शौच
From जैनकोष
१. शौच सामान्य का लक्षण
स.सि./६/१३/३३१/४ लोभप्रकाराणामुपरम: शौचम् । =लोभ के प्रकारों का त्याग करना शौच है। (रा.वा./९/६/१०/५२३/४)।
२. शौच धर्म का लक्षण
बा.अ./७५ कंखाभावणिवित्तिं किच्चा वेरग्गभावणाजुत्तो। जो वट्टदि परममुणी तस्स दु धम्मो हवे सौचं।७५। =जो परममुनि इच्छाओं को रोककर और वैराग्य रूप विचारों से युक्त होकर आचरण करता है उसको शौच धर्म होता है।
स.सि./९/४/४१२/६ प्रकर्षप्राप्तलोभान्निवृत्ति: शौचम् । =प्रकर्ष प्राप्त लोभ का त्याग करना शौच धर्म है। (रा.वा./९/६/५/५९५/२८), (चा.सा./६२/४)।
भ.आ./वि./४६/१५४/१४ द्रव्येषु ममेदं भावमूलो व्यसनोपनिपात: सकल इति तत: परित्यागो लाघवं। =धनादि वस्तुओं में ये मेरे हैं ऐसी अभिलाष बुद्धि ही सर्व संकटों से मनुष्य को गिराती है इस ममत्व को हृदय से दूर करना ही लाघव अर्थात् शौचधर्म है।
त.सा./५/१६-१७ परिभोगोपभोगत्वं जीवितेन्द्रियभेदत:।१६। चतुर्विधस्य लोभस्य निवृत्ति: शौचमुच्यते।१७। =भोग व उपभोग का, जीने का, इन्द्रियविषयों का; इन चारों प्रकार के लोभ के त्याग का नाम शौचधर्म है।
का.अ./मू./३९७ सम-संतोस-जलेणं जो धोवदि तिव्व-लोह मल पुंजं। भोयण-गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्चं हवे विमलं।३९७। =जो समभाव और सन्तोष रूपी जल से तृष्णा और लोभ रूपी मल के समूह को धोता है, तथा भोजन की गृद्धि नहीं करता उसके निर्मल शौच धर्म होता है।
पं.वि./१/६४ यत्परदारार्थादिषु जन्तुषु नि:स्पृहमहिंसकं चेत:। दुश्छेदयन्तर्मलहृत्तदेव शौचं परं नान्यत् ।९३। =चित्त जो परस्त्री एवं परधन की अभिलाषा न करता हुआ षट्काय जीवों की हिंसा से रहित होता है, इसे ही दुर्भेद्य अभ्यन्तर कलुषता को दूर करने वाला उत्तम शौचधर्म कहा जाता है, इससे भिन्न दूसरा शौचधर्म नहीं है।९४।
३. गंगादि में स्नान करने से शौचधर्म नहीं
पं.वि./१/९५ गङ्गासागरपुष्करादिषु सदा तीर्थेषु सर्वेष्वपि स्नातस्यापि न जायते तनुभृत: प्रायो विशुद्धि: परा। मिथ्यात्वादिमलीमसं यदि मनो बाह्येऽतिशुद्धोदकैर्धौत: किं बहुशोऽपि शुद्धयति सुरापूरप्रपूर्णो घट:।९५। =यदि प्राणी का मन मिथ्यात्वादि दोषों से मलिन हो रहा है तो गंगा, समुद्र एवं पुष्कर आदि सभी तीर्थों में सदा स्नान करने पर भी प्राय: करके वह अतिशय विशुद्ध नहीं हो सकता (ठीक भी है - मद्य के प्रवाह से परिपूर्ण घट को यदि बाह्य में अतिशय विशुद्ध जल में बहुत बार धोया जावे तो भी क्या वह शुद्ध हो सकता है। अर्थात् नहीं।९५।
४. शौचधर्म के चार भेद
रा.वा./९/६/८/५९६/५ अतस्तन्निवृत्तिलक्षणं शौचं चतुर्विधमवसेयम् । =(जीवन लोभ, इन्द्रियलोभ, आरोग्य लोभ व उपयोग लोभ के भेद से लोभ चार प्रकार है - देखें - लोभ ) इस चार प्रकार के लोभ का त्याग करने से शौच भी चार प्रकार का हो जाता है (चा.सा./६३/२)।
५. शौच व त्याग धर्म में अन्तर
रा.वा./९/६/२०/५९८/१० शौचवचनात् (त्यागस्य) सिद्धिरिति चेत्; न तत्रासत्यपि गर्द्धोपपत्ते:।२०। असंनिहिते परिग्रहे कर्मोदयवशात् गर्द्ध उत्पद्यते, तन्निवृत्त्यर्थं शौचमुक्तम् । त्याग: पुन: सनिहितस्यापाय: दानं वा स्वयोग्यम्, अथवा संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्याग इत्युच्यते।=प्रश्न - शौच वचन से ही त्याग धर्म की सिद्धि हो जाती है, अत: त्याग धर्म का पृथक् निर्देश व्यर्थ है। उत्तर - नहीं क्योंकि शौचधर्म में परिग्रह के न रहने पर भी कर्मोदय से होने वाली तृष्णा की निवृत्ति की जाती है पर त्याग में विद्यमान परिग्रह छोड़ा जाता है। अथवा त्याग का अर्थ स्व योग्य दान देना है। संयत के योग्य ज्ञानादि दान देना त्याग है।
६. शौच व आकिंचन्य धर्म में अन्तर
रा.वा./९/६/७/५९६/१ स्यादेतत्-आकिंचन्यं वक्ष्यते, तत्रास्यावरोधात् शौचग्रहणं पुनरुक्तमिति; तन्न; किं कारणम् । तस्य नैर्मम्यप्रधानत्वात् । स्वशरीरादिषु संस्कारद्यपोहार्थमाकिञ्चन्यमिष्यते। =प्रश्न - आगे आकिंचन्य धर्म का कथन करेंगे, उसी से इसका अर्थ भी घेर लिया जाने से शौच धर्म का ग्रहण पुनरुक्त है। उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि आकिंचन्यधर्म स्वशरीर आदि में संस्कार आदि की अभिलाषा दूर करके निर्ममत्व बढ़ाने के लिए है और शौच धर्म लोभ की निवृत्ति के लिए अत: दोनों पृथक् हैं।
७. शौचधर्म पालनार्थ विशेष भावनाएँ
भ.आ./मू./१४३६-१४३८/१३५९ लोभे कए वि अत्थोण होइ पुरिसस्स अपडिभोगस्स। अकएवि हवदि लोभे अत्थो पडिभोगवंतस्स।१४३६। सव्वे वि जए अत्था परिगहिदा ते अणंतखुत्तो मे। अत्थेसु इत्थ कोमज्झ विंभओ गहिदविजडेसु।१४३७। इह य परत्तए लोए दोसे बहुए य आवहइ लोभो। इदि अप्पणो गणित्ता णिज्जेदव्वो हवदि लोभो।१४३८। =लोभ करने पर भी पुण्य रहित मनुष्य को द्रव्य मिलता नहीं है और न करने पर भी पुण्यवान को धन की प्राप्ति होती है। इसलिए धन प्राप्ति में आसक्ति कारण नहीं, परन्तु पुण्य ही कारण है ऐसा विचार कर लोभ का त्याग करना चाहिए।१४३६। इस त्रैलोक्य में मैंने अनन्तबार धन प्राप्त किया है, अत: अनन्तबार ग्रहणकर त्यागे हुए इस धन के विषय में आश्चर्य चकित होना फजूल है।१४३७। इहपर लोक में यह लोभ अनेकों दोषों को उत्पन्न करता है ऐसा समझकर लोभ कषाय पर विजय प्राप्त करना चाहिए।
रा.वा./९/६/२७/५९९/१६ शुच्याचारमिहापि सन्मानयन्ति सर्वे। विश्रम्भादयश्च गुणा: तमधितिष्ठन्ति। लोभभावनाक्रान्तहृदये नावकाशं लभन्ते गुणा:; इह चामुत्र चाचिन्त्यं व्यसनमावश्नुते। =शुचि आचार वाले निर्लोभ व्यक्ति का इस लोक में सन्मान होता है। विश्वास आदि गुण उसमें रहते हैं। लोभी के हृदय में गुण नहीं रहते। वह इस लोक और परलोक में अनेक आपत्तिओं और दुर्गति को प्राप्त होता है। (अन.ध./६/२७)
ज्ञा./१९/६९-७१ शाकेनापीच्छया जातु न भर्तुमुदरं क्षमा:। लोभात्तथापि वाञ्छन्ति नराश्चक्रेश्वरश्रियम् ।६९। स्वामिगुरुबन्धुवृद्धानबलाबालांश्च जीर्णदीनादीन् । व्यापाद्य विगतशङ्को लोभार्तो वित्तमादत्ते।७०। ये केचित्सिद्धान्ते दोषा: श्वभ्रस्य साधका: प्रोक्ता:। प्रभवन्ति निर्विचारं ते लोभादेव जन्तूनाम् ।७१। =अनेक मनुष्य यद्यपि अपनी इच्छा से शाक से पेट भरने को कभी समर्थ नहीं होते तथापि लोभ के वश से चक्रवर्ती की सी सम्पदा को वाँछते हैं।६९। इस लोभकषाय से पीड़ित हुआ पुरुष अपने मालिक, गुरु, बन्धु, स्त्री, बालक तथा क्षीण, दुर्बल, अनाथ, दीनादि को भी नि:शंकता से मारकर धन को ग्रहण करता है।७०। नरक को ले जाने वाले जो जो दोष सिद्धान्त शास्त्र में कहे गये हैं वे सब जीवों के नि:शंकतया लोभ से प्रगट होते हैं।७१। (अन.ध./६/२४-२६,३१)।
* अन्य सम्बन्धित विषय
- शौचधर्म व मनोगुप्ति में अन्तर। - देखें - गुप्ति / २ / ५ ।
- दशधर्म निर्देश। - देखें - धर्म / ८ ।