असंख्यात
From जैनकोष
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या २/३८/१९२/६ संख्यातीतोऽसंख्येयः।
= संख्यातीतको असंख्येय कहते हैं।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या २/३८/२/१४७/३१)
• संख्यात असंख्यात व अनन्तमें अन्तर - दे. अनन्त/२।
२. असंख्यातके भेद
धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,१५/१२३-१२६ संक्षेपार्थ। नाम, स्थापना, द्रव्य, शाश्वत, गणना, अप्रादेशिक, एक, उभय, विस्तार, सर्व और भाव इस प्रकार असंख्यात ग्यारह प्रकारका है। (नाम स्थापना द्रव्य व भाव असंख्यातों के उत्तर भेद निक्षेपों वत् जानना) गणना संख्यात् तीन प्रकार है परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और संख्यातासंख्यात। ये तीनों भी प्रत्येक उत्कृष्ट मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन तीन प्रकारके हैं।
(तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/३१० की व्याख्या) ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३८/५/२०६/३०)
• नाम स्थापना द्रव्य व भाव - दे. निक्षेप
३. शाश्वतासंख्यात
धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,१५/१२४ धम्मत्थियं अधम्मत्थियं दव्वपदेसगणण पडुुच्च एगसरूवेण अवट्ठिदमिदि कट्टु सस्सदासं खेज्जं।
= धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्यरूप प्रदेशोंकी गणना के प्रति सर्वदा एक रूपसे अवस्थित हैं. इसलिए वे दोनों द्रव्य शाश्वतासंख्यात हैं।
४. अप्रदेशोसंख्यात
धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,१५/१२४/९ जं तं अपदेशासंखेज्जयं तं जोगविभागे पलिच्छेदे पडुच्च एगो जीवपदेसो। अधवा सुण्णेयं भंगो, असंखेज्जपज्जायाणमाहारभूद-अप्पएसएगदव्वाभावादो।
= योग विभागमें जो अविभास प्रतिच्छेद बतलाये हैं, उनकी अपेक्षा जीवका एक प्रदेश प्रदेशासंख्यात है अथवा असंख्यातमें उसका यह भेद शून्य रूप है. क्योंकि, असंख्यात पर्यायों के आधारभूत अप्रदेशी एक द्रव्यका अभाव है। कुछ आत्माका एक प्रदेश द्रव्य तो हो नहीं सकता. क्योकि, एक प्रदेश जीव द्रव्यका अवयव है। पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर जीवका एक प्रदेश भी द्रव्य है, क्योंकि, अवयवोंसे भिन्न समुदाय नहीं पाया जाता है।
५. एकासंख्यात
धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,१५/१२५/३ जं तं एयासंखेज्जयं तं लोयायासस्स एकदिसा। कुदो। सेढिआगारेण लोयस्स एगदिसं पेक्खमाणे पदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो।
= लोकाकाशको एक दिशा अर्थात् एक दिशास्थित प्रदेशपंक्ति एकासंख्यात है, क्योंकि, आकाश प्रदेशोंकी श्रेणी रूपसे लोकाकाशकी एक दिशा देखनेपर प्रदेशोंकी गणनाकी अपेक्षा उसकी गणना नहीं हो सकती।
६. उभयासंख्यात
धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,१५/१२५/४ जं तं उभयासंखेज्जयं तं लोयायासस्स उभयदिसाओ, ताओ, पेक्खमाणे पदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो।
= लोकाकाशकी उभय दिशाओं अर्थात् दो दिशाओमें स्थित प्रदेश पंक्ति उभयासंख्यात् है, क्योंकि, लोकाकाशके दो और देखनेपर प्रदेशोंकी गणनाकी अपेक्षा वे संख्यातीत हैं।
७. विस्तारासंख्यात
धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,१५/१२५/७ जं तं वित्थारासंखेज्जं तं लोगागासपदरं, लोगपदरागारपदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो।
= प्रतर रूप लोकाकाश विस्तारासंख्यात है, क्योंकि, प्रतररूप लोकाकाशके प्रदेशोंकी गणना की अपेक्षा वे संख्यातीत हैं।
८. सर्वासंख्यात
धवला पुस्तक संख्या ३/१,२,१५/१२५/६ घणागारेण लोगं पेक्खमोण पदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो। जं तं सव्वासंखेज्जयं तं घणलोगो।
= घनलोक सर्वासंख्यात् है, क्योंकि, घनरूपसे लोकके देखनेपर प्रदेशोंकी गणनाकी अपेक्षा वे संख्यातीत हैं।
९. गणनासंख्यात
१. जघन्य परीतासंख्यात
राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३८/५/२०६/१७ संख्येयप्रमाणवगमार्थं जम्बूद्वीपपतुल्यायामविष्कम्भः योजनासहस्रावगाहः बुद्धया कुशूलाश्चत्वारः कर्तव्याःशकाला-प्रतिशलाका -महाशलाकारख्यास्त्रयोऽवस्थिताः चतुर्थोऽनवस्थितः। अत्र द्वौ सर्ष पौ निक्षिप्तौ जघन्यमेतत्संख्येयप्रमाणम्, तमनवस्थितं सर्षपैः पूर्ण गृहीत्वा कश्चिद्देवः एकैकंसर्षपमेकैकस्मिन् दीपे समुद्रे च प्रक्षिपेत्। तेन विधिना स रिक्तः। रिक्तइतिशालाकाकुशूले एकंसर्षपं प्रक्षिपेत्। यत्र अन्त्यसर्षपो निक्षिप्तस्तमवधिंकृत्वा अनवस्थितं कुशूलं परिकल्प्य सर्षपैः पूर्णं कृत्वा ततः परेषु द्वीपसमुद्रेष्वेकैकसर्षपप्रदानेन स रिक्तःकर्तव्यः। रिक्त इति शलाकाकुशूले पुनरेकं प्रक्षिपेत्। अनेन विधिना अनवस्थितकुशूलपरिवर्धनेन शलाकाकुशूले परिपूर्णे पूर्ण इति प्रतिशलाकाकुशूले एकः सर्षपो प्रक्षेप्तव्यः एवं तावत्कर्त्तव्यो यावत्प्रशलाकारकुशूलः परिपूर्णो भवति। परिपूर्णे इति महाशलाकाकुशूले एकः सर्षपः प्रक्षेप्तव्यः। सोऽपि तथैव परिपूर्णः। एवमेतत् चतुर्ष्वपि पूर्णेषु उत्कृष्टसंख्येयमतोत्य जघन्यपरीता संख्येयं गत्वैकं रूपं पतितम्।
= संख्येय प्रमाणके ज्ञानके लिए जम्बूद्वीपके समान १ लाख योजन लम्बे-चौड़े और एक योजन गहरे शलाका प्रतिशलाका महाशलाका और अनवस्थित नामके चार कुण्ड बुद्धिसे कल्पित करने चाहिए। अनवस्थित कुण्डमें दो सरसों डालने चाहिए। यह जघन्य संख्याका प्रमाण है। उस अनवस्थित कुण्डको सरसोंसे भर देना चाहिए। फिर कोई देव उससे एक-एक सरसोंको क्रमशः एक-एक द्वीप सागरमें डालता जाय। जब वह कुण्ड खाली हो जाय तब शलाका कुण्डमें एक दाना डाला जाय। जहाँ अनवस्थित कुण्डका अन्तिम सरसों गिरा था उतना बड़ा अनवस्थित कुण्ड कल्पना किया जाय। उसे सरसोंसे भरकर फिर उससे आगेके द्वीपोमें एक-एक सरसों डालकर उसे खाली किया जाय। जब खाली हो जाय तब शलाका कुण्डमें दूसरा सरसों डाले। इस प्रकार अनवस्थित कुण्डको तब तक बढ़ाता जाय जब तक शलाका कुण्ड सरसोंसे न भर जाय। जब शलाकाकुण्ड भर जाय तब एक सरसो प्रतिशलाका कुण्डमें डाले इस तरह उसे भी भरे। जब प्रतिशलाका कुण्ड भर जाय तब एक सरसों महाशलाका कुण्डमें डाले। उक्त विधिसे जब वह भी परिपूर्ण हो जाय तब जो प्रमाण आता है, वह उत्कृष्ट संख्यातसे एक अधिक जघन्य परीतासंख्यात है।
रा.वा हिं/फूट नोट - कुल सरसोंका प्रमाण आठ सरसों = १. यव; आठ यव = १ अंगुल; २४ अंगुल = १ हाथ; ४ हाथ = १ धनुष; २००० धनुष = १ कोष; ४ कोस = १ व्यवहार योजन; ५०० व्यवहार योजन = १ बड़ा योजन। अब १००,००० योजन विष्कम्भके १००० योजन गहरे कुण्ड का घन प्रमाण = (५०,०००)२ X २२/७ X १० १३ यो.। १ घन योजनमें सरसोंका प्रमाण = (८ X ८ X २४ X ४ X २००० X ४ X ५००)३ X ७५ X १०\१३ = १९७९१२०९२९९९६८ X १०\३१। कुण्डके ऊपर शिखामें सरसों = १७९९२००८४४५५१६३६ - ३६ ३६ ३६ ३३ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ४\११। प्रथम कुण्डमें कुल सरसों = १९९७११२९३८४५१३१६ - ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३.४\११ (४५ अक्षर)। अन्तिम कुण्डमें सरसों का प्रमाण ४५ अक्षर X असंख्यात्।
२. उत्कृष्ट परीतासंख्यात
राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३८/५/२०७/२ जघन्ययुक्तासंख्येयं गत्वा पतितम्। अत एकरूपेऽनीते उत्कृष्टपरीतासंख्येयं भवति।
= जघन्य युक्तसंख्यात् होता है। (दे.आगे.सं.४) उसमें एक कम करने पर उत्कृष्ट परीतासंख्यात होता है।
३. मध्यम परीतासंख्यात
राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३८/५/२०७/३ मध्यमजघन्योत्कृष्टपरीतासंख्येयम्।
= बीचके विकल्प अजघन्योत्कृष्ट परीतासंख्येय है। (तीनों भेदों का कथन तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/ ३०९/प.१७९ व्याख्या)
(त्रिलोकसार गाथा संख्या १४-३६)
४. जघन्य युक्तासंख्यात
राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३८/५/२०६/३३ यज्जघन्यपरीतासंख्येयं तद्विरलीकृत्य मुक्तावलीकृता अत्रैकैकस्यां मुक्तायां जघन्यपरीतासंख्येयं देयम्। एव मेतद्वर्गितम् प्राथमिकीं मुक्तीवलीमपनीय योन्येकैकस्यां सुक्तायां जघन्यपरीतासंख्येयानि दत्तानि तानि संपिण्ड्य मुक्तावली कार्या। ततो यो जघन्यपरीतासंख्येयसंपिण्डान्निष्पन्नो राशिः स देयः एकैकस्या मुक्तायाम्। एवमेतत्संवर्गितम् उत्कृष्टपरीतासंख्येयमतीत्य जघन्ययुक्तासंख्येयं गत्वा पतितम्।
= जघन्य परीतासंख्येयको फैलाकर मोती के समान जुदे-जुदे रखना चाहिए। प्रत्येकपर एक-एक जघन्य परीतासंख्येयको फैलाना चाहिए। इनका परस्पर वर्ग करे। जो जघन्य परीतासंख्येयको फैलाना चाहिए। इनका परस्पर वर्ग करे। जो जघन्यपरीतासंख्येय मुक्तवली पर दिये गये थे उनका गुणाकार रूप एक राशि बनावे। उसे विरलनकर उसपर उस वर्गित राशि को दे। उसका परस्पर वर्ग कर जो राशि आती है वह उकृष्ट परीतासंख्येयसे एक अधिक जघन्य युक्तासंख्यात् होती है।
(यदि क = (ज.परी.असं.) ज.परी.असं तो क क = (ज.यु.असं)।
५. उत्कृष्टयुक्तासंख्यात
राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३८/५/२०७/६ तत् एकरूपेऽपनीते उत्कृष्टं युक्तासंख्येयं भवति।
= उस (जघन्य असंख्येयासंख्येय) में से एक कम कर लेनेपर उत्कृष्ट युक्तासंख्येय होती है।
६. मध्यमयुक्तासंख्यात
राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३८/५/२०७/६ मध्यमजघन्योत्कृष्टयुक्तासंख्येयं भवति।
= बीच के विकल्प मध्यम युक्तासंख्येय होते हैं। (तीनों भेदोंका कथन तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/३१०/पृ.१८० व्याख्या)
(त्रिलोकसार गाथा संख्या ३६-३७)
७. जघन्य असंख्येयासंख्यात
राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३८/५/२०७/४ यज्जघन्ययुक्तासंख्येयं तद्विरलीकृत्य मुक्तावली रचिता। तत्रैकैकयुक्तायां जघन्ययुक्तासंख्येयानि देयानि। एवमेतत् सकृद्धर्गितमुत्कृष्टयुक्तासंख्येयमतीत्य जघन्यासंख्येयासंख्येयं गत्वा पतितम्।
= जघन्ययुक्तासंख्येयको विरलनकर प्रत्येक पर जघन्ययुक्तासंख्येयको स्थापित करे। उनका वर्गकरने पर जो राशि आती है वह जघन्य असंख्यासंख्य है।
(ज.यु.असं) ज.यु.असं।
८. उत्कृष्ट असंख्येयासंख्यात
राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३८/५/२०७/७ यज्जघन्यासंख्येसंख्येयं तद्विरलीकृत्य पूर्वविधिना त्रान्वारान् वर्गितसंवर्गित उत्कृष्टासंख्येयासंख्येयं न प्राप्नोति। ततो धर्माधर्मैकजीवलोकाकाशपत्येकशरीरजीवबादरनिगोतशरीराणि षड्प्येतान्यसंख्येयानि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानान्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि योगाविभागपरिच्छेदरूपाणि चासंख्येयलोकप्रदेशप्रमाणन्युत्सपर्पिण्यवसर्पिणोसमयांश्च कृत्वा उत्कृष्टसंख्येयासख्येयमतीत्य जघन्यपरीतान्तं गत्वा पतितम्। तत् एकरूपेऽपनीते उत्कृष्टासंख्येयासंख्येयं तद्भवति।
= जघन्य असंख्येयासंख्येयका विरलनकर पूर्वोक्त विधिसे तीन बार वर्गित करनेपर भी उत्कृष्ट असख्येयासंख्येय नहीं होता यदि (क = ज.असं.अ) ज.असं असं तो ख' = क क और ग = ख ख = उत्कृष्ट असंख्येयासंख्येय से कुछ कम। इसमें धर्म, अधर्म, एक जीव, लोकाकाश, प्रत्येक शरीर जीव बादरनिगोत शरीर ये छहों असंख्येय स्थितिबन्धाव्यवसाय, योगके अविभागप्रतिच्छेद, उत्सर्पिणी व अवसर्पिणा कालके समय; इस सबोंको जोड़ने पर फिर तीन बार वर्गित संवर्गित करनेपर उत्कृष्ट संख्येयासंख्येयसे एक अधिक जघन्य परीतानन्त होता है। इसमें-से एक कम करनेपर उत्कृष्ट असंख्येयासंख्येय होता है। अर्थात् = (ग+६ राशि+४ राशि) (ग+६ राशि+४ राशि)
= `प' फ = प प, ब = फ फ = ज.पर.अन./(दे.अनन्त) उत्कृष्ट असंख्येयोसंख्येय = ब-१।
९. मध्यम असंख्येयासंख्यात
राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३८/५/२०७/१२ मध्यममजघन्योत्कृष्टा संख्येयासंख्येयं भवति।
= मध्यके विकल्प अजघन्योत्कृष्ट असंख्येयासंख्येय हैं।
(तीनों भेदों के लक्षण तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/३१०/१८१-१८२); (त्रिलोकसार गाथा संख्या ३७-४५)।
• आगममें `असंख्यात' की यथास्थान प्रयोग विधि - दे. गणित I/१/६