (यहाँ कषाय का प्रकरण है) २. द्रव्य स्यात् अकषाय रूप है। इन दोनों भंगों में विद्यमान स्यात् शब्द क्रम से नोकषाय और कषाय को तथा कषाय और नोकषाय विषयक अर्थपर्यायों को द्रव्य में घटित करता है। ३. कषाय और नोकषाय विषयक अर्थ पर्याय रूप से द्रव्य स्यात् अवक्तव्य है। इस भंग में विद्यमान स्यात् शब्द कषाय और नोकषाय विषयक व्यञ्जन पर्यायों को द्रव्य में घटित करता है। ४. द्रव्य स्यात् कषाय रूप और अकषाय रूप है। इस चौथे भंग में विद्यमान स्यात् शब्द कषाय और नोकषाय विषयक अर्थ पर्यायों में घटित करता है। ५. द्रव्य स्यात् कषाय रूप और अवक्तव्य है। इस पाँचवें भंग में विद्यमान स्यात् शब्द द्रव्य में नोकषायपने को घटित करता है। ६. द्रव्य स्यात् अकषाय रूप और अवक्तव्य है। इस छठे भंग में विद्यमान स्यात् शब्द द्रव्य में कषायपने को घटित करता है। ७. द्रव्य स्यात् कषाय रूप, अकषाय रूप, और अवक्तव्य है। इस सातवें भंग में विद्यमान स्यात् शब्द क्रम से कहे जाने वाले कषाय, नोकषाय और अवक्तव्य रूप तीनों धर्मों की द्रव्य में अक्रम वृत्ति को सूचित करता है।
४. एवकार व स्यात्कार का समन्वय
श्लो.वा.२/१/६/श्लो.५३-५४/४३१,४४८ वाक्येऽवधारणं तावदनिष्टार्थनिवृत्तये। कर्तव्यमन्यथानुक्तसमत्वात्तस्य कुत्रचित् ।५३। सर्वथा तत्प्रयोगेऽपि सत्त्वादिप्राप्तिविच्छिदे। स्यात्कार: संप्रयुज्येतानेकान्तद्योतकत्वत:।५४। = वाक्य में एवकार ही ऐसा जो नियम किया जाता है, वह तो अवश्य अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति के लिए करना ही चाहिए। अन्यथा कहीं-कहीं वह वाक्य नहीं कहा गया सरीखा समझा जाता है।५३। उस एवकार के प्रयोग करने पर भी सभी प्रकार से सत्त्व आदि की प्राप्ति का विच्छेद करने के लिए वाक्य में स्यात्कार शब्द का प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि वह स्यात् शब्द अनेकान्त का द्योतक है।५४।
क.पा./१/१,१३-१४/२७१-२७२/३०६/६ सुत्तेण अउत्तो सियासद्दो कथमेत्थ उच्चदे। ण; सियासद्दपओएण विणा सव्वपओआणं अउत्ततुल्लत्तप्पसंगादो। ते जहा, कसायसद्दो पडिवक्खत्थं सगत्थादो ओसारिय सगत्थं चेव भणदि पईवो व्व दुस्सहावत्तादो। अत्रोपयोगिनौ श्लोकौ-अन्तर्भूतैवकारार्था: गिर: सर्वा: स्वभावत:। एक्कारप्रयोगोऽयमिष्टतो नियमाय स:।१२३। निरस्यन्ती परस्यार्थं स्वार्थं कथयति श्रुति:। तमो विधुन्वती भास्यं यथा भासयति प्रभा।१२४। एवं चेव होदु चे; ण; एक्कम्मि चेव माहुलिंगफले तित्त-कडुवंबिलमधुर-रसाणं रूव-गंध-फास संठाणाईणमभावप्पसंगादो। एदं पि होउ चे; ण; दव्वलक्खणाभावेण दव्वस्स अभावप्पसंगादो। = प्रश्न-'स्यात्' शब्द सूत्र में नहीं कहा है फिर यहाँ क्यों कहा है ? उत्तर-क्योंकि यदि 'स्यात्' शब्द का प्रयोग न किया जाय तो सभी वचनों के व्यवहार को अनुक्त तुल्यत्व का प्रसंग प्राप्त होता है। जैसे-यदि कषाय शब्द के साथ स्यात् शब्द का प्रयोग न किया जाय तो वह कषाय शब्द अपने वाच्यभूत अर्थ से प्रतिपक्षी अर्थों का निराकरण करके अपने अर्थ को ही कहेगा, क्योंकि वह दीपक की तरह दो स्वभाव वाला है (अर्थात् स्वप्रकाशक व प्रतिपक्षी अन्धकार विनाशक स्वभाव वाला) इस विषय में दो उपयोगी श्लोक दिये जाते हैं।-जितने भी शब्द हैं उनमें स्वभाव से ही एवकार का अर्थ छिपा हुआ रहता है, इसलिए जहाँ भी एवकार का प्रयोग किया जाता है वहाँ वह इष्ट के अवधारण के लिए किया जाता है।१२३। जिस प्रकार प्रभा अन्धकार का नाश करती है उसी प्रकार शब्द दूसरे के अर्थ का निराकरण करता है और अपने अर्थ को कहता है।१२४। (तात्पर्य यह है कि 'स्यात्' शब्द से रहित केवल कषाय शब्द का प्रयोग करने पर उसका वाच्य भूत द्रव्य केवल कषाय रसवाला ही फलित होता है) प्रश्न-ऐसा होता है तो होओ ? उत्तर-नहीं क्योंकि ऐसा मान लिया जाये तो एक ही बिजौरे के फल में पाये जाने वाले कषाय रस के प्रतिपक्षी तीते, कडुए, खट्टे औ मीठे रस के अभाव का तथा रूप, गन्ध, स्पर्श और आकार आदि के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है ? प्रश्न-होता है तो होओ ? उत्तर-नहीं, क्योंकि वस्तु में विवक्षित स्वभाव को छोड़कर शेष स्वभावों का अभाव मानने पर द्रव्य के लक्षण का अभाव हो जाता है। उसके अभाव हो जाने से द्रव्य के भी अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है।
स्या.म./२३/२७९/५ वाक्येऽवधारणं तावदनिष्टार्थनिवृत्तये। कर्तव्यमन्यथानुक्तसमत्वात् तस्य कुत्रचित् । प्रतिनियतस्वरूपानुपपत्ति: स्यात् । तत्प्रतिपत्तये स्याद् इति शब्दप्रयुज्यते। = किसी वाक्य में 'एव' का प्रयोग अनिष्ट अभिप्राय के निराकरण के लिए किया जाता है, अन्यथा अविवक्षित अर्थ स्वीकार करना पड़े। ...वस्तु स्वचतुष्टय की अपेक्षा ही कथंचित् अस्ति रूप है, परचतुष्टय की अपेक्षा नहीं, इसी भाव को स्पष्ट करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया गया है।