सल्लेखना
From जैनकोष
अतिवृद्ध या असाध्य रोगग्रस्त हो जाने पर, अथवा अप्रतिकार्य उपसर्ग आ पड़ने पर अथवा दुर्भिक्ष आदि के होने पर साधक साम्यभाव पूर्वक अन्तरंग कषायों का सम्यक् प्रकार दमन करते हुए, भोजन आदि का त्याग करके, धीरे-धीरे शरीर को कृश करते हुए, इसका त्यागकर देते हैं। इसे ही सल्लेखना या समाधिमरण कहते हैं। सम्यग्दृष्टि जनों को यथार्थत: सम्भव होने से इसे पण्डितमरण कहते हैं। शरीर के प्रति जो स्वभाव से ही उपेक्षित हैं, ऐसे श्रावक साधु को ऐसे अवसरों पर अथवा आयुपूर्ण होने पर इस ही प्रकार की वीरता से शरीर का त्याग योग्य है। इसे आत्म हत्या कहना अनभिज्ञता का सूचक है। सल्लेखनागत साधु को क्षपक कहते हैं। पीड़ाओं के प्रकर्ष की सम्भावना होने के कारण सल्लेखना विधि में निर्यापकों, परिचारकों, वैयावृत्ति उपदेश आदि का प्रधान स्थान है।
- सल्लेखना सामान्य निर्देश
- सल्लेखना सामान्य का लक्षण।
- * दीक्षा सल्लेखना आदि काल- देखें - काल / १ ।
- बाह्य अभ्यन्तर सल्लेखना निर्देश।
- शरीर कृश करने का उपाय।
- सल्लेखना आत्महत्या नहीं है।
- सल्लेखना जबरदस्ती नहीं करायी जाती।
- * संयम रक्षार्थ या उपसर्ग आने पर आत्महत्या तक करना न्याय है।- देखें - मरण / १ / ५ में विप्राणस मरण।
- पर संयम रक्षार्थ भी मरना सल्लेखना नहीं है।
- अभ्यन्तर सल्लेखना की प्रधानता।
- सल्लेखना धारने की क्या आवश्यकता।
- सल्लेखना के अतिचार।
- सल्लेखना का महत्त्व व फल।
- क्षपक की भवधारण सीमा।
- सल्लेखना में सम्भव लेश्याएँ।
- संस्तर धारण व मरण काल में परस्पर सम्बन्ध।
- सल्लेखना का स्वामित्व।
- सभी व्रतियों को सल्लेखना आवश्यक नहीं।
- सल्लेखना के लिए हेमन्त ऋतु उपयुक्त नहीं।
- * सल्लेखना में तीव्र वेदनाओं की सम्भावना।- देखें - सल्लेखना / ५ / ८ ।
- सल्लेखना के योग्य अवसर
- सल्लेखना योग्य शरीर क्षेत्र व काल।
- निर्यापक की उपलब्धि की अपेक्षा।
- योग्य कारणों के अभाव में धारने का निषेध।
- अन्त समय धारने का निर्देश।
- अन्त समय की प्रधानता का कारण।
- परन्तु केवल अन्त समय में धरना अत्यन्त कठिन है।
- अत: इसका अभ्यास व भावना जीवन पर्यन्त करना योग्य है।
- अन्त समय व जीव पर्यन्त की आराधना का समय।
- * मरण का संशय होने पर अथवा अकस्मात् मरण होने पर अथवा स्वकाल मरण होने पर क्या करे।- देखें - सल्लेखना / ३ / ९ -१०।
- भक्त प्रत्याख्यान आदि विधि निर्देश
- सल्लेखनामरण के व विधि के भेद।
- भक्त प्रत्याख्यान आदि तीन के लक्षण।
- * तीनों आहार का त्याग समन्वय है।- देखें - सल्लेखना / ३ / २ ।
- * तीनों का स्वामित्व।- देखें - सल्लेखना / १ / १४ ।
- तीनों के योग्य संहनन काल व क्षेत्र।
- तीनों के फल।
- भक्तप्रत्याख्यान की जघन्य व उत्कृष्ट अवधि।
- साधुओं के लिए भक्त प्रत्याख्यान की सामान्य विधि।
- समर्थ श्रावकों के लिए भक्त प्रत्याख्यान की सामान्य विधि।
- असमर्थ श्रावकों के लिए भक्त प्रत्याख्यान की सामान्य विधि।
- मृत्यु का संशय या निश्चय होने की अपेक्षा भक्त प्रत्याख्यान विधि।
- सविचार व अविचार भक्त प्रत्याख्यान के सामान्य लक्षण व स्वामी।
- अविचार भक्त प्रत्याख्यान विधि।
- इंगिनीमरण विधि।
- प्रायोपगमन मरण विधि।
- सविचार भक्त प्रत्याख्यान विधि
- इस विषयक ४० अधिकार।
- * सल्लेखना योग्य लिंग।- देखें - लिंग / १ / ४ ।
- * सल्लेखना में नग्नता का कारण व महत्त्व।- देखें - अचेलकत्व / २ ।
- इन अधिकारों का कथन क्रम।
- आचार्य पदत्याग विधि।
- सबसे क्षमा।
- परगणचर्या व इसका कारण।
- * परगण द्वारा आगत मुनि का परीक्षापूर्वक ग्रहण।- देखें - विनय / ५ / १ ।
- उद्यत साधु के उत्साह आदि का विचार।
- आलोचना पूर्वक प्रायश्चित्त ग्रहण।
- * क्षपक योग्य वसतिका व संस्तर।-दे.वह वह नाम।
- * श्रावक को घर या मन्दिर दोनों जगह संस्तरधारण की आज्ञा- देखें - सल्लेखना / ३ / ८ ।
- * निर्यापाचार्य व उसका मार्गण- देखें - सल्लेखना / ५ ।
- क्षपणा, समता व ध्यान।
- कुछ विशेष भावनाओं का चिन्तवन
- मौन वृत्ति
- क्रमपूर्वक आहार व शरीर का त्याग।
- क्षपक के लिए उपयुक्त आहार।
- भक्त प्रत्याख्यान में निर्यापक का स्थान
- योग्य निर्यापक व उसकी प्रधानता।
- चारित्रहीन निर्यापक का आश्रय हानिकारक है।
- योग्य निर्यापक का अन्वेषण
- एक निर्यापक एक ही क्षपक को ग्रहण करता है।
- निर्यापकों की संख्या का प्रमाण।
- सर्व निर्यापकों में कर्तव्य विभाग।
- क्षपक की वैयावृत्ति करते हैं।
- आहार दिखाकर वैराग्य उत्पन्न कराना।
- कदाचित् क्षपक को उग्र वेदना का उद्रेक।
- उपर्युक्त दशा में भी उसका त्याग नहीं करते।
- यथावसर उपदेश देते हैं।
- सामान्य निर्देश।
- वेदना की उग्रता में सारणात्मक उपदेश।
- प्रतिज्ञा को कवच करने के अर्थ उपदेश।
- मृत शरीर का विसर्जन व फल विचार
- * शरीर क्षेपण योग्य निषद्यका।-देखें - निषीधिका।
- * संस्तर ग्रहण व मरणकाल में परस्पर सम्बन्ध।- देखें - सल्लेखना / १ / १३ ।
- शव विसर्जन विधि।
- शरीर विसर्जन के पश्चात् संघ का कर्तव्य।
- फल विचार-
- निषीधिका को दिशाओं पर से।
- शव के संस्तर पर से।
- नक्षत्रों पर से।
- शरीर के अंगोपांगों पर से।
१. सल्लेखना सामान्य निर्देश
१. सल्लेखना सामान्य का लक्षण
स.सि./७/२२/३६३/१ सम्यक्कायकषायलेखना सल्लेखना। कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च कषायाणां तत्कारणहापनक्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना। =अच्छे प्रकार से काय और कषाय का लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है। अर्थात् बाहरी शरीर का और भीतरी कषायों का, उत्तरोत्तर काय और कषाय को पुष्ट करने वाले कारणों को घटाते हुए भले प्रकार से लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है। (स.सि./७/२२/३/५५०/२३); (भ.आ./वि./१५७/३६९/१२)।
देखें - सल्लेखना / २ / १ (दुर्भिक्ष आदि के उपस्थित होने पर धर्म के अर्थ शरीर का त्याग करना सल्लेखना है।)
देखें - निक्षेप / ५ / ५ / २ (कदलीघात के बिना बहिरंग और अन्तरंग परिग्रह का त्याग करके जीवन व मरण की आशा से रहित छूटा हुआ शरीर त्यक्त शरीर कहलाता है, जो भक्तप्रत्याख्यान आदि की अपेक्षा तीन प्रकार का है।)
२. बाह्य व अभ्यन्तर सल्लेखना निर्देश
भ.आ./मू./२०६/४२३ सल्लेहणा य दुविहा अब्भंतरिया य बाहिरा चेव। अब्भंतरा कसायेसु बाहिरा होदि हु सरीरे।२०६। =सल्लेखना दो प्रकार की है-अभ्यन्तर और बाह्य। तहाँ अभ्यन्तर सल्लेखना तो कषायों में होती है और बाह्यसल्लेखना शरीर में। अर्थात् उपरोक्त लक्षण में कषायों को कृश करना तो अभ्यन्तर सल्लेखना है और शरीर को कृश करना बाह्य सल्लेखना है।
पं.का./ता.वृ./१७३/२५३/१७ आत्मसंस्कारानन्तरं तदर्थमेव क्रोधादिकषायरहितानन्तज्ञानादिगुणलक्षणपरमात्मपदार्थे स्थित्वा रागादिविकल्पानां सम्यग्लेखनं तनुकरणं भावसल्लेखना, तदर्थ कायक्लेशानुष्ठानं द्रव्यसल्लेखना, तदुभयाचरणं स सल्लेखनाकाल:। =आत्मसंस्कार ( देखें - काल / १ / ६ ) के अनन्तर उसके लिए ही क्रोधादि कषायरहित अनन्तज्ञानादि गुणलक्षण परमात्मपदार्थ में स्थित होकर रागादि विकल्पों का कृश करना भाव सल्लेखना है, और उस भाव सल्लेखना के लिए कायक्लेशरूप अनुष्ठान करना अर्थात् भोजन आदि का त्याग करके शरीर को कृश करना द्रव्य सल्लेखना है। इन दोनों रूप आचरण करना सल्लेखना काल है।
३. शरीर कृश करने का उपाय
भ.आ./मू./२४६-२४९ उल्लीणोलीणेहिं य अहवा एक्कंतवड्ढमाणेहिं। सल्लिहइ मुणी देहं आहारविधिं पयणुगिंतो।२४६। अणुपुव्वेणाहारं संवट्ठंतो य सल्लिहइ देहं। दिवसुग्गहिएण तवेण चावि सल्लेहणं कुणइ।२४७। विविहाहिं एसणाहिं य अवग्गहेहिं विविहेहिं उग्गेहिं। संजममविराहिंतो जहाबलं सल्लिहइ देहं।२४८। सदि आउगे सदि बले जाओ विविधाओ भिक्खुपडिमाओ। ताओ वि ण बाधंते जहाबलं सल्लिहंतस्स।२४९। =क्रम से अनशनादि तप को बढ़ाते हुए यतिराज अपने देह को कृश कर शरीर सल्लेखना करते हैं।२४६। क्रम से आहार कम करते करते क्षपक अपना देह कृश करता है। प्रतिदिन लिये गये नियम के अनुसार कभी उपवास और कभी वृत्तिसंख्यान, इस क्रम से तपश्चरण कर क्षपक शरीर कृश करता है।२४७। नाना प्रकार के रसवर्जित, अल्प, रूक्ष ऐसे आचाम्ल भोजनों से अपने सामर्थ्य के अनुसार क्षपक मुनि देह को कृश करता है। नाना प्रकार के उग्र नियम ले लेकर संयम की विराधना न करता हुआ स्वशक्ति अनुसार शरीर को कृश करता है।२४८। यदि आयु व देह की शक्ति अभी काफी शेष हो तो शास्त्रोक्त बारह भिक्षुप्रतिमाओं को ( देखें - सल्लेखना / ४ ) स्वीकार करके शरीर को कृश करता है। उन प्रतिमाओं से इस क्षपक को पीड़ा नहीं होती। (विशेष देखें - सल्लेखना / ३ ,४)।
४. सल्लेखना आत्महत्या नहीं है
स.सि./७/२२/३६३/५ स्यान्मतमात्मवघ: प्राप्नोति; स्वाभिसन्धिपूर्वकायुरादिनिवृत्ते:। नैष दोष:; अप्रमत्तत्वात् । 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा' इत्युक्तम् । न चास्य प्रमादयोगोऽस्ति। कुत:। रागाद्यभावात् । रागद्वेषमोहाविष्टस्य हि विषशस्त्राद्युपकरणप्रयोगवशादात्मानं ध्नत: स्वघातो भवति। न सल्लेखनां प्रतिपन्नस्य रागादय: सन्ति ततो नात्मवधदोष:। =प्रश्न-चूँकि सल्लेखना में अपने अभिप्राय से आयु आदि का त्याग किया जाता है, इसलिए यह आत्मघात हुआ ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सल्लेखना में प्रमाद का अभाव है। 'प्रमत्तयोग से प्राणों का वध करना हिंसा है' यह पहले कहा जा चुका है (देखें - हिंसा )। परन्तु इसके प्रमाद नहीं है, क्योंकि, इसके रागादिक नहीं पाये जाते। राग, द्वेष और मोह से युक्त होकर जो विष और शस्त्र आदि उपकरणों का प्रयोग करके उनसे अपना घात करता है उसे आत्मघात का दोष प्राप्त होता है ( देखें - मरण / ४ / १ )। परन्तु सल्लेखना को प्राप्त हुए जीव के रागादिक तो हैं नहीं, इसलिए इसे आत्मघात को दोष प्राप्त नहीं होता है। (कहा भी है-रागादिक का न होना ही अहिंसा है ( देखें - अहिंसा / २ / १ ) और उनकी उत्पत्ति ही हिंसा है ( देखें - हिंसा / १ / १ ); (रा.वा./७/२२/६-७/५५०/३३) (पु.सि.उ./१७७-१७८); (सा.ध./८/८); (और भी देखें - शीर्षक सं .९)।
५. सल्लेखना जबरदस्ती नहीं करायी जाती
स.सि./७/२२/३६३/४ न केवलमिह सेवनं परिगृह्यते। किं तर्हि प्रीत्यर्थोऽपि। यस्मादसत्यां प्रीतौ बलान्न सल्लेखना कार्यते। सत्यां हि प्रीतौ स्वयमेव करोति। =यहाँ पर (सूत्र में प्रयुक्त 'जोषिता' शब्द का) केवल 'सेवन करना' अर्थ नहीं लिया गया है, क्योंकि प्रीति के न रहने पर बलपूर्वक सल्लेखना नहीं करायी जाती है। किन्तु प्रीति के रहने पर स्वयं ही सल्लेखना करता है। (रा.वा./७/२२/४/५५०/२६)।
६. संयम रक्षार्थ मरना भी सल्लेखना नहीं
ध.१/१,१,१/२५/१ संजम-विनास-भएण उस्सासणिरोहं काऊण मुदसाहु-सरीरं कत्थ णिवददिग ? ण कत्थ वि तहा-मुददेहस्स मंगलत्ताभावादो। =प्रश्न-संयम के विनाश के भय से श्वासोच्छ्वास का निरोध करके मरे हुए साधु के शरीर का त्यक्तशरीर के तीन भेदों (भक्त प्रत्याख्यान आदि) में से किस भेद में अन्तर्भाव होता है ? उत्तर-ऐसे शरीर का त्यक्त के किसी भी भेद में अन्तर्भाव नहीं होता है; क्योंकि, इस प्रकार से मृत शरीर को मंगलपना प्राप्त नहीं होता है।
देखें - मरण / १ / ५ (उपरोक्त प्रकार का मरण विप्राणसमरण कहलाता है। वह न अनुज्ञात है और न निषिद्ध।)
७. अभ्यन्तर सल्लेखना की प्रधानता
भ.आ./मू./ग.एवं सरीरसल्लेहणाविहिं बहुविहा वि फासेंतो। अज्झवसाणविसुद्धिं खणमवि खवओ ण मुंचेज्ज।२५६। अज्झवसाणविसुद्धी कसायकलुसीकदस्स णत्थि त्ति। अज्झवसाणकसायसल्लेहणा भणिदा।२५७। अज्झवसाणविसुद्धीए वज्जिदा जे तवं विगट्ठंपि। कुव्वंति बहिल्लेस्सा ण होइ सा केवला सुद्धी।२५८। सल्लेहणाविसुद्धा केई तह चेव विविहसंगेहिं। संथारे विहरंता वि संकिलिट्ठा विवज्जंति।१६७४। =इस प्रकार अनेकविध शरीर सल्लेखनाविधि को करते हुए भी, क्षपक एक क्षण के लिए भी परिणामों की विशुद्धि को न छोड़े।२५६। कषाय से कलुषित मन में परिणामों की विशुद्धि नहीं होती। और परिणामों की विशुद्धि ही कषाय सल्लेखना कही गयी है।२५९। परिणामों की विशुद्धि के बिना उत्कृष्ट भी तप करने वाले साधु ख्याति आदि के कारण ही तप करते हैं, ऐसा समझना चाहिए। इसलिए उनके परिणामों की शुद्धि नहीं होती।२५७। जो साधु शरीर की सल्लेखना तो निरतिचार कर रहे हैं, परन्तु उनके अन्तरंग में रागद्वेषादिरूप भाव परिग्रह निवास करता है, वे संस्तरारूढ होते हुए भी परिणामों की संक्लेशता के कारण संसार में भ्रमण करते हैं।१६७४।
सा.ध./८/२३ सल्लेखनासंल्लिखत: कषायान्निष्फला तनो:। कायोऽजडैर्दण्डयितुं काषायानेव दण्डयते।२३। =जो साधु कषायों को कृश न करके केवल शरीर को ही कृश करता है, उसका वह शरीर को कृश करना निष्फल है, क्योंकि कषायों को कृश करने के लिए ही शरीर को कृश किया जाता है, केवल शरीर को कृश करने के लिए नहीं।
८. सल्लेखना धारने की क्या आवश्यकता
स.सि./७/२२/३६४/१ किंच, मरणरयानिष्टत्वाद्यथा वाणिजो विविधपण्यदानादानसंचयपरस्य स्वगृहविनाशोऽनिष्ट:। तद्विनाशकारणे च कुतश्चिदुपस्थिते यथाशक्ति परिहरति। दुष्परिहारे च पण्यविनाशो यथा न भवति तथा यतते। एवं गृहस्थोऽपि व्रतशीलपण्यसंचये प्रवर्तमान: तदाश्रयस्य न पातमभिवाञ्छति। तदुप्पलवकारणे चोपस्थिते स्वगुणाविरोधेन परिहरति। दुष्परिहारे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति तथा प्रयतत इति कथमात्मवधो भवेत् । =मरण किसी को भी इष्ट नहीं है। जैसे नाना प्रकार की विक्रेय वस्तुओं के देने, लेने और संचय में लगे हुए किसी व्यापारी को अपने घर का नाश होना इष्ट नहीं है; फिर भी परिस्थितिवश उसके विनाश के कारण आ उपस्थित हों तो यथाशक्ति वह उनको दूर करता है, इतने पर भी यदि वे दूर न हो सकें तो, जिससे विक्रेय वस्तुओं का नाश न हो, ऐसा प्रयत्न करता है। उसी प्रकार पण्य स्थानीय व्रत और शील के संचय में जुटा हुआ गृहस्थ भी उनके आधारभूत आयु आदि का पतन नहीं चाहता। यदा कदाचित् उनके विनाश के कारण उपस्थित हो जायें तो जिससे अपने गुणों में बाधा नहीं पड़े, इसप्रकार उनको दूर करने का प्रयत्न करता है। इतने पर भी यदि वे दूर न हों तो, जिससे अपने गुणों का नाश न हो इस प्रकार प्रयत्न करता है, इसलिए इसके आत्मघात नाम का दोष कैसे हो सकता है। (रा.वा./७/२२/८/५५१/६); (आ.अनु./२०५); (सा.ध./८/६)।
९. सल्लेखना के अतिचार
त.सू./७/३७ जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि।३७। =जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान ये सल्लेखना के पाँच अतिचार हैं।३७। (र.क.श्रा./१२९); (चा.सा./४९/३); (सा.ध./८/४६)।
१०. सल्लेखना का महत्त्व व फल
भ.आ./मू./१९४२-१९४५ भोगे अणुत्तरे भुंजिऊण तत्तो चुदा सुमाणुसे। इडि्ढमतुलं चइत्ताचरंति जिणदेसियं धम्मं।१९४२। सुक्कं लेस्समुवगदा सुक्कज्झाणेण खविदसंसारा। सम्मुक्ककम्मकवया सविंतिं सिद्धिं धुदकिलेसा।१९४५। =स्वर्गों में अनुत्तर भोग भोगकर वे वहाँ से चय उत्तम मनुष्यभव में जन्म धारणकर सम्पूर्ण ऋद्धियों को प्राप्त करते हैं। पीछे वे जिनधर्म अर्थात् मुनि धर्म व तप आदि का पालन करते हैं।१९४२। शुक्ल लेश्या की प्राप्ति कर वे आराधक शुक्लध्यान से संसार का नाश करते हैं, और कर्मरूपी कवच को फोड़कर सम्पूर्ण क्लेशों का नाश कर मुक्त होते हैं।१९४५। (विशेष देखें - सल्लेखना / ३ / ४ )।
र.क.श्रा./१३० नि:श्रेयसमभ्युदयं निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिं। निष्पिवति पीतधर्मा सर्वैर्दु:खैरनालीढ:।१३०। =पिया है धर्मरूपी अमृत जिसने ऐसा सल्लेखनाधारी जीव समस्त प्रकार के दु:खों से रहित होता हुआ, अपार दुस्तर और उत्कृष्ट उदय वाले मोक्षरूपी सुख के समुद्र को पान करता है।
प.पु./१४/२०३ गृहधर्ममिमं कृत्वा समाधिप्राप्तपञ्चत:। प्रपद्यते सुदेवत्वं च्युत्वा च सुमनुष्यताम् ।२०३। =इस गृहस्थ धर्म का पालनकर जो समाधिपूर्वक मरण करता है, वह उत्तम देवपर्याय को प्राप्त होता है, और वहाँ से च्युत होकर उत्तम मनुष्यत्व प्राप्त करता है।२०३। (पीछे आठ भवों में मुक्ति प्राप्त करता है-(देखें - अगला शीर्षक )
पु.सि.उ./१७९ नीयन्तेऽत्र कषाया हिंसाया हेतवो यतस्तनुताम् । सल्लेखनामपि तत: प्राहुरहिंसां प्रसिद्धयर्थम् ।१७९। =क्योंकि इस संन्यास मरण में हिंसा के हेतुभूत कषाय क्षीणता को प्राप्त होते हैं, तिस कारण से संन्यास को भी श्रीगुरु अहिंसा की सिद्धि के लिए कहते हैं।१७९।
देखें - भ .आ./अ.ग./२२४८-२२७९-[सल्लेखना की अनेक प्रकार से स्तुति]
११. क्षपक की भवधारण की सीमा
भ.आ./मू./गा. एक्कम्मि भवग्गहणे समाधिमरणेण जो मदो जीवो। ण हु सो हिंडंदि बहुसो सत्तट्ठभवे पमोत्तूण।६८२। णियमा सिज्झदि उक्कसएण वा सत्तमम्मि भवे।२०८६। इय बालपंडियं होदिं मरणमरहंतसासणे दिट्ठं।२०८७। एवं आराधित्ता उक्कस्साराहणं चदुक्खंधं। कम्मरयविप्पमुक्का तेणेव भवेण सिज्झंति।२१६०। आराधयित्तु धीरा मज्झिममाराहणं चदुक्खंध। कम्मरयविप्पमुक्का तच्चेण भवेण सिज्झंति।२१६१। आराधयित्तु धीरा जहण्णमाराहणं चदुक्खंधं। कम्मरयविप्पमुक्का सत्तमजम्मेण सिज्झंति।२१६२। =१. जो यति एक भव में समाधिमरण से मरण करता है वह अनेक भव धारणकर संसार में भ्रमण नहीं करता। उसको सात आठ भव धारण करने के पश्चात् अवश्य मोक्ष की प्राप्ति होगी।६८२। (मू.आ./११८)। २. बालपंडित मरण से मरण करने वाला श्रावक ( देखें - मरण / १ / ४ ) उत्कृष्टता से सात भवों में नियम से सिद्ध होता है।२०८६-२०८७। ३. चार प्रकार के इस (दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप) आराधना को जो उत्कृष्ट रूप से आराधता है वह उसी भव में मुक्त होता है, जो मध्यमरूप से आराधता है वह तृतीय भव से मुक्त होता है, और जो जघन्य रूप से आराधता है वह सातवें भव में सिद्ध होता है।२१६०-६२।
प.पु./१४/२०४ भावानामेवमष्टानामन्त: कृत्वानुवर्तनम् । रत्नत्रयस्य निर्ग्रन्थो भूत्वा सिद्धिं समश्नुते।२०४। =[जो गृहस्थधर्म का पालनकर समाधिपूर्वक मरण करता है-(देखें - शीर्षक सं .१० में प.पु./१४/२०३)] ऐसा जीव अधिक से अधिक आठ भवों में रत्नत्रय का पालनकर अन्त में निर्ग्रन्थ हो सिद्धपद को प्राप्त होता है।२०४।
धर्मपरीक्षा/१९/९६ का भाषार्थ-जो सुधी पुरुष कषाय निदान और मिथ्यात्व रहित होकर संन्यासविधि के धारणपूर्वक मरण करते हैं, वे मनुष्य देवलोक में सुखों को भोगकर २१ भव के भीतर मोक्षपद को प्राप्त होते हैं।
१२. सल्लेखना में सम्भव लेश्याएँ
भ.आ./मू./१९१८-१९२१ सुक्काए लेस्साए उक्कस्सं अंसयं परिणमित्ता। जो मरदि सो हु णियमा उक्कस्साराधओ होई।१९१८। जे सेसा सुक्काए दु अंसया जे य पम्मलेस्साए। तल्लेस्सापरिणामो दु मज्झिमाराधणा मरणे।१९२०। तेजाए लेस्साए ये अंसा तेसु जो परिणमित्ता। कालं करेइ तस्स हु जहण्णियाराधणा भणदि।१९२१। =शुक्ललेश्या के उत्कृष्ट अंश से परिणत होकर मरने वाला क्षपक उत्कृष्ट आराधक है।१९१८। शुक्ल लेश्या के शेष मध्यम व जघन्य अंश और पद्मलेश्या के सर्व अंशों से परिणमित होकर मरने वाला मध्यम आराधक है।१९२०। और पीत लेश्या के सर्व अंशों से परिणमित होकर मरने वाला जघन्य आराधक है।
१३. संस्तर धारण व मरणकाल में परस्पर सम्बन्ध
भ.आ./अमितगति कृत प्रशस्ति/पृ.१८७५-
नं. | संस्तरधारण काल का नक्षत्र | मरणकाल का नक्षत्र | समय |
१ | अश्विनी | स्वाति | रात |
२ | भरणी | रेवती | प्रभात |
३ | कृत्तिका | उत्तर फाल्गुनी | मध्याह्न |
४ | रोहिणी | श्रवण | अर्धरात्रि |
५ | मृगशिर | पूर्व फाल्गुनी | ? |
६ | आर्द्रा | उत्तरा या इससे अगला | दिन |
७ | पुनर्वसु | अश्विनी | अपराह्न |
८ | पुष्य | मृगशिर | ? |
९ | आश्लेषा | चित्रा | ? |
१० | मघा | मघा या इससे अगला | दिन |
११ | पूर्व फाल्गुनी | घनिष्ठा | दिन |
१२ | उत्तर फाल्गुनी | मूल | सायं |
१३ | हस्त | भरणी | दिन |
१४ | चित्रा | मृगशिर | अर्धरात्रि |
१५ | स्वाति | रेवती | प्रभात |
१६ | विशाखा | आश्लेषा | ? |
१७ | आश्लेषा | पूर्वभाद्रापद | दिन |
१८ | मूल | ज्येष्ठा | प्रभात |
१९ | पूर्वाषाढ़ | मृगशिर | रात का प्रारम्भ |
२० | उत्तराषाढ़ | उत्तराषाढ अथवा भाद्रपद | अपराह्न |
२१ | श्रवण | उत्तरभाद्रपद | दिन |
२२ | घनिष्ठा | घनिष्ठा या उससे अगला | दिन |
२३ | शतभिषज | ज्येष्ठा | सूर्यास्त |
२४ | पूर्वभाद्रपद | पुनर्वसु | रात |
२५ | उत्तर भाद्रपद | उत्तरभाद्रपद | दिन या रात |
२६ | रेवती | मृगशिर | ? |
१४. सल्लेखना का स्वामित्व
रा.वा./७/२२/१४/५५२/३ अयं सल्लेखनाविधि: न श्रावकस्यैव दिग्विरत्यादि शीलवत:। किं तर्हि। संयतस्यापीति अविशेषज्ञापनार्थत्वाद्वापृथगुपदेश: कृत:। =यह सल्लेखनाविधि शीलव्रतधारी गृहस्थ को ही नहीं है, किन्तु महाव्रती साधु के भी होती है। इस सामान्य नियम की सूचना पृथक् सूत्र बनाने से मिल जाती है।
देखें - सल्लेखना / २ / १ में भ.आ./७४-[गृहस्थ व साधु दोनों ही भक्तप्रत्याख्यान के योग्य समझे जाते हैं।]
देखें - सल्लेखना / १ / ८ [गृहस्थ भी व्रत और शीलों की रक्षा करने के लिए सल्लेखना धारण करता है।]
देखें - सल्लेखना / २ / ४ [श्रावक प्रीतिपूर्वक मारणान्तिकी सल्लेखना धारण करता है।]
देखें - सल्लेखना / २ / ७ में पु.सि.उ./१७६ ['मैं मरण काल में अवश्य समाधिमरण करूँगा' श्रावक को ऐसी भावना नित्य भानी चाहिए।]
देखें - मरण / १ / ४ [भक्त प्रत्याख्यान आदि पंडित मरण मुनियों को होता है।]
१५. सभी व्रतियों को सल्लेखना आवश्यक नहीं
रा.वा./७/२२/१२/५५१/३४ स्यादेतत्-पूर्वसूत्रेण सह एक एव योग: कर्त्तव्य: लघ्वर्थ इति; तन्न; किं कारणम् । कदाचित् कस्यचित् तां प्रत्याभिमुख्यज्ञापनार्थत्वात् । सप्ततपशीलवत: कदाचित् कस्यचित् गृहिण: सल्लेखनाभिमुख्यं न सर्वस्येति। =प्रश्न-इस सूत्र को पहले सूत्र के साथ ही मिला देना योग्य था, क्योंकि, ऐसा करने से सूत्र छोटा हो जाता? उत्तर-नहीं, क्योंकि, कभी-कभी तथा किसी किसी को ही सल्लेखना की अभिमुखता होती है, यह बात बताने के लिए पृथक् सूत्र बनाया गया है। सात शील व्रतों को धारने वाला कोई एक आध गृहस्थ ही कदाचित् सल्लेखना के अभिमुख होता है, सब नहीं।
देखें - अथालंद -[जो साधु बल, वीर्य, धैर्य व स्थिरता में हीन होने के कारण परिहार विधि या भक्त प्रत्याख्यान आदि विधियों को धारण करने में समर्थ नहीं हैं, वे अथालंद विधि को धारण करते हैं।]
१६. सल्लेखना के लिए हेमन्त ऋतु उपयुक्त है
भ.आ./मू./६३१/८३२ एवं वासारत्ते फासेदूण विविधं तवोकम्मं। संथारं पडिवज्जदि हेमंते सुहविहारंम्मि।१६३। =इस प्रकार से वर्षाकाल में नाना प्रकार के तप कर वह क्षपक जिसमें अनशनादि करने पर भी महान् कष्ट का अनुभव नहीं आता है, ऐसे हेमन्तकाल में संस्तर का आश्रय करता है।६३१।
२. सल्लेखना के योग्य अवसर
१. सल्लेखना योग्य शरीर क्षेत्र व काल
भ.आ./मू./७१-७४ वाहिव्व दुप्पसज्झा जरा य समण्णजोग्गहाणिकरी। उवसग्गा वा देवियमाणुसतेरिच्छया जस्स।७१। अणुलोमा वा सत्त चारित्तविणासया हवे जस्स। दुब्भिक्खे वा गाढे अडवीए विप्पणट्ठो वा।७२। चक्खं वा दुब्बलं जस्स होज्ज सोदं व दुब्बलं जस्स। जंघाबलपरिहीणो जो ण समत्थो विहरिदुं वा।७३। अण्णम्मि चावि एदारिसंम्मि आगाढकारणे जादे। अरिहो भत्तपइण्णाए होदि विरदो अविरदो वा।७४। =महाप्रयत्न से चिकित्सा करने योग्य ऐसा कोई दुरुत्तर रोग होने पर, श्रामण्य की हानि करने वाली अतिशय वृद्धावस्था आने पर, अथवा नि:प्रतिकार देव मनुष्य व तिर्यंचकृत उपसर्ग आ पड़ने पर।७१। (लोभ आदि के वशीभूत हुए ऐसे) अनुकूल शत्रु जब चारित्र का नाश करने को उद्युक्त हो जायें, भयंकर दुष्काल आ पड़ने पर, हिंसक पशुओं से पूर्ण भयानक वन में दिशा भूल जाने पर।७२। आँख, कान व जंघा बल अत्यन्त क्षीण हो जाने पर।७३। तथा इनके अतिरिक्त अन्य भी तत्सदृश कारणों के होने पर मुनि या गृहस्थ भक्त प्रत्याख्यान (शरीर त्याग) के योग्य समझे जाते हैं।७४।
र.क.श्रा./१२२ उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहु: सल्लेखनामार्या:।१२२। =निष्प्रतिकार उपसर्ग आने पर, दुर्भिक्ष होने पर, बुढ़ापा आने पर, और मृत्युदायक रोग होने पर धर्मार्थ शरीर छोड़ने की सल्लेखना कहते हैं।१२२। (चा.सा./४८/१)
रा.वा./७/२२/११/५५१/२८/जरारोगेन्द्रियहानिभिरावश्यकपरिक्षये।११। =जरा, रोग, इन्द्रिय व शरीर बल की हानि तथा षडावश्यक का नाश होने पर सल्लेखना होती है।
सा.ध./८/९-१० कालेन वोपसर्गेण निश्चित्यायु: क्षयोन्मुखं। कृत्वा यथाविधि प्रायं तास्ता: सफलयेत्क्रिया।९। देहादिवैकृतै: सम्यग्निमित्तेश्च सुनिश्चित्ते। मृत्यावाराधनामग्नयतेर्दूरेन तत्पदं।१०। =स्वकाल पाकद्वारा अथवा उपसर्ग द्वारा निश्चित रूप से आयु का क्षय सन्मुख होने पर यथाविधि रूप से संन्यासमरण धारकर सकल क्रियाओं को सफल करना चाहिए।९। जिनके होने पर शरीर ठहर नहीं सकता ऐसे सुनिश्चित देहादि विकारों के होने पर, अथवा उसके कारण उपस्थित हो जाने पर अथवा आयु का क्षय निश्चित हो जाने पर निश्चय से आराधनाओं के चिन्तवन करने में मग्न होता है, उसे मोक्ष पद दूर नहीं।१०।
देखें - सल्लेखना / ३ / १० [स्व कालपाकवश आयु क्षय होने पर सविचार भक्त प्रत्याख्यान धारा जाता है और अकस्मात् आयुक्षय होने पर अविचार भक्त प्रत्याख्यान धारा जाता है।]
२. निर्यापक की उपलब्धि की अपेक्षा
भ.आ./मू./७५/२०४ उस्सरइ जस्स चिरमवि सुहेण सामण्णमणदिचारं वा। णिज्जावया य सुलहा दुब्भिक्खभयं च जदि णत्थि।७५।
भ.आ./वि./७५/२०५/१ इदानीमहं यदि न त्यागं कुर्यां निर्यापका: पुनर्न लप्स्यन्ते सूरयस्तदभावे नाहं पण्डितमरणमाराधयितुं शक्नोमि इति यदि भयमस्ति भक्तप्रत्याख्यानार्ह एव। =जिस मुनीश्वर का चारित्रपालन सुखपूर्वक व निरतिचार हो रहा है, तथा जिसका निर्यापक भी सुलभ हो और जिसे दुर्भिक्ष आदि का भी भय न हो, ऐसा मुनीश्वर यद्यपि भक्त प्रत्याख्यान के अयोग्य है।७५। तो भी 'इस समय यदि मैं भक्तप्रत्याख्यान न करूँ और आगे यदि निर्यापकाचार्य कदाचित् न मिले तो मैं पंडितमरण न साध सकूंगा' ऐसा जिसको भय हो तो वह मुनि भक्त प्रत्याख्यान के योग्य ही है।
३. योग्य कारणों के अभाव में सल्लेखना धारने का निषेध
भ.आ./मू./७६/२०५ तस्स ण कप्पदि भत्तपइण्णं अणुवट्ठिदे भये पुरदो। सो मरणं पच्छिंतो होदि हु सामण्णणिव्विणो।७६। =पूर्व में कहे गये सर्व भयों के उपस्थित न होने पर भी जो मुनि मरण की इच्छा करेगा, वह मुनि चारित्र से विरक्त है ऐसा समझना चाहिए।
देखें - शीर्षक नं .२-[जिसका चारित्र निर्विघ्न पल रहा है और जिसे निर्यापक भी सुलभ हैं और दुर्भिक्ष आदि का भी भय नहीं है, वह भक्तप्रत्याख्यान के अयोग्य है।]
४. अन्त समय में धारने का निर्देश
त.सू./७/२२ मारणान्तिकीं की सल्लेखनां जोषिता।२२।
स.सि./७/२२/३६२/१२ 'अन्तग्रहणं' तद्भवमरणप्रतिपत्त्यर्थम् । मरणमन्तो मरणान्त:। स प्रयोजनमस्येति मारणान्तिकी। तथा वह श्रावक मारणान्तिक सल्लेखना का प्रीति पूर्वक सेवन करने वाला होता है। उसी भव के मरण का ज्ञान कराने के लिए सूत्र में मरण शब्द के साथ अन्त पद का ग्रहण किया है। मरण यही अन्त मरणान्त है और जिसका यह मरणान्त ही प्रयोजन है वह मारणान्तिकी कहलाती है। (रा.वा./७/२२/२/५५०/२१); (चा.सा./४७/५)
देखें - श्रावक / १ / ३ [अन्त समय समाधिमरण धरने वाला श्रावक साधक कहलाता है।]
५. अन्त समय की प्रधानता का कारण
भ.आ./मू./गा. जो जाए परिणिमित्ता लेस्साए संजुदो कुणइ कालं। तल्लेस्सो उववज्जइ तल्लेस्से चेव सो सग्गे।१९२२। जदि दा सुभाविदप्पा वि चरिमकालम्मि संकिलेसेण। परिवडदि वेदणट्ठो खवओ संथारमारूढो।१९४८। सुचिरमवि णिरदिचारं विहरित्ता णाणदंसणचरित्ते। मरणे विराधयित्ता अणंतससारिओ दिट्ठो।१५। =जो जीव जिस लेश्या से परिणत होकर मरण को प्राप्त होता है, वह उत्तर भव में उसी लेश्या का धारक होकर स्वर्ग में उत्पन्न होता है।१९२२। जिसने आत्मा को आराधनाओं से सुसंस्कृत किया था, तो भी मरण समय संक्लेशपरिणामों की उत्पत्ति होने से वह संस्तर पर आरूढ हुआ श्रमण सन्मार्ग से भ्रष्ट होता है।१९४८। पूर्व में न आराधी गयी रत्नत्रय की आराधना को यदि अन्तकाल में कोई भाये तो वह जीव स्थानु के दृष्टान्त को प्राप्त होता है (अर्थात् जैसे अन्धे को स्तम्भ से टकराकर नेत्र खुल जाने से भाग्य वश वहाँ से रत्नप्राप्ति हो जाय ऐसे ही उसे समझना।२४।)
सा.ध./८/१६ आराद्धोऽपि चिरं धर्मो विराद्धो मरणे मुधा। सत्त्वाराद्धस्तत्क्षणेंऽह: क्षिपत्यपि चिरार्जितं।१६। =चिर काल से आराधन किया हुआ धर्म भी यदि मरने के समय छोड़ दिया जाय वा उसकी विराधना की जाय तो वह निष्फल हो जाता है। और यदि मरने के समय उस धर्म की आराधना की जाय तो वह चिरकाल के उपार्जित पापों का भी नाश कर देता है।
६. परन्तु केवल अन्त समय में धरना अत्यन्त कठिन है
भ.आ./मू. व वि./२८/८३ चिरमभाविरत्नत्रयाणामन्तर्मुहूर्तकालभावनानां सिद्धिरिष्यते तत्किं चिरभावनयेत्यस्योत्तरमाचष्टे-पुव्वमभाविदजोग्गो आराधेज्ज मरणे जदि वि कोई। खण्णुगदिट्ठंतो सो तं खु पमाणं ण सव्वत्थ।२४। =जिन्होंने बहुत कालपर्यंत रत्नत्रय का आराधन नहीं किया परन्तु केवल अन्तर्मुहूर्त कालपर्यन्त ही आराधन किया है, उनको भी मोक्षलाभ हो गया है। अत: चिरकाल पर्यन्त रत्नत्रय की भावना आवश्यक नहीं है ? उत्तर-पूर्व काल में जिस जीव ने रत्नत्रय का कभी आराधन नहीं किया है, वह मरणसमय उसकी आराधना करले, ऐसा व्यक्ति स्थानु के दृष्टान्त को प्राप्त होता है। अर्थात् बिलकुल उस अन्धे व्यक्ति की भाँति है जो कि अकस्मात् स्थानु से सर टकरा जाने के कारण नेत्रवान हो गया है और साथ ही उस स्थानु की जड़ में पड़े रत्न का लाभ भी जिसे हो गया हो।२४।
७. अत: सल्लेखना की भावना व अभ्यास जीवन पर्यन्त करना योग्य है
भ.आ./मू./१८-२१ जदि पवयणस्स सारो मरणे आराहणा हवदि दिट्ठा। किं दाइं सेसकाले जदि जददि तवे चरित्ते य।१८। आराहणाए कज्जे परियम्मं सव्वदा वि य कायव्वं। परियम्मभाविदस्स हु सुहसज्झाराहणा होइ।१९। जह रायकुलपसूओ जोग्गं णिच्चमवि कुणइ परिकम्मं। तो जिदकरणो जुद्धे कम्मसमत्थो भविस्सदि हि।२०। इय सामण्णं साधू वि कुणदि णिच्चमवि जोगपरियम्मं। तो जिदकरणो मरणे झाणसमत्थो भविस्संति।२१। =प्रश्न-आगम की सारभूत रत्नत्रयपरिणति मरणकाल में यदि होती हुई देखी जाती है तो उससे भिन्न काल में चारित्र व तपश्चरण करने की क्या आवश्यकता है ?।१८। उत्तर-मरण समय में रत्नत्रय की सिद्धि के लिए सम्यग्दर्शनादि कारणकलाप सामग्री की अवश्य प्राप्ति कर लेना चाहिए, अर्थात् उसका सर्वदा अभ्यास करना योग्य है, क्योंकि ऐसा करने वाले को मरण समय में सुखपूर्वक अर्थात् बिना क्लेश के उस आराधना की सिद्धि हो जाती है।१९। जैसे राजपुत्र शस्त्रविद्या का नित्य अभ्यास करता है और उसी से वह युद्ध में उस प्रकार का कर्म करने को समर्थ होता है।२०। इसी प्रकार साधु भी आराधना के योग्य नित्य अभ्यास करता है, इसी से वह जितेन्द्रिय होता हुआ मरण समय ध्यान करने को समर्थ हो जाता है।२१।
पु.सि.उ./१७५-१७६ इयमेकैव समर्था धर्मस्वं मे मया समं नेतुम् । सततमिति भावनोया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या।१७५। मरणान्तेऽवश्यमहं विधिना सल्लेखनां करिष्यामि। इति भावनापरिणतो नागतमपि पालयेदिदं शीलम् ।१७६। =यह एक ही सल्लेखना मेरे धर्मरूपी धन को मेरे साथ ले चलने को समर्थ है। इस प्रकार भक्ति करके मरणान्त सल्लेखना को निरन्तर भावना चाहिए।१७५। मैं मरणकाल में अवश्य ही शास्त्रोक्त विधि से समाधिमरण करूँगा इस प्रकार भावनारूप परिणति करके मरणकाल प्राप्त होने के पहले ही यह सल्लेखनाव्रत पालना चाहिए।१७६। (सा.ध./७/५७)
सा.ध./८/१८-३१ सम्यग्भावितमार्गोऽन्ते स्यादेवाराधको यदि। प्रतिरोधि सुदुर्वारं किंचिन्नोदेति दुष्कृतम् ।१८। प्रस्थितां यदि तीर्थायम्रियते वान्तरे तदा। अस्त्येवाराधको यस्माद्भावना भवनाशिनी।३१। =यदि कोई दुर्निवार प्रतिरोधी कर्म उदय में न आवे तो सम्यक् प्रकार से पूर्व में भावित रत्नत्रय के कारण वह अन्तकाल में अवश्य ही आराधक होता है।१८। तीर्थक्षेत्र या निर्यापक के प्रति प्रारम्भ कर दिया है गमन जिसने, ऐसा व्यक्ति यदि मार्ग में मरण को प्राप्त हो जाये तो भी उस भावना के कारण आराधक ही गिना जाता है, क्योंकि भावना भवनाशिनी होती है।३०।
८. अन्त समय व जीवन पर्यन्त की आराधना का समन्वय
भ.आ./वि./१८/६८/६ मरणे या विराधना सा महतीं संसृतिमावहति। अन्यदा जातायामपि विराधनायां मृतकाले रत्नत्रयोपगतौ संसारोच्छित्तिर्भवत्येव ततो मरणकाले प्रयत्न: कार्य इत्यस्माभिरुपन्यस्तम् । इतरकालवृत्तं तु रत्नत्रयं संवरनिर्जरयोर्घातिकर्मणां च क्षयकारणनिमित्तं इतीष्यत एव। =मरण समय में रत्नत्रय की विराधना करने से विराधक को दीर्घकाल तक संसार में भ्रमण करना पड़ता है। परन्तु दीक्षा, शिक्षा आदि काल (देखें - काल ) में विराधना हो गयी हो तो भी मरणकाल में रत्नत्रय की प्राप्ति हो जाने से संसार का नाश हो जाता है। अत: मरणकाल में रत्नत्रय में परिणति करनी चाहिए। ऐसा हमारा अभिप्राय है। परन्तु इतर कालों में की गयी आराधना भी विफल नहीं होती, उससे कर्म का सवंर व निर्जरा होती है, तथा घाती कर्मों के क्षय करने में वह निमित्त होगी, ऐसा हम समझते हैं।
३. भक्तप्रत्याख्यान आदि विधि निर्देश
१. सल्लेखनामरण के व विधि के भेद
देखें - मरण / १ / ४ [पण्डितमरण तीन प्रकार है-भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी व प्रायोपगमन। भक्तप्रत्याख्यान दो प्रकार है-सविचार व अविचार। अविचार तीन प्रकार है-निरुद्धतर व परम निरुद्ध। निरुद्ध दो प्रकार है-प्रकाशरूप और अप्रकाशरूप।]
भ.आ./मू./१५५/३५२ किण्णु अधालंदविधी भत्तपइण्णेंगिणी य परिहारो। पादोवगमणजिणकप्पियं च विहरामि पडिवण्णो।१५५। =अथालन्द विधि, भक्तप्रतिज्ञा, इंगिनीमरण, परिहार विशुद्धि, चारित्र, पादोपगमन मरण और जिनकल्पावस्था, इनमें से कौन-सी अवस्था का आश्रय कर मैं रत्नत्रय में विहार करूँ ऐसा विचार करके साधु को धारण करने योग्य अवस्था को धारण करके समाधिमरण करना चाहिए।
२. भक्तप्रत्याख्यान आदि तीन लक्षण
ध.१/१,१,१/२३/४ तत्रात्मपरोपकारनिरपेक्षं प्रायोपगमनम् । आत्मोपकारसव्यपेक्षं परोपकारनिरपेक्षं इंगिनीमरणम् । आत्मपरोपकारसव्यपेक्षं भक्तप्रत्याख्यानमिति। =[भोजन का क्रमिक त्याग करके शरीर को कृश करने की अपेक्षा तीनों समान हैं। अन्तर है शरीर के प्रति उपेक्षा भाव में] तहाँ अपने और पर के उपकार की अपेक्षा रहित समाधिमरण को प्रायोपगमन विधान कहते हैं। जिस संन्यास में अपने द्वारा किये गये उपकार की अपेक्षा रहती है किन्तु दूसरे के द्वारा किये गये वैयावृत्त्य आदि उपकार की अपेक्षा सर्वथा नहीं रहती, उसे इंगिनी समाधि कहते हैं। जिस संन्यास में अपने और दूसरे दोनों के द्वारा किये गये उपकार की अपेक्षा रहती है, उसे भक्तप्रत्याख्यान संन्यास कहते हैं। (भ.आ./वि./२०६४/१७९१); (गो.क./मू./६१/५७); (चा.सा./१५४/४); (भा.पा./टी./३२/१४९/१४)
भ.आ./वि./२९/११३/६ पादाभ्यामुपगमनं ढौकनं तेन प्रवर्तितं मरणं पादोपगमनमरणम् । इतरमरणयोरपि पादाभ्यामुपगमनमस्तीति त्रैविध्यानुपपत्तिरिति चेन्न, मरणविशेषे वक्ष्यमाणलक्षणं रूढिरूपेणायं प्रवर्तते..। अथवा पाउग्गगमणमरणं इति पाठ:। भवान्तकरणप्रायोग्यं संहननं संस्थानं च इह प्रायोग्यशब्देनोच्यते। अस्य गमनं प्राप्ति:, तेन कारणभूतेन यन्निर्वार्यं करणं तदुच्यते पाउग्गगमण मरणमिति। भज्ये सेव्यते इति भक्तं, तस्य पइण्णा त्यागो भत्तपइण्णा। इतरयोरपि भक्तप्रत्याख्यानसंभवेऽपि रूढिवशान्मरणविशेषे एव शब्दोऽयं प्रवर्तते। इंगिनीशब्देन इंगितमात्मनो भण्यते स्वाभिप्रायानुसारेण स्थित्वा प्रवर्त्यमानं मरणं इंगिनीमरणं। =पादोपगमन इसका शब्दार्थ, 'अपने पाँव के द्वारा संघ से निकलकर और योग्य प्रदेश में जाकर जो मरण किया जाता है वह पादोपगमन मरण है। इतर मरणों में भी यद्यपि अपने पाँव से चलकर मरण करना समान है, परन्तु यहाँ रूढि का आश्रय लेकर मरण विशेष में ही यह लक्षण घटित किया है, इसलिये मरण के तीन भेदों की अनुपपत्ति नहीं बनती है। अथवा गाथा में 'पाओग्गगमणमरणं' ऐसा भी पाठ है। उसका ऐसा अभिप्राय है कि भव का अन्त करने योग्य ऐसे संस्थान और संहनन को प्रायोग्य कहते हैं। इनकी प्राप्ति होना प्रायोग्यगमन है। अर्थात् विशिष्ट संस्थान व विशिष्ट संहनन वाले ही प्रायोग्य अंगीकार करते हैं। भक्त शब्द का अर्थ आहार है और प्रतिज्ञा शब्द का अर्थ त्याग होता है। अर्थात् आहार का त्याग करके मरण करना वह भक्तप्रत्याख्यान है। यद्यपि आहार का त्याग इतर दोनों मरणों में भी होता है, तो भी इस लक्षण का प्रयोग रूढ़िवश मरण विशेष में ही कहा गया है। स्व अभिप्राय को इंगित कहते हैं। अपने अभिप्राय के अनुसार स्थित होकर प्रवृत्ति करते हुए जो मरण होता है उसी को इंगिनीमरण कहते हैं।
३. तीनों योग्य संहनन काल व क्षेत्र
भ.आ./वि./६४/११०/८ मरणं सा चेव भक्तप्रत्याख्यानमृतिरेव। ...एदंहि काले...। संहननविशेषसमन्वितानां इतरमरणद्वयं। न च संहननविशेषा: वज्रऋषभनाराचादय: अद्यत्वेऽमुष्मिन्क्षेत्रे सन्ति गणानां।...यदि ते वर्तयितुं इदानीतनानामसामर्थ्यं किं तदुपदेशेनेति चेत् स्वरूपपरिज्ञानात्सम्यग्ज्ञानं।
भ.आ./वि./२०४१/१७७९/१७ आद्येषु त्रिषु संहननेषु अन्यतमसंहनन: शुभसंस्थानोऽभेद्यधृतिकवचो जितकरणो जितनिद्रो नितरां शूर:। =१. भक्तप्रत्याख्यान मरण ही इस काल में उपयुक्त है। इतर दो अर्थात् इंगिनी व प्रायोपगमनमरण संहनन विशेष वालों के ही होते हैं। व्रजऋषभ आदि वे संहनन विशेष इस पंचमकाल में इस भरतक्षेत्र में मनुष्यों में होते नहीं हैं। यद्यपि इंगिनी व प्रायोपगमन की सामर्थ्य इस काल में नहीं है, फिर भी उनके स्वरूप का परिज्ञान कराने के लिए उनका उपदेश दिया गया है। २. इंगिनीमरण के धारक मुनि पहिले तीन (अर्थात् वज्रऋषभ नाराच, वज्रनाराच और नाराच) संहननों में से कोई एक संहनन के धारक रहते हैं। उनका शुभ संस्थान रहता है। वे निद्रा को जीतते हैं। महाबल व शूर रहते हैं।
४. तीनों के फल
भ.आ./मू./गा. इयमुक्कस्सियमाराधणमणुपालेत्तु केवली भविया। लोगग्गसिहरवासी हवंति सिद्धा धुयकिलेसा।१९२९। इयमज्झिममा राधणमणुपालित्ता सरीरयं हिच्चा। हुंति अणुत्तरवासी देवा सुविसुद्धलेस्सा य।१९३३। दंसणणाणचरित्ते उक्किट्ठा उत्तमोपधाणा य। इरियावहपडिवण्णा हवंति लवसत्तमा देवा।१९३४। जे वि हु जहण्णियं तेउलेस्समाराहणं उवणमंति। ते वि हु सोधम्माइसु हवंति देवा ण हेट्ठिल्ला।१९४०। एवमधक्खादविधिं साधित्ता इंगिणीं धुदकिलेसा। सिज्झंति केइ केई हवंति देवा विमाणेसु।२०६१। =इस प्रकार भक्तप्रत्याख्यान की उत्कृष्ट आराधना का पालनकर केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं। सम्पूर्ण कर्मक्लेश से मुक्त होकर लोकाग्र शिखरवासी सिद्ध परमेष्ठी होते हैं।१९२९। उसी भक्तप्रत्याख्यान की मध्यम आराधना का पालन कर शरीर का त्याग करने वाले मुनिराज विशुद्ध लेश्या को धारणकर अर्थात् उत्कृष्ट शुक्ललेश्या के स्वामी बनकर अनुत्तरवासी देवों में उत्पन्न होते हैं।१९३३। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र पालने में पूर्ण दक्ष, उत्कृष्ट तप ध्यान वगैरह नियमों के धारक, ईर्यापथ को जिन्होंने प्राप्त किया है अर्थात् कल्पवासी देवत्व की प्राप्ति योग्य शुभास्रव को जो प्राप्त हो गये हैं, ऐसे मुनिराज लवसत्तम देव होते हैं। अर्थात् मरकर नवग्रैवेयक, अनुदिश विमान में रहने वाले देव हो जाते हैं।१९३४। तेजोलेश्या के धारक ऐसे क्षपक की भक्तप्रत्याख्यान आराधना को जघन्य आराधना कहते हैं। इस आराधना के आराधक क्षपक सौधर्मादिक स्वर्गों में देव होते हैं। इन देवों से हीन देवों में इनका जन्म नहीं होता।१९४०। यहाँ तक जो इंगिनी मरण की विधि कही है, उसको सिद्ध करके कोई मुनि सम्पूर्ण कर्मक्लेशों को दूर करके मुक्त होते हैं। और कोई वैमानिक देव होते हैं।२०६१।
५. भक्त प्रत्याख्यान की जघन्य व उत्कृष्ट कालावधि
भ.आ./मू.२५२/४७४ उक्कस्सेण भत्तपइण्णाकालो जिणेहिं णिद्दिट्ठो। कालम्मि संपहुत्ते बारसबरिसाणि पुण्णाणि।२५२। =आयुष्काल अधिक होने पर अर्थात् भक्त प्रतिज्ञा का उत्कृष्ट कालप्रमाण जिनेन्द्र भगवान् ने बारह वर्ष प्रमाण कहा है।२५२।
ध.१/१,१,१/२४/१ तत्र भक्तप्रत्याख्यानं त्रिविधं जघन्योत्कृष्टमध्यमभेदात् । जघन्यमन्तर्मुहूर्त प्रमाणम् । उत्कृष्टभक्तप्रत्याख्यानं द्वादशवर्षप्रणाम् । मध्यमेतयोरन्तरालमिति। =भक्तप्रत्याख्यान विधि जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार की है। जघन्य का प्रमाण अन्तर्मुहूर्तमात्र है। उत्कृष्ट का बारह वर्ष है। इन दोनों के अन्तरालवर्ती सर्व कालप्रमाण मध्यम भक्तप्रत्याख्यान का है। (गो.क./मू./५९-६०/५७); (चा.सा./१५४/४); (अन.ध./७/१०१/७२६)
६. साधुओं के लिए भक्त प्रत्याख्यान की सामान्य विधि
मू.आ./१०९-१११ सव्वं पाणारंभं पच्चक्खामि अलीयवयणं च। सव्वमदत्तादाणं मेहुण्ण परिग्गहं चेव।१०९। सम्मं मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केण वि। आसाए वोसरित्ताणं समाधिं पडिवज्जइ।११०। सव्वं आहारविहिं सण्णाओ आसाए कसाए य। सव्वं चेय ममत्तिं जहामि सव्वं खमावेमि।१११। =संक्षेप से प्रत्याख्यान करने वाला ऐसी प्रतिज्ञा करता है, कि मैं सर्व प्रथम हिंसादि पाँचों पापों का त्याग करता हूँ।१०९। मेरे सब जीवों में समता भाव है, किसी के साथ भी मेरा वैर नहीं है इसलिए मैं सर्व आकांक्षाओं को छोड़कर समाधि (शुद्ध) परिणाम को प्राप्त होता हूँ।११०। मैं अब अन्नपान आदि आहार की अवधि को, आहार संज्ञा को, सम्पूर्ण आशाओं का, कषायों का और सर्व पदार्थों में ममत्व भाव का त्याग करता हूँ।१११। ( देखें - संस्कार / २ में ३१वीं क्रिया)
देखें - सल्लेखना / ३ / ९ [जीवित का सन्देह होने पर तो 'उपसर्ग टलने पर पारणा कर लूँगा' ऐसा आहारत्याग करता है, और मरण निश्चित होने पर सर्वथा आहार का त्याग करता है।]
७. समर्थ श्रावकों के लिए भक्त प्रत्याख्यान की सामान्य विधि
र.क.श्रा./१२४-१२८ स्नेहं वैरं संगं परिग्रहं चापहाय शुद्धमना:। स्वजनं परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत् प्रियवचनै:।१२४। आलोच्य सर्वमेन: कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजं । आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निश्शेषं।१२५। शोकं भयमवसादं क्लेदं कालुष्यमरतिमपि हित्वा। सत्त्वोत्साहमुदीर्य च मन: प्रसाद्यं श्रुतैरमृतै:।१२६। आहारं परिहाप्य क्रमश: स्निग्धं विवर्द्धयेत्पानं। स्निग्धं च हापयित्वा खरपानं पूरयेत्क्रमश:।१२७। खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या। पञ्चनमस्कारमनास्तनुं त्यजेत्सर्वयत्नेन।१२८। =[सल्लेखना धारण करने वाला शीत उष्ण में हर्ष विषाद न करे-(चा.सा.)] स्नेह, वैर, परिग्रह को छोड़कर शुद्ध होता हुआ प्रिय वचनों से अपने कुटुम्बियों और चाकरों से भी क्षमा करावे और आप भी सबको क्षमा करे।१२४। छलकपट रहित और कृत कारित अनुमोदना सहित किये हुए समस्त पापों की आलोचना करके मरण पर्यन्त रहने वाले समस्त महाव्रतों को धारण करे।१२५। शोक, भय, विषाद, राग, कलुषता और अरति का त्याग करके तथा अपने बल और उत्साह को प्रगट करके संसार के दु:खरूपी संताप को दूर करने वाले अमृतरूप शास्त्रों के श्रवण से मन को प्रसन्न करे।१२६। क्रम क्रम से आहार को छोड़कर दुग्ध वा छाछ को बढ़ावे और पीछे दुग्धादिक को छोड़कर कांजी और गरम जल को बढ़ावे।१२७। तत्पश्चात् उष्ण जलपान का भी त्याग करके और शक्त्यनुसार उपवास करके पंचनमस्कार मन्त्र को मन में धारण करता हुआ शरीर को छोड़े।१२८। (चा.सा./४८/२); (सा.ध./८/५७,६४,६५,६७); (विशेष देखें - सल्लेखना / ४ )।
८. असमर्थ श्रावकों के लिए भक्तप्रत्याख्यान की सामान्य विधि
वसु.श्रा./२७१-२७२ धरिऊण वत्थमेत्तं परिग्गहं छंडिऊण अवसेसं। सगिहे जिणालए वा तिविहाहारस्स वोसरणं।२७१। जं कुणइ गुरुसयासम्मि सम्ममालोइऊण तिविहेण। सल्लेखणं चउत्थं सुत्ते सिक्खावयं भणियं।२७२। =[उपरोक्त दोनों शीर्षकों में कथित राग द्वेष का त्याग, समता धारण और परिजनों आदि से क्षमा आदि की यहाँ भी अनुवृत्ति कर लेनी चाहिए] वस्त्रमात्र परिग्रह को रखकर और अवशिष्ट समस्त परिग्रह को छोड़कर अपने ही घर में अथवा जिनालय में रहकर जो श्रावक गुरु के समीप में मन वचन काय से अपनी भले प्रकार आलोचना करके पान के सिवाय शेष तीन प्रकार के आहार का (खाद्य, स्वाद्य और लेह्य इन तीन का) त्याग करता है, उसे उपासकाध्ययन सूत्र में सल्लेखना नाम का चौथा शिक्षाव्रत कहा गया है।२७१-२७२।
सा.ध./८/६६-व्याध्याद्यपेक्षयामभो वा समाध्यर्थं विकल्पयेत् । भृशं शक्तिक्षये जह्यात्तदप्यासन्नमृत्युक:।६६। =व्याधि आदि की अपेक्षा से समाधि में निश्चल होने के लिए उस क्षपक गुरु की आज्ञानुसार केवल पानी पीने की प्रतिज्ञा रख लेनी चाहिए। और मृत्यु का समय निकट आने पर जब शरीर की शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाय तब उसे जल का भी त्याग कर देना चाहिए।६६। (और भी देखें - सल्लेखना / ४ / ११ / ३ )।
देखें - मरण / १ / ४ [बिना सल्लेखना धारण किये अपने घर में ही संस्तरारूढ हो साम्यता पूर्वक शरीर को त्यागना बालपण्डित मरण है]।
९. मृत्यु का संशय या निश्चय होने की अपेक्षा भक्तप्रत्याख्यान विधि
मू.आ./११२-११४ एदम्हि देसयाले उवक्कमो जीविदस्स, जदि मज्झं। एदं पच्चक्खाणं णित्थिण्णे पारणा होज्जं।११२। सव्वं आहारविहिं पच्चक्खामी य पाणयं वज्ज। उवहिं च वोसरामि य दुविहे तिविहेण सावज्जं।११३। जो कोइ मज्झ उवधी सब्भंतरबाहिरो य हवे। आहारं च सरीरं जावाजीवं य वोसरे।११४। =जीवित में सन्देह होने की अवस्था में ऐसा विचार करे कि इस देश में इस काल में मेरा जीने का सद्भाव रहेगा तो ऐसा त्याग है कि जब तक उपसर्ग रहेगा तब तक आहारादिक का त्याग है। उपसर्ग दूर होने के पश्चात् यदि जीवित रहा तो फिर पारणा करूँगा।११२। [पर जहाँ निश्चय हो जाय कि इस उपसर्गादि में मैं नहीं जी सकूँगा। वहाँ ऐसा त्याग करे।] मैं जल को छोड़ अन्य तीन प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ। बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह को तथा मन वचन काय की पाप क्रियाओं को छोड़ता हूँ।११३। जो कुछ मेरे अभ्यन्तर बाह्य परिग्रह है उसे तथा चारों प्रकार के आहारों को और अपने शरीर को यावज्जीवन छोड़ता हूँ। यही उत्तमार्थ त्याग है।११४।
१०. सविचार व अविचार भक्त प्रत्याख्यान के सामान्य लक्षण व स्वामी
भ.आ./वि./६५/१९२/६ द्विविधमेव भक्तप्रत्याख्यानं। सविचारमध अविचारं इति। विचरणं नानागमनं विचार:। विचारेण वर्तते इति सविचारं एतदुक्तं भवति। वक्ष्यमाणर्हलिङ्गादिविकल्पेन सहितं भक्तप्रत्याख्यानं इति। अविचारं वक्ष्यमाणार्हादिनानाप्रकाररहितं। भवतु द्विविधं। सविचारभक्तप्रत्याख्यानं कस्य भवति इत्यस्योत्तरं। सविचारं भक्तप्रत्याख्यानं अणागाढे सहसा अनुपस्थिते मरणे चिरकालभाविनि मरणे इति यावत् । सपरक्कमस्स सह पराक्रमेण वर्तते इति सपराक्रमस्तस्य भवे भवेत् । पराक्रम: उत्साह: एतेनैव सहसोपस्थिते मरणे पराक्रमरहितस्य अविचारभक्तप्रत्याख्यानं भवतीति लभ्यते यतो विचारभक्तप्रत्याख्यानं अस्य अस्मिन्काले इति सूत्रे नोक्तं। =भक्तप्रत्याख्यानमरण के सविचार व अविचार ऐसे दो भेद हैं। तहाँ नाना प्रकार से चारित्र पालना, चारित्र में विहार करना विचार है। इस विचार के अर्ह, लिंग आदि ४० अधिकार हैं जिनका विवेचन आगे करेंगे ( देखें - सल्लेखना / ४ ) उस विचार के साथ जो वर्तता है वह सविचार है और जो उन अर्ह लिंगादि रूप विचार के विकल्पों के साथ नहीं वर्तता सो अविचार है। तहाँ जो गृहस्थ अथवा मुनि उत्साह व बलयुक्त है और जिसका मरणकाल सहसा उपस्थित नहीं हुआ है अर्थात् जिसका मरण दीर्घकाल के अनन्तर प्राप्त होगा ऐसे साधु के मरण को सविचारभक्तप्रत्याख्यान मरण कहते हैं। जिसको सामर्थ्य नहीं है और जिसका मरणकाल सहसा उपस्थित हुआ है ऐसे पराक्रमरहित साधु के मरण को अविचारभक्त प्रत्याख्यान कहते हैं। [तहाँ सविचार विधि तो आगे सल्लेखना/४ के अन्तर्गत पृथक् से सविस्तार दी गयी है और अविचार विधि निम्न प्रकार है।]
११. अविचार भक्तप्रत्याख्यान विधि
भ.आ./मू./२०११-२०२४ तत्थ अविचारभत्तपइण्णा मरणम्मि होइ आगाढो। अपरक्कमस्स मुणिणो कालम्मि असंपुहत्तम्मि।२०११। तत्थ पढमं णिरुद्धं णिरुद्धतरयं तहा हवे विदियं। तदियं परमणिरुद्धं एवं तिविधं अवीचारं।२०१२। तस्स णिरुद्धं भणिदं रोगादंकेहिं जो समभिभूदो। जंघाबलपरिहीणो परगणगमणम्मि ण समत्थो।२०१३। इय सण्णिरुद्धमरणं मणियं अणिहारिमं अवीचारं। सा चेव जधाजोग्गं पुव्वुत्तविधी हवदि तस्स।२०१५। दुविहं तं पि अणीहारिमं पगासं च अप्पगासं च। जणणादं च पगासं इदरं च जणेण अण्णादं।२०१६। खवयस्स चित्तसारं खित्तं कालं पडुच्च सजणं वा। अण्णम्मि य तारिसयम्मि कारणे अप्पगासं तु।२०१७। बालग्गिवग्घमहिसगयरिंछ पडिणीय तेण मेच्छहिं। मुच्छाविसूचियादीहिं होज्ज सज्जो हु वावत्ती।२०१८। जाव ण वाया खिप्पदिं बलं च विरियं च जाव कायम्मि। तिव्वाए वेदणाए जाव य चित्तं ण विक्खत्तं।२०१९। णच्चा संवटिज्जं तमाउगं सिग्घमेव तो भिक्खू। गणियादीणं सण्णिहिदाणं आलोचए सम्मं।२०२०। एवं णिरुद्धदरयं विदियं अणिहारिमं अवीचारं। सो चेव जधाजोग्गे पुव्वुत्तविधी हवदि तस्स।२०२१। वालादिएहिं जइया अक्खित्ता होज्ज भिक्खुणो वाया। तइया परमणिरुद्धं भणिदं मरणं अवीचारं।२०२२। णच्चा संवट्टिजं तमाउगं सिग्घमेव तो भिक्खू। अरहंतसिद्धसाहूण अंतिगे सिग्घमालोचे।२०२३। आराधणाविधी जो पुव्वं उववण्णिदो सवित्थारो। सो चेव जुज्जमाणो एत्थ विही होदि णादव्वो।२०२४। =पराक्रमरहित मुनि को सहसा मरण उपस्थित होने पर अविचारभक्त प्रत्याख्यान करना योग्य है।२०१२। वह तीन प्रकार है-निरुद्ध, निरुद्धतर व परमनिरुद्धतर व परमनिरुद्ध।२०१२। रोगों से पीड़ित होने के कारण जिसका जंघाबल क्षीण हो गया है और जो परगण में जाने को समर्थ नहीं है, वह मुनि निरुद्ध अविचार भक्तप्रत्याख्यान करते हैं।२०१३। यह मुनि परगण में न जाकर स्वगण में ही रहता हुआ यथायोग्य पूर्वोक्त अर्थात् सविचार भक्तप्रत्याख्यान वाली विधि का पालन करता है।२०१५। इसके दो भेद हैं-प्रकाश और अप्रकाश। जो अन्य जनों के द्वारा जाना जाय वह प्रकाशरूप है और जो दूसरों के द्वारा न जाना जाय वह अप्रकाशरूप है।२०१६। क्षपक का मनोबल अर्थात् धैर्य, क्षेत्र, काल, उसके बान्धव आदि कारणों का विचार करके क्षपक के उस निरुद्धाविचार भक्तप्रत्याख्यान को प्रगट करते हैं अथवा अप्रगट करते हैं। अर्थात् अनुकूल कारणों के होने पर तो वह मरण प्रगट कर दिया जाता है और प्रतिकूल कारणों के होने पर प्रगट नहीं किया जाता।२०१७। सर्प, अग्नि, व्याघ्र, भैंसा, हाथी, रीछ, शत्रु, चोर, म्लेच्छ, मूर्च्छा, तीव्र शूलरोग इत्यादि से तत्काल मरण का प्रसंग प्राप्त होने पर।२०१८। जब तक वचन व कायबल शेष रहता है और जब तक तीव्र वेदना से चित्त आकुलित नहीं होता।२०१९। तब तक आयुष्य को प्रतिक्षण क्षीण होता जानकर शीघ्र ही अपने गण के आचार्य आदि के पास अपने पूर्व दोषों की आलोचना करनी चाहिए।२०२०। इस प्रकार निरुद्धतर नाम के दूसरे अविचार भक्त प्रत्याख्यान का स्वरूप है। इसमें भी यथायोग्य पूर्वोक्त अर्थात् सविचार भक्त प्रत्याख्यान वाली सर्व विधि ( देखें - सल्लेखना / ४ ) होती है।२०२१। व्याघ्रादि उपरोक्त कारणों से पीड़ित साधु के शरीर का बल और वचन बल यदि क्षीण हो जाय तो परमनिरुद्ध नाम का मरण प्राप्त होता है।२०२२। अपने आयुष्य को शीघ्र ही क्षीण होता जान वह मुनि शीघ्र ही मन में अर्हन्त व सिद्ध परमेष्ठी को धारण करके उनसे अपने दोषों की आलोचना करे।२०२३। आराधना विधि का जो पूर्व में सविस्तार वर्णन किया है अर्थात् सविचार भक्तप्रत्याख्यान विधि ( देखें - सल्लेखना / ४ ) उसी की ही यहाँ भी यथायोग्य रूप से योजना करनी चाहिए।२०२४।
१२. इंगिनी मरण विधि
भ.आ./मू./२०३०-२०६१/१७७३ जो भत्तपदिण्णाए उवक्कमो वण्णिदो सवित्थारो। सो चेव जधाजोग्गो उवक्कमो इंगिणीए वि।२०३०। णिप्पादित्ता सगणं इंगिणिविधिसाधणाए परिणमिया।...।२०३२। परियाइगमालोचिय अणुजाणित्ता दिसं महजणस्स। तिविधेण खमावित्ता सवालवुड्ढाउलं गच्छं।२०३३। एवं च णिक्कमित्ता अंतो बाहिं च थंडिले जोगे। पुढवीसिलामए वा अप्पाणं णिज्जवे एक्को।२०३५। पुव्वुत्ताणि तणाणि य जाचित्ता थंडिलम्मि पुव्वुत्ते। जदणाए संथरित्ता उतरसिरमधव पुव्वसिरं।२०३६। अरहादिअंतिगं तो किच्चा आलोचणं सुपरिसुद्धं। दंसणणाणचरित्तं परिसारेदूण णिस्सेसं।२०३८। सव्वं आहारविधिं जावज्जीवाय वोसरित्ताणं। वोसरिदूण असेसं अभ्भंतरबाहिरे गंथे।२०३९। ठिच्चा णिसिदित्ता वा तुवट्टिदूणव सकायपडिचरणं। सयमेव णिरुवसंग्गे कुणदि विहारम्मि सो भयबं।२०४१। सयमेव अप्पणो सो करेदि आउंटणादि किरियाओ। उच्चारादीणि तथा सयमेव विकिंचिदे विधिणा।२०४२। सव्वो पोग्गलकाओ दुक्खत्ताए जदि तमुवणमेज्ज। तधवि य तस्स ण जायदि ज्झाणस्स विसोत्तिया को वि।२०४७। सव्वो पोग्गलकाओ सोक्खत्ताए जदि वि तमुवणमेज्ज। तधवि हु तस्स ण जायदि ज्झाणस्स विसोतिया को वि।२०४८। वायणपरियट्टणपुच्छणाओ मोत्तूण तधय धम्मथुदिं। सुत्तच्छपोरिसीसु वि सरेदि सुत्तत्थमेय मणो।२०५२। एवं अट्ठवि जामे अनुवट्टो तच्च ज्झादि एयमणो। जदि आधच्चा णिद्दा हविज्ज सो तत्थ अपदिण्णो।२०५३। सज्झायकालपडिलेहणादिकाओ ण संति किरियाओ। जम्हा सुसाणमज्झे तस्स य झाणं अपडिसिद्धं।२०५४। आवासगं च कुणदे उवधोकालम्मि जं जहिं कमदि। उवकरणं पि पडिलिहइ उवधोकालम्मि जदणाए।२०५५। पादे कंटयमादिं अच्छिम्मि रजादियं जदावेज्ज। गच्छदि अधाविधिं सो परिणीहरणे य तुसिणीओ।२०५७। वेउव्वणमाहारयचारणखीरासवादिलद्धीसु। तवसा उप्पण्णासु वि विरागभावेण सेवदि सो।२०५८। मोणाभिग्गहणिरिदो रोगादंकादिवेदणाहेदुं। ण कुणदि पडिकारं सो तहेव तण्हाछुहादीणं।२०५९। उवएसो पुण आइरियाणं इंगिणिगदो वि छिण्णकधो। देवेहिं माणुसेहिं व पुट्ठो धम्मं कधेदित्ति।२०६०। =भक्त प्रतिज्ञा में जो प्रयोगविधि कही है ( देखें - सल्लेखना / ४ ) वही यथा सम्भव इस इंगिनीमरण में भी समझनी चाहिए।२०३०। अपने गण को साधु आचरण के योग्य बनाकर इंगिनी मरण साधने के लिए परिणत होता हुआ, पूर्व दोषों की आलोचना करता है, तथा संघ का त्याग करने से पहिले अपने स्थान में दूसरे आचार्य की स्थापना करता है। तत्पश्चात् बाल वृद्ध आदि सभी गण से क्षमा के लिए प्रार्थना करता है।२०३२-२०३३। स्वगण से निकलकर अन्दर बाहर से समान ऊँचे व ठोस स्थडिल का आश्रय लेता है। वह स्थंडित निर्जन्तुक पृथिवी या शिलामयी होना चाहिए।२०३५। ग्राम आदि से याचना करके लाये हुए तृण उस पूर्वोक्त स्थंडिल पर यत्नपूर्वक बिछाकर संस्तर तैयार करे जिसका सिराहना पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रखे।२०३६। तदनन्तर अर्हन्त आदिकों के समीप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में लगे दोषों की आलोचना करके रत्नत्रय को शुद्ध करे।२०३८। सम्पूर्ण आहारों के विकल्पों का तथा बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का यावज्जीवन त्याग करे।२०३९। कायोत्सर्ग से खड़े होकर, अथवा बैठकर अथवा लेटकर एक कर्वट पर पड़े हुए वे मुनिराज स्वयं ही अपने शरीर की क्रिया करते हैं।२०४१। शौच व प्रतिलेखन आदि क्रियाएँ स्वयं ही करते हैं।२०४२। जगत् के सम्पूर्ण पुद्गल दु:खरूप या सुखरूप परिणमित होकर उनको दु:खी सुखी करने को उद्यत होवें तो भी उनका मन ध्यान से च्युत नहीं होता।२०४७-२०४८। वे मुनि याचना पृच्छना परिवर्तन और धर्मोपदेश इन सभों का त्याग करके सूत्रार्थ का अनुप्रेक्षात्मक स्वाध्याय करते हैं।२०५२। इस प्रकार आठों पहरों में निद्रा का परित्याग करके वे एकाग्र मन से तत्त्वों का विचार करते हैं। यदि बलात् निद्रा आ गयी तो निद्रा लेते हैं।२०५३। स्वाध्याय काल और शुद्धि वगैरह क्रियाएँ उनको नहीं हैं। श्मशान में भी उनको ध्यान करना निषिद्ध नहीं है।२०५४। यथाकाल षडावश्यक कर्म नियमित रूप से करते हैं। सूर्योदय व सूर्यास्त में प्रयत्नपूर्वक उपकरणों की प्रतिलेखना करते हैं।२०५५। पैरों में काँटा चुभने और नेत्र में रजकण पड़ जाने पर वे उसे स्वयं नहीं निकालते। दूसरों के द्वारा निकाला जाने पर मौन धारण करते हैं।२०५७। तप के प्रभाव से प्रगटी वैक्रियक आदि ऋद्धियों का उपयोग नहीं करते।२०५८। मौन पूर्वक रहते हैं। रोगादिकों का प्रतिकार नहीं करते।२०५९। किन्हीं आचार्यों के अनुसार वे कदाचित् उपदेश भी देते हैं।२०६०।
देखें - अगला शीर्षक /अंतिमा गाथा-[कोई मुनि कायोत्सर्ग से और कोई दीर्घ उपवास से शरीर का त्याग करते?]
१३. प्रायोपगमन मरण विधि
भ.आ./मू./२०६३-२०७१/१९७० पाओवगमणमरणस्स होदि सो चेव वुवक्कमो सव्वो। वुत्तो इंगिणीमरणस्सुक्कमो जो सवित्थारो।२०६३। णवरिं तणसंथारो पाओवगदस्स होदि पडिसिद्धो। आदपरपओगेण य पडिसिद्धं सव्वपरियम्मं।२०६४। सो सल्लेहिददेहो जम्हा पाओवगमणमुवजादि। उच्चारादिविकिंचणमवि णत्थि पवोगदो तम्हा।२०६५। पुढवी आऊतेऊवणप्फदितसेसु जदि वि साहरिदो। वोसट्टचत्तदेहो अधाउगं पालए तत्थ।२०६६। मज्जणयगंधपुप्फोवयारपडिचारणे किरंते। वोसट्टचत्तदेहो अधाउगं पालए तधवि।२०६७। वोसट्टचत्तदेहो दु णिक्खिवेज्जो जहिं जधा अंगं। जावज्जीवं तु सयं तहिं तमंगं ण चालेज्ज।२०६८। एवं णिप्पडियम्मं भणंति पाओवगमणमरहंता। णियमा अणिहारं तं सया णीहारमुवसग्गे।२०६९। उवसग्गेण य साहरिदो सो अण्णत्थ कुणदि जं कालं। तम्हा वुत्तं णीहारमदो अण्णं अणीहारं।२०७०। पडिमापडिवण्णा वि हु करंति पाओवगमणमप्पेगे।२०७१। =इंगिनीमरण में जो सविस्तार विधि कही है वही प्रायोपगमन में भी समझनी चाहिए।२०६३। इतनी विशेषता है कि यहाँ तृण के संस्तर का निषेध है, क्योंकि यहाँ स्व व पर दोनों के प्रयोग का अर्थात् शुश्रूषा आदि का निषेध है।२०६४। ये मुनि अपने मूत्र व विष्ठा तक का भी निराकरण न स्वयं करते हैं और न अन्य से कराते हैं।२०६५। सचित्त, पृथिवी, अग्नि, जल, वनस्पति व त्रस जीवनिकायों में यदि किसी ने उनको फेंक दिया तो वे शरीर से ममत्व छोड़कर अपनी आयु समाप्ति होने तक वहाँ ही निश्चल रहते हैं।२०६६। इसी प्रकार यदि कोई उनका अभिषेक करे या गंध पुष्पादि से उनकी पूजा करे तो वे न उनके ऊपर क्रोध करते हैं, न प्रसन्न होते हैं और न ही उनका निराकरण करते हैं।२०६७। जिसके ऊपर इन मुनि ने अपना अंग रख दिया है, उस पर से यावज्जीव वे उस अंग को बिलकुल हिलाते नहीं है।२०६८। इस प्रकार स्व व पर दोनों के प्रतिकार से रहित इस मरण को प्रायोपगमनमरण कहते हैं। निश्चय से यद्यपि यह मरण अनीहार अर्थात् अचल है परन्तु उपसर्ग की अपेक्षा इसको चल भी माना जाता है।२०६९। उपसर्ग के वश होने पर अर्थात् किसी देव आदि के द्वारा उठाकर अन्यत्र ले जाये जाने पर स्वस्थान के अतिरिक्त यदि अन्यस्थान में मरण होता है तो उसको नीहारप्रायोपगमन मरण कहते हैं और जो उपसर्ग के अभाव में स्वस्थान में ही होता है उसको अनीहार कहते हैं।२०७०। कायोत्सर्ग को धारणकर कोई मुनि प्रायोपगमन मरण करते हैं, और कोई दीर्घकाल तक उपवास कर इस मरण से शरीर का त्याग करते हैं। इसी प्रकार इंगिनी मरण के भी भेद समझने चाहिए।२०७१।
४. सविचार भक्तप्रत्याख्यान विधि
१. इस विषय के ४० अधिकार
भ.आ./मू./६६-७०/१९३ सविचारभत्तपच्चक्खाणस्सिणमो उवक्कमो होइ। तत्थ य सुत्तपदाइं चत्तालं होंति णेयाइं।६६। अरिहे लिंगे सिक्खा विणय समाधी य अणियदविहारे। परिणामोवधिजहणासिदो य तह भावणाओ य।६७। सल्लेहणा दिसा खामणा य अणुसिट्ठि परगणे चरिया। मग्गण सुट्ठिम उवसंपया य पडिछा य पडिलेहा।६८। आपुच्छा य पडिच्छणमेगस्सालोयणा य गुणदोसा। सेज्जा संथारो वि य णिज्जवग पयासणा हाणी।६९। पच्चक्खाणं खामण खमणं अणुसट्ठिसारणाकवचे। समदाज्झाणे लेस्सा फलं विजहणा य णेयाइं।७०। =सविचार भक्तप्रत्याख्यान के वर्णन करने में चालीस सूत्र या अधिकार जानने चाहिए।६६। [जिनके नाम व संक्षिप्त लक्षण निम्न प्रकार हैं]।
सं. | नाम | लक्षण (भ.आ./वि./६७-७०) |
१ | अर्ह | अगले अधिकारों को धारण करने के योग्य व्यक्ति। |
२ | लिंग | शिक्षा विनय आदि रूप साधन सामग्री के चिह्न। |
३ | शिक्षा | ज्ञानोपार्जन |
४ | विनय | ज्ञानादि के प्रति विनय होना |
५ | समाधि | मन की एकाग्रता |
६ | अनियत विहार | अनियत स्थानों में रहना |
७ | परिणाम | कर्तव्य परायणता |
८ | उपाधि त्याग | बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग |
९ | श्रिति | शुभ परिणामों की उत्तरोत्तर उन्नति। |
१० | भावना | उत्तरोत्तर उत्तम भावनाओं का अभ्यास |
११ | सल्लेखना | कषाय व शरीर का कृश करना |
१२ | दिशा | अपने स्थान पर स्थापित करने योग्य बालाचार्य। |
१३ | क्षमणा | अन्योन्य क्षमा की याचना करना। |
१४ | अनुशिष्टि | आगमानुसार उपदेश करना। |
१५ | परगणचर्या | अपना संघ छोड़कर अन्य संघ में जाना। |
१६ | मार्गण | समाधिमरण कराने में समर्थ आचार्य की खोज। |
१७ | सुस्थित | परोपकार तथा आचार्य पद योग्य कार्य करने में प्रवीण गुरु। |
१८ | उपसंपदा | आचार्य के चरणमूल में गमन करना। |
१९ | परीक्षा | उत्साह, अभिलाषा, परिचारक गण आदि की परीक्षा करना। |
२० | प्रतिलेखन या निरूपण | राज्य देश आदि का शुभाशुभ अवलोकन। |
२१ | पृच्छा | संग्रह से अनुग्रह की अनुज्ञा प्राप्त करना। |
२२ | एक संग्रह | प्रतिचारक मुनियों की स्वीकृति पूर्वक एक आराधक का ग्रहण। |
२३ | आलोचना | गुरु के आगे अपने अपराध कहना। |
२४ | गुण दोष | आलोचना के गुण दोषों का वर्णन। |
२५ | शय्या | आराधक योग्य वसतिका। |
२६ | संस्तर | आराधक योग्य शय्या। |
२७ | निर्यापक | सहायक आचार्य आदि। |
२८ | प्रकाशन | अन्तिम आहार को दिखाना। |
२९ | हानि | क्रम से आहार को दिखाना। |
३० | प्रत्याख्यान | जल के अतिरिक्त तीन प्रकार के आहार का त्याग। |
३१ | क्षमण | आचार्य आदि से क्षमा की याचना। |
३२ | क्षपणा | प्रतिक्रमण आदि द्वारा कर्मों का क्षय। |
३३ | अनुशिष्टि | आचार्य द्वारा उद्यत मुनि को उपदेश। |
३४ | सारणा | दु:ख पीड़ित मोहग्रस्त साधु को सचेत करना। |
३५ | कवच | क्षपक को वैराग्योत्पादक उपदेश देना। |
३६ | समता | जीवन मरण लाभ अलाभ के प्रति उपेक्षा। |
३७ | ध्यान | एकाग्रचिन्तानिरोध। |
३८ | लेश्या | कषायानुरञ्जित योग प्रवृत्ति। |
३९ | फल | आराधना से प्राप्त फल। |
४० | शरीर त्याग | आराधक का शरीर त्याग। |
२. इन अधिकारों का कथन क्रम
नोट-[उपरोक्त ४० अधिकारों में सल्लेखना धारने की विधि का क्रम से व्याख्यान किया गया है। तहाँ नं.१-११, १७, १८, २०, २१ व २४ ये अधिकार अन्वर्थक होने से सरल है। नं.१२, १३, १४, २३, २९, ३०, ३१, ३२, ३६, ३७ इनका कथन सल्लेखना/४ में किया गया है। नं.१६, २२, २७, २८, ३४ व ३५ का कथन सल्लेखना/५ में; नं. ३८ का सल्लेखना/१ में और नं.३९ व ४० का सल्लेखना/६ में किया गया है।]
३. आचार्य पदात्याग विधि
भ.आ./मू./२७२-२७४ सल्लेहणं करेंतो जदि आयरिओ हवेज्ज तो तेण। ताए वि अवत्थाए चितेदव्वं गणस्स हियं।२७२। कालं सभावित्ता सव्वगणमणुदिसं च वाहरिय। सोमतिहिकरणणक्खत्तविलग्गे मंगलोगासे।२७३। गच्छाणुपालणत्थं आहोइय अत्तगुणसमं भिम्खू। तो तम्मि गणविसग्गं अप्पकहाए कुणदि धीरो।२७४।=सल्लेखना करने के लिए उद्युक्त हुआ क्षपक यदि आचार्य पदवी का धारक होगा तो उसको क्षपक की अवस्था में भी अर्थात् जब तक आयु का अन्त निकट न आवे तब तक अपने गण के हित की चिन्ता करनी चाहिए।२७३। अपनी आयु अभी कितनी रही है इसका विचार कर तदनन्तर अपने शिष्य समुदाय को और अपने स्थान में जिसकी स्थापना की है, ऐसे बालाचार्य को बुलाकर, सौम्य तिथि, करण, नक्षत्र और लग्न के समय, शुभप्रदेश में।२७३। अपने गुण के समान जिसके गुण हैं ऐसा वह बालाचार्य गच्छ का पालन करने के लिए योग्य है, ऐसा विचारकर उस पर अपने गण को विसर्जित करते हैं, और उस समय उसे थोड़ा सा उपदेश भी देते हैं।२७४। (भ.आ./मू./१७७/३९५) ( देखें - संस्कार / २ में २९वीं क्रिया का लक्षण)।
४. सबसे क्षमा
भ.आ./मू./गा. आमंतेऊण गणिं गच्छम्मि तं गणिं ठवेदूण। तिविहेण खमावेदि हु स वालउड्ढाउलं गच्छं।२७६। जं दीहकालसंवासदाए ममकारणेहरागेण। कडुगपरुसं च भणिया तमहं सव्वं खमावेमि।२७७। अब्भहियजादहासो मत्थम्मि कदंजली कदपणामो। खामेइ सव्वसंघं संवेगं संजणेमाणो।७११। मणवयणकायजोगेहिं पुरा कदकारिदे अणुमदे वा। सव्वे अवराधपदे एस खमावेमि णिस्सल्लो।७१२। =उस नवीन आचार्य को बुलाकर उसको गण के बीच में स्थापित कर और स्वयं अलग होकर बाल व वृद्ध आदि मुनियों से पूर्ण ऐसे गण से मन वचन काय से वह आचार्य क्षमा माँगते हैं। हे मुनिगण ! तुम्हारे साथ मेरा दीर्घकाल तक सहवास हुआ है। मैंने ममत्व से, स्नेह से, द्वेष से, आपको कटु और कठोर वाक्य कहे होंगे। इसलिए आप सब मेरे ऊपर क्षमा करेंगे ऐसी आशा है।२७७। (आयु का अन्त निकट आने पर) वह क्षपक अपने मस्तक पर दो हाथ रखकर सर्व संघ को नमस्कार करता है और साधर्मिकों में अनुराग उत्पन्न करता हुआ क्षमा ग्रहण कराता है।७१२। मन, वचन और शरीर के द्वारा जो-जो अपराध मैंने किये हैं, उनके लिए आप लोग मुझे क्षमा करो। मैं शल्य रहित हुआ हूँ।७१२। (मू.आ./५८)।
५. परगणचर्या व इसका कारण
भ.आ./मू./३८४-४०० एवं आउच्छित्ता सगणं अब्भुज्जदं पविहरंतो। आराधणाणिमित्तं परगणगमणे मइं कुणदि।३८४। सगणे आणाकोवो फरुसं कलहपरिदावणादो य। णिब्भयसिणेहकालुगिणझाणविग्घो य असमाधी।३८५। परगणवासी य पुणो अव्वावारो गणी हवदि तेसु। णत्थि य असमाहाणं आणाकोवम्मि वि कदम्मि।३८७। कलहपरिदावणादि दोसे वा अमाउले करंतेसु। गणिणी हवेज्ज सगणे ममत्तिदोसेण असमाधि।३९०। तण्हादिएसु सहणिज्जेसु वि सगणम्मि णिब्भओ संतो। जाएज्ज वे सेएज्ज य अकप्पिदं किं पि वीसत्थो।३९२। एदे दोसा गणिणो विसेसदो होंति सगणवासिस्स। भिक्खुस्स वि तारिसयस्स होंति पाएण ते दोसा।३९६। एदे सव्वे दोसा ण होंति परगणणिवासिणो गणिणो। तम्हा सगणं पयहिय वच्चदि सो परगणं समाधीए।३९७। संविग्गवज्जभीरुस्स पादमूलम्मि तस्स विहरंतो। जिणवयणसव्वसारस्स होदि आराधओ तादी।४००।=इस प्रकार अपने गण से पूछकर अपने रत्नत्रय में अतिशय प्रयत्न से प्रवृत्ति करने वाले वे आचार्य आराधना के निमित्त परगण में गमन करने की इच्छा मन में धारण करते हैं।३८४। स्वसंघ में रहने से आज्ञाकोप, कठोरवचन, कलह, दु:ख, विषाद, खेद वगैरह निर्भयता, स्नेह, कारुण्य, ध्यानविघ्न और असमाधि ये दोष उत्पन्न होते हैं।३८५। जब आचार्य परगण में जाकर रहते हैं तब उस गणस्थ मुनियों को वे उपदेश आज्ञा करते नहीं, जिससे उनके द्वारा आज्ञाभंग का प्रसंग आता नहीं। और यदि कदाचित् आज्ञाभंग हो भी जाय तो भी 'इन पर तो मैंने कोई उपकार किया नहीं है, जो कि ये मेरी आज्ञा मानें' ऐसा विचारकर उनको वहाँ असमाधि दोष उत्पन्न नहीं होता है।३८७। अथवा अपने संघ में क्षुल्लकादि मुनि कलह, शोक, सन्तापादि परस्पर में करते हुए देखकर आचार्य को अपने गणपर ममता होने से चित्त की एकाग्रता नष्ट हो जायेगी।३९०। समाधिमरणोद्युक्त आचार्य को भूख-प्यास वगैरह का दु:ख सहन करना चाहिए। परन्तु वे अपने संघ में रहकर निर्भय होकर आहार जल वगैरह पदार्थों की याचना करेंगे अथवा स्वयं आहारादि का सेवन करेंगे। और भय व लज्जा रहित होकर छोड़ी हुई अयोग्य वस्तुओं का भी ग्रहण करेंगे।३९२। स्वगण में रहने वाले आचार्यों को ये दोष होंगे तथा जो आचार्य के समान उपाध्याय तथा प्रवर्तक मुनि हैं उन्हें भी स्वगण में रहने से ये दोष होंगे।३९६। परगण निवासी गणी को ये दोष नहीं होते हैं। इसलिए स्वगण को छोड़कर परगण में जाते हैं।३९७। संसारभीरु, पापभीरु और आगम के ज्ञाता आचार्य के चरणमूल में ही वह यति समाधिमरणोद्यमी होकर आराधना की सिद्धि करता है।४००।
६. उद्यत साधु के उत्साह आदि का विचार
भ.आ./मू./५१५-५१६ तो तस्स उत्तमट्ठे करणुच्छाहं पडिच्छदि विहण्हू। खीरोदणदव्वुग्गहदुगुंछणाए समाधीप।५१५। खवयस्सुवसंपण्णस्स तस्स आराधणा अविक्खेवं। दिव्वेण णिमित्तेण य पडिलेहदि अप्पमत्तो सो।५१६। =यह क्षपक रत्नत्रयाराधन की क्रिया करने में उत्साही है या नहीं, इसकी परीक्षा करके अथवा मिष्ठ आहारों में यह अभिलषित है या विरक्त, इसकी परीक्षा करके ही आचार्य उसे अनुज्ञा देने का निर्णय करते हैं।५१५। हमारे संघ का इस क्षपक ने समाधि के लिए आश्रय लिया है। इसकी समाधि निर्विघ्न समाप्त होगी या नहीं, इस विषय का भी आचार्य शुभाशुभ निमित्तों से निर्णय कर लेते हैं। यह भी एक परीक्षा है।५१६।
७. आलोचना पूर्वक प्रायश्चित्त ग्रहण
भ.आ./मू./गा. इय पयविभागियाए व ओघियाए व सल्लमुद्धरिय। सव्वगुणसोधिकंखी गुरूवएस समायरइ।६१४। आलोयणं सुणित्ता तिक्खुत्तो भिक्खुणो उवायेण। जदि उज्जुगीत्ति णिज्जइ जहाकदं पट्ठवेदव्वं।६१७। पडिसेवणादिचारे जदि आजंपदि जहाकमं सव्वे। कुव्वंति तहो सोधिं आगमववहारिणो तस्स।६२१। सो कदसामाचारी सोज्झं कट्टुं विधिणा गुरुसयासे। विहरदि सुविसुद्धप्पा अब्भुज्जदचरणगुणकंखी।६३०। =विशेषालोचना करके अथवा सामान्यालोचना करके मायाशल्य को हृदय से निकालकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपश्चरणों में शुद्धि की अभिलाषा रखता हुआ गुरु के द्वारा कहा हुआ प्रायश्चित्त, रोष, दीनता और अश्रद्धान का त्यागकर क्षपक ग्रहण करता है।६१४। सम्पूर्ण आलोचना सुनकर गुरु क्षपक को तीन बार उपायसहित पूछते हैं। तब यदि यह क्षपक सरल परिणाम का है, ऐसा गुरु के अनुभव में आ जाय तो उसको प्रायश्चित्त देते हैं अन्यथा नहीं।६१७। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से हुए सम्पूर्ण दोष क्षपक अनुक्रम से कहेगा तो प्रायश्चित्त दान कुशल आचार्य उसको प्रायश्चित्त देते हैं।६२१। जिसका आचार निर्दोष है ऐसा वह क्षपक प्रायश्चित्त लेकर शास्त्रकथित विधि के अनुसार गुरु समीप रहकर अपने को निर्मल चारित्रयुक्त बनाता हुआ रत्नत्रय में प्रवृत्ति करता है, तथा समाधिमरण के लिए जिस विशिष्ट आचरण को स्वीकार किया है, उसमें उन्नति की इच्छा करता है।६३०। (विशेष दे.'आलोचना' व 'प्रायश्चित्त'); (मू.आ./५५-५६)
८. क्षपणा, समता व ध्यान
भ.आ./मू./गा. एवं पडिक्कमणाए काउसग्गे य विणयसज्झाए। अणुपेहासु य जुत्तो संथारगओ धुणदि कम्मं।७१९। एवं अधियासेंतो सम्मं खवओ परीसहे एदे। सव्वत्थ अपर्डि उवेदि सव्वत्थ समभावं।१६८३। मित्तेमुयणादीसु य सिस्से साधम्मिए कुले चावि। रागं वा दोसं वा पुव्वं जायंपि सो जहइ।१६८६। इट्ठेसु अणिट्ठेसु य सद्दफरिसरसरूवगंधेसु। इहपरलोए जीविदमरणे माणावमाणे च।१६८८। सव्वत्थ णिव्विसेसो होदि तदो रागरोसरहिदप्पा। खवयस्स रागदोसा हु उत्तमट्ठं विराधेंति।१६८९। सेज्जा संथारं पाणयं च उवधिं तहा सरीरं च। विज्जावच्चकरा वि य वोसरइ समत्तमारूढा।१६९३। एवं सव्वत्थेसु वि समभावं उवगओ विसुद्धप्पा। मित्ती करुणं मुदिदमुवेक्खं खवओ पुण उवेदि।१६९५। एवं कसायजुद्धंमि हवदि खवयस्स आउधं झाणं। ज्झाणविहूणो खवओ जुद्धेव णिरावुधो होदि।१८९२।=१. उक्त क्रम से संस्तरारूढ जो क्षपक प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, विनय, स्वाध्याय, अनुप्रेक्षा इनमें एकाग्र होकर कर्म का क्षय करता है।७१९। २. इस प्रकार समस्त परीषहों को अव्याकुलता से सहन करने वाला यह क्षपक शरीर, वसतिका, गण और परिचारक मुनि इन सर्व वस्तुओं में ममत्वरहित होता है। रागद्वेषों को छोड़कर समताभाव में तत्पर होता है।१६८३। मित्र, बन्धु, माता, पिता, गुरु वगैरह, शिष्य और साधर्मिक इनके ऊपर दीक्षा ग्रहण के पूर्व में अथवा कवच से अनुगृहीत होने के पूर्व जो राग-द्वेष उत्पन्न हुए थे, क्षपक उनका त्याग करता है।१६८६। इष्ट और अनिष्ट ऐसे शब्द, रस, गन्ध, स्पर्श, रूप विषयों में, इहलोक और परलोक में, जीवित और मरण में, मान और अपमान में यह क्षपक समानभाव धारण करता है। ये राग-द्वेष रत्नत्रय, उत्तमध्यान और समाधिमरण का नाश करते हैं, इसलिए क्षपक अपने हृदय से इनको दूर करता है।१६८८-१६८१। सम्पूर्ण रत्नत्रय पर आरूढ होकर यह क्षपक वसतिका, तृणादिका संस्तर, पानाहार अर्थात् जलपान, पिच्छ, शरीर और वैयावृत्त्य करने वाले परिचारक मुनि, इनका निर्मोह होकर त्याग करता है।१६९३। इस प्रकार सम्पूर्ण वस्तुओं में समताभाव धारणकर यह क्षपक अन्त:करण को निर्मल बनाता है। उसमें मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाओं को स्थान देता है।१६९५। ३. कषायों के साथ युद्ध करते समय ध्यान मुनि को शस्त्र के समान उपयोगी होता है। जैसे शस्त्र रहित वीर पुरुष युद्ध में शत्रु का नाश नहीं कर सकता है, वैसे ही ध्यान के बिना कर्म शत्रु को मुनि नहीं जीत सकता है।१८९२। (विशेष देखें - ध्यान / २ / ९ )।
९. कुछ विशेष भावनाओं का चिन्तवन
भ.आ./मू./गा. जावंतु केइ संगा उदीरया होंति रागदोसाणं। ते वज्जिंतो जिणदि हु रागं दोसं च णिस्संगो।१७८। एदाओ पंच वज्जिय इणमो छट्ठीए विहरदे धीरो। पंचसमिदो तिगुत्तो णिस्संगो सव्वसंगेसु।१८६। तवभावणा य सुदसत्तभावणेगत्तभावणे चेव। धिदिबलविभावणाविय असंकिलिट्ठावि पंचविहा।१८७। =जितना कुछ भी परिग्रह है वह सब राग और द्वेष को उत्पन्न करने वाला है। और नि:संग होकर अर्थात् परिग्रह को छोड़ने से क्षपक राग द्वेष को भी जीत लेता है।१७८। इन कन्दर्पी आदि पाँच कुत्सित भावनाओं का ( देखें - भावना / ३ ) त्यागकर जो धीर मुनि पाँच समिति और तीन गुप्तियों का पालनकर सम्पूर्ण परिग्रहों से निस्पृह रहते हैं वे ही छठी भावना के आश्रय से रत्नत्रय में प्रवृत्त होते हैं।१८६। तप, श्रुताभ्यास, भयरहित होना, एकत्व, धृतिबल, ये पाँच प्रकार की असंक्लिष्ट भावनाएँ हैं, जिन्हें क्षपक को भाना चाहिए।१८७।
मू.आ./७५-८२ उड्मधो तिरियम्हि दु कदाणि बालमरणाणि बहुगाणि। दंसणणाणसहगदो पंडियमरणं अणुमरिस्से।७५। जइ उप्पज्जइ दुक्खं तो दट्ठव्वो सभावदो णिरये। कदमं मए ण पत्तं संसारे संसरंतेण।७८। संसारचक्कवालम्मि मए सव्वेपि पोग्गला बहुसो। आहारिदा य परिणामिदा ण य मे गदा तित्ती।७९। आहारणिमित्तं किर मच्छा गच्छंति सत्तमीं पुढविं। सच्चित्तो आहारो ण कप्पदि मणसावि पत्थेदुं।८२। =ऊर्ध्व अधो व तिर्यक् लोक में मैंने बालमरण बहुत किये हैं, अब दर्शनज्ञानमयी होकर संन्यासपूर्वक पण्डित मरण करूँगा।७५। यदि संन्यास के समय क्षुधादि की वेदना उपजे तो नरक के स्वरूप का चिन्तवन करना चाहिए तथा जन्म, जरा, मरणरूप संसार में मैंने कौन से दु:ख नहीं उठाये ऐसा चिन्तवन करना चाहिए।७८। चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण करते हुए मैंने सभी पुद्गल बहुत बार भक्षण किये हैं, और खल रस रूप से परिणमित किये हैं परन्तु आज तक मेरी इनसे तृप्ति नहीं हुई है।७९। आहार के कारण ही तन्दुल मत्स्य सातवें नरक जाता है। इसलिए जीवघात से उत्पन्न सचित्त आहार मन से भी याचना करने योग्य नहीं।८२।
१०. मौन वृत्ति
भ.आ./मू./१७४/३९१ गणिणा सह संलाओ कज्जं पइ सेसएहिं साहूहिं। मोणं से मिच्छजणे भज्जं सण्णीसु सजणे य।१७४। =क्षपक को संघ में आचार्य के साथ तो बोलना चाहिए, पर अन्य साधुओं के साथ अल्प मात्र ही भाषण करना चाहिए अधिक नहीं। मिथ्यादृष्टि जनों के साथ बिलकुल मौन से रहे तथा विवेकी जनों या स्वजनों के साथ थोड़ा बहुत बोले अथवा बिलकुल न बोले।१७४।
११. क्रमपूर्वक आहार व शरीर का त्याग
१. १२ वर्षों का कार्यक्रम
भ.आ./मू./२५३-२५४ जोगेहिं विचित्तेहिं दु खवेइ संवच्छराणि चत्तारि। वियडी णिज्जूहित्ता चत्तारि पुणो वि सोसेदि।२५३। आयंबिलणिव्वियडीहिं दोण्णि आयंबिलेण एक्कं च। अद्धं णादिविगट्ठेहिं अदो अद्धं विगट्ठेहिं।२५४। =[भक्त प्रत्याख्यान का उत्कृष्ट काल १२ वर्ष प्रमाण है-( देखें - सल्लेखना / ३ / ५ )। इन बारह वर्षों का कार्यक्रम निम्न प्रकार हैं।] प्रथम चार वर्ष अनेक प्रकार के कायक्लेशों द्वारा बिताये, आगे के चार वर्षों में दूध, दही, घी, गुड़ आदि रसों का त्याग करके शरीर को कृश करता है। इस तरह आठ वर्ष व्यतीत होते हैं।२५३। दो वर्ष तक आचाम्ल व निर्विकृति भोजन ग्रहण करके रहता है। (दे.वह वह नाम)। एक वर्ष केवल आचाम्ल भोजन ग्रहण करता है। छह महीने तक मध्यम तपों द्वारा शरीर को क्षीण करता है और अन्त के छह महीनों में उत्कृष्ट तपों द्वारा शरीर को क्षीण करता है।२५४। (देखें - आगे उपशीर्षक नं .४)।
२. आहारत्याग की १२ प्रतिमाएँ
देखें - सल्लेखना / १ / ३ [यदि आयु व देह की शक्ति अभी बहुत शेष है तो शास्त्रोक्त १२ भिक्षु प्रतिमाओं को ग्रहण करे, जिससे कि क्षपक को पीड़ा न हो।]
भ.आ./मूलाराधना टीका/२४९/४७१/५ ईदृशमाहारं यदि मासाभ्यन्तरे लभेऽहं ततो भोजनं करोमि नान्यथेति। तस्य मासस्यान्तिमे दिने प्रतिमायोगमास्ते। सा एका भिक्षुप्रतिमा एवं पूर्वोक्ताहाराच्छतगुणेनोत्कृष्टदुर्लभान्यान्याभ्यवहारस्यावग्रहं गृह्णाति। यावद्द्वित्रिचतु:पञ्चषट्सप्तमासा: सर्वत्रान्तिमदिनकृतप्रतिमायोगा: एता:। सप्त भिक्षुप्रतिमा:। पुन: पूर्वाहाराच्छतगुणोत्कृष्टस्य दुर्लभस्य अन्यान्याहारस्य सप्त-सप्त दिनानि वारत्रयं व्रतं गृह्णाति। एतास्तिस्रो भिक्षुप्रतिमा:। ततो रात्रिदिनं प्रतिमायोगेन स्थित्वा पश्चाद्रात्रिप्रतिमायोगमास्ते। एते द्वे भिक्षुप्रतिमे। पूर्वमवधिमन:पर्ययज्ञाने प्राप्य पश्चात्सूर्योदये केवलज्ञानं प्राप्नोति। एवं द्वादशभिक्षुप्रतिमा:। =१. मुनि स्वयं ठहरे हुए देश में उत्कृष्ट और दुर्लभ आहार का व्रत ग्रहण करता है। अर्थात् उत्कृष्ट और दुर्लभ इस प्रकार का आहार यदि एक महीने के भीतर-भीतर मिल गया तो मैं आहार करूँगा अन्यथा नहीं। ऐसी प्रतिज्ञा करके उस महीने के अन्तिम दिन में वह प्रतिमा-योग धारण करता है। यह एक भिक्षु प्रतिमा हुई।-(२-७) पूर्वोक्त, आहार से शतगुणित उत्कृष्ट और दुर्लभ ऐसे भिन्न-भिन्न आहार का व्रत वह क्षपक ग्रहण करता है यह व्रत क्रम से दो, तीन, चार, पाँच, छह और सात मास तक के लिए ग्रहण करता है। प्रत्येक अवधि के अन्तिम दिन में प्रतिमायोग धारण करता है। ये कुल मिलकर सात भिक्षु प्रतिमाएँ हुईं।-(८-१०) पुन: सात-सात दिनों में पूर्व आहार की अपेक्षा से शतगुणित उत्कृष्ट और दुर्लभ ऐसे भिन्न-भिन्न आहार तीन दफा लेने की प्रतिज्ञा करता है। आहार की प्राप्त होने पर तीन, दो और एक ग्रास लेता है। ये तीन भिक्षु प्रतिमाएँ हैं।-(११-१२) तदनन्तर रात्रि और दिन भर प्रतिमायोग से खड़ा रहकर अनन्तर प्रतिमायोग से ध्यानस्थ रहता है। ये दो भिक्षुप्रतिमाएँ हुईं।-प्रथम अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान की प्राप्ति होती है। अनन्तर सूर्योदय होने पर वह क्षपक केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। इस रीति से १२ भिक्षु प्रतिमाएँ होती है।
३. शक्ति की अपेक्षा तीन प्रकार के अथवा चारों प्रकार के आहार का त्याग
भ.आ./मू./७०७-७०८ खवयं पच्चक्खावेदि तदो सव्वं च चदुविधाहारं। संघसमवायमज्झे सागारं गुरुणिओगेण।७०७। अहवा समाधिहेदुं कायव्वो पाणयस्स आहारो। तो पाणयंपि पच्छा वोसरिदव्वं जहाकाले।७०८। =तदनन्तर संघ के समुदाय में सविकल्पक प्रत्याख्यान अर्थात् चार प्रकार के आहारों का निर्यापकाचार्य क्षपक को त्याग कराते हैं, और इतर प्रत्याख्यान भी गुरु की आज्ञा से वह क्षपक करता है।७०७। अथवा क्षपक के चित्त की एकाग्रता के लिए पानक के अतिरिक्त अशन खाद्य और स्वाद्य ऐसे तीन प्रकार के आहारों का त्याग कराना चाहिए। जब क्षपक की शक्ति अतिशय कम होती है तब पानक का भी त्याग करना चाहिए। अर्थात् परीषह सहन करने में खूब समर्थ है उसको चार प्रकार के आहार का और असमर्थ साधु को तीन प्रकार के आहार का त्याग कराना चाहिए। (और भी देखें - सल्लेखना / ३ / ७ -९)।
४. आहार त्याग का सामान्य क्रम
भ.आ./मू./६९८-६९९ अणुसज्जमाणए पुण समाधिकामस्स सव्वमुहरिय। एक्केक्कं हावेंतो ठवेदि पोराणमाहारे।६९८। अणुपुव्वेण य ठविदो सवट्टेदूण सव्वमाहारं। पाणयपरिक्कमेण दु पच्छा भावेदि अप्पाणं।६९९। संथारत्थो खवओ जइया खीणो हवेज्ज तो तइया। वोसरिदव्वो पुव्व विधिणेव सोपाणगाहारो।१४९२। =निर्यापकाचार्य के द्वारा आहाराभिलाषा के दोष बताने पर भी क्षपक उस आहार में यदि प्रेमयुक्त ही रहा तो समाधिमरण की इच्छा रखने वाले उस क्षपक के सम्पूर्ण आहारों में से एक-एक आहार को घटाते हैं, अर्थात् क्षपक के एक-एक आहार का क्रम से त्याग कराते हैं।६९८। आचार्य उपर्युक्त क्रम से मिष्टाहार का त्याग कराकर क्षपक को सादे भोजन में स्थिर करते हैं। तब वह क्षपक भात वगैरह अशन और अपूप वगैरह खाद्य पदार्थों को क्रम से कम करता हुआ पानकाहार करने में अपने को उद्युक्त करता है। (पानक के अनेकों भेद हैं-देखें - पानक )।६९९। संस्तर पर सोया हुआ क्षपक जब क्षीण होगा तब पानक के विकल्प का भी उपरोक्त सूत्रों के अनुसार त्याग करना चाहिए।१४९२। (और भी देखें - सल्लेखना / ३ / ७ -९)।
१२. क्षपक के लिए उपयुक्त आहार
भ.आ./मू./गा. सल्लेहणासरीरे तवोगुणविधी अणेगहा भणिदा। आयंबिलं महेसी तत्थ दु उक्कस्सयं विंति।२५०। छट्ठट्ठमदसमदुबालसेहिं भत्तेहिं अदिविकट्ठेहिं। मिदलहुगं आहारं करेदि आयंबिलं बहुसो।२५१। आयंबिलेण सिंभं खीयदि पित्तं च उवसमं जादि। वादस्स रक्खणट्ठं एत्थ पपत्तं खु कादव्वं।७०१। अकडुगमतित्तयमणं विलंब अकसायमलवणं मधुरं। अविरस मदुव्विगंधं अच्छमणुण्हं अणदिसीदं।१४९०। पाणगमसिंभलं परिपूयं खीणस्स तस्स दादव्वं। जह वा पच्छं खवयस्स तस्स तह होइ दायव्वं।१४९१। =शरीर सल्लेखना के लिए जो तपों के अनेक विकल्प पूर्वोक्त गाथाओं में कहे हैं, उनमें आचाम्ल भोजन करना उत्कृष्ट विकल्प है, ऐसा महर्षि गण कहते हैं।२५०। दो दिन का उपवास, तीन दिन का उपवास, चार दिन का उपवास, पाँच दिन का उपवास ऐसे उत्कृष्ट उपवास होने के अनन्तर मित और हलका ऐसा कांजी भोजन ही क्षपक बहुश: करता है।२५१। आचाम्ल के कफ का क्षय होता है, पित्त का उपशम होता है और वात का रक्षण होता है, अर्थात् वात का प्रकोप नहीं होता। इसलिए आचाम्ल में प्रयत्न करना चाहिए।७०१। जो आहार कटुक, तिक्त, आम्ल, कसायला, नमकीन, मधुर, विरस, दुर्गन्ध, अस्वच्छ, उष्ण और शीत नहीं है, ऐसा आहार क्षपक को देना चाहिए अर्थात् मध्यम रसों का आहार देना चाहिए।११९०। जो पेय पदार्थ क्षीण क्षपक को दिया जात है, वह कफ को उत्पन्न करने वाला नहीं होना चाहिए और स्वच्छ होना चाहिए। क्षपक को जो देने से पथ्य-हितकर होगा ऐसा ही पानक देने योग्य है।१४९१।
देखें - भक्ष्याभक्ष्य / १ / ३ [शरीर की प्रकृति तथा क्षेत्र काल के अनुसार देना चाहिए]।
५. भक्तप्रत्याख्यान में निर्यापक का स्थान
१. योग्य निर्यापक व उसकी प्रधानता
भ.आ./मू./गा. पंचविधे आचारे समुज्जदो सव्वसमिदचेट्ठाओ। सो उज्जमेदि खवयं पंचविधे सुट्ठ आयारे।४२३। आयारत्थो पुण से दोसे सव्वे वि ते विवज्जेदि। तम्हा आयारत्थो णिज्जवओ होदि आयरिओ।४२७। =[क्षपक को सल्लेखना धारण कराने वाला आचार्य आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, कर्ता, आयापायदर्शनोद्योत और उत्पीलक होता है। इनके अतिरिक्त वह अपरिस्रावी निर्वापक, प्रसिद्ध, कीर्तिमान, और निर्यापक के गुणों से पूर्ण होना चाहिए-( देखें - आचार्य / १ / २ )] जो आचार्य स्वयं पंचाचार में तत्पर रहते हैं, अपनी सब चेष्टाएँ जो समितियों के अनुसार ही करते हैं वे ही क्षपक को निर्दोष-तथा पंचाचार में प्रवृत्ति करा सकते हैं।४२३। आचारवत्त्व गुण को धारण करने वाले आचार्य ऊपर लिखे हुए दोषों का (देखें - अगला शीर्षक ) त्याग करते हैं, इसलिए गुणों में प्रवृत्त होने वाले दोषों से रहित ऐसे आचार्य निर्यापक समझने चाहिए।४२७। (और भी देखें - आगे शीर्षक नं .३)
भ.आ./मू./गा. गीदत्थपादमूले होंति गुणा एवमादिया बहुगा। ण य होइ संकिलेसो ण चावि उप्पज्जदि विवत्ती।४४७। खवओ किलामिदंगो पडिचरय गुणेण णिववुदिं लहइ। तम्हा णिव्विसिदव्वं खवएण पकुव्वयसयासे।४५८। धिदिबलकरमादहिदं महुरं कण्णाहुदिं जदि ण देइ। सिद्धिसुहमावहंती चत्ता साराहणा होइ।५०५। इय णिव्ववओ खवयस्स होइ णिज्जावओ सदायरिओ। होइ य कित्ती पधिदा एदेहिं गुणेहिं जुत्तस्स।५०६। =जो आचार्य सूत्रार्थज्ञ है उसके पादमूल में जो क्षपक समाध्यर्थ रहेगा, उसको उपर्युक्त अनेक गुणों की प्राप्ति होती है, उसके संक्लेश परिणाम नहीं होते, न ही रत्नत्रय में कोई बाधा होती है। इसलिए आधारगुणयुक्त आचार्य का आश्रय लेना ही क्षपके के लिए योग्य है।४४७। रोग से ग्रसित क्षपक आचार्य के द्वारा की गयी शुश्रूषा से सुखी होता है, इसलिए प्रकुर्वी गुण के धारक आचार्य के पास ही रहना श्रेयस्कर है।४५८। निर्यापकाचार्य की वाणी धैर्य उत्पन्न करती है, वह आत्मा के हित का वर्णन करती है, मधुर और कर्णाह्लादक होती है। यदि ऐसी वाणी का प्रयोग न करें तो क्षपक आराधनाओं का त्याग करेगा।५०५। इस प्रकार से क्षपक का मन आह्लादित करने वाले आचार्य निर्यापक हो सकते हैं अर्थात् निर्वापकत्व गुणधारक आचार्य क्षपक का समाधिमरण करा सकता है। इन आचारवत्त्वादि गुणों से परिपूर्ण आचार्य की जगत् में कीर्ति होती है।५०६।
२. चारित्रहीन निर्यापक का आश्रय हानिकारक है
भ.आ./मू./४२४-४२६ सेज्जोवधिसंथारं भत्तं पाणं च चयणकप्पगदो। उवकप्पिज्ज असुद्धं पडिचरए वा असंविग्गे।४२४। सल्लेहणं पयासेज्ज गंधं मल्लं च समणुजाणिज्जा। अप्पाउग्गं व कधं करिज्ज सइरं व जंपिज्ज।४२५। ण करेज्ज सारणं वारणं च खवयस्स चयणकप्पगदो। उद्देज्ज वा महल्लं खवयस्स किंचणारंभं।४२६। =पंचाचार से भ्रष्ट आचार्य क्षपक को वसतिका, उपकरण, संस्तर, भक्त, पान, उद्गमादि दोष सहित देगा। वह वैराग्य रहित मुनियों को उसकी शुश्रूषा के लिए नियुक्त करेगा, जिनसे क्षपक का आत्महित होना अशक्य है।४२४। वह क्षपक की सल्लेखना को लोक में प्रगट कर देगा, उसके लिए लोगों को पुष्पादि लाने को कहेगा, उसके सामने परिणामों को बिगाड़ने वाली कथाएँ कहेगा, अथवा योग्यायोग्य का विचार किये बिना कुछ भी बकने लगेगा।४२५। वह न तो क्षपक को रत्नत्रय में करने योग्य उपदेश देगा और न उसे रत्नत्रय से च्युत होने से रोक सकेगा। उसके निमित्त पट्टकशाला, पूजा, विमान आदि के अनेक आरम्भ लोगों से करायेगा, इसलिए ऐसे आचार्य के सहवास में क्षपक का हित होना शक्य नहीं।४२६।
भ.आ./मू./ उपोद्धात-क्षपकस्य चतुरङ्गं कथमगृहीतार्थो नाशयतीत्यारेकायामित्थमसौ नाशयतीति दर्शयति)-सम्मं सुदिमलहंतो दीहद्धं मुत्तिमुवगमित्ता वि। परिवडइ मरणकाले अकदाधारस्स पासम्मि।४३३। सक्का वंसी छेत्तं तत्तो उक्कढिओ पुणो दुक्खं। इय संजमस्स वि मणो विसएसुक्कडि्ढदुं दुक्खं।४३४। पढमेण व दोवेण व वाहिज्जंतस्स तस्स खवयस्स। ण कुणदि उवदेसादिं समाधिकरणं अगीदत्थो।४३७। =प्रश्न-चतुरंग को न जानने वाला आचार्य क्षपक का नाश कैसे करता है ? उत्तर-[अनादि संसार चक्र में उत्तम देश, कुल आदि उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं।-गा.४३०-४३२] योग्य कार्य में प्रवृत्ति करने वाली स्मृति प्राप्त होने पर भी और चिरकाल तक संयम पालनकर लेने पर भी अल्पज्ञ आचार्य के आश्रय से मरणकाल में क्षपक संयम छोड़ देता है।४३३। जिस प्रकार बाँस के समूह में से एक छोटे बाँस को उखाड़ना बहुत कठिन है उसी प्रकार मन विषयों से निकालकर संयम में स्थापित करना अत्यन्त कठिन है।४३४। अगीतार्थ आचार्य क्षुधा और तृषा से पीड़ित क्षपक को उपदेशादिक नहीं करता इसलिए उसके आश्रय से उसको समाधि मरण लाभ नहीं होता।४३७।
३. योग्य निर्यापक का अन्वेषण
भ.आ./मू./गा. पंचच्छसत्तजोयणसदाणि तत्तोऽहियाणि वा गंतुं। णिज्जावगमण्णेसदि समाधिकामो अणुण्णादं।४०१। एक्कं व दो व तिण्णि य वारसवरिसाणि वा अपरिदंतो। जिणवयणमणुण्णादं गवेसदि समाधिकामो दु।४०२। आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधिणिज्झंझा। अज्जवमद्दवलाघवतुट्ठी पल्हादणं च गुणा।४०९। =जिसको समाधिमरण की इच्छा है ऐसा मुनि ५००,६००,७०० अथवा इससे भी अधिक योजन तक विहारकर शास्त्रोक्त निर्यापक का शोध करता है।४०१। वह एक, दो, तीन वर्ष से लेकर बारह वर्ष तक खेदयुक्त न होता हुआ जिनागम से निर्णीत निर्यापकाचार्य का अन्वेषण करता है।४०२। निर्यापकत्व की शोध करने के लिए विहार करने से क्षपक को आचारशास्त्र, जीतशास्त्र और कल्पशास्त्र इनके गुणों का प्रकाशन होता है। आत्मा की शुद्धि होती है, संक्लेश परिणाम नष्ट होते हैं। आर्जव, मार्दव, लाघव (लोभरहितता) सन्तुष्टी, आह्लाद आदि गुण प्रगट होते हैं।४०९।
४. एक निर्यापक एक ही क्षपक को ग्रहण करता है
भ.आ./मू./५१९-५२० एगो संथारगदो जजइ सरीरं जिणोवदेसेण। एगो सल्लिहदि मुणी उग्गेहिं तवोविहाणेहिं।५१९। तदिओ णाणुण्णादो जजमाणस्स हु हवेज्ज बाघादो। पडिदेसु दोसु तीसु य समाधिकरणाणि हायन्ति।५२०।
भ.आ./वि./५२०/७३९/१६ तृतीयो यतिर्नानुज्ञात: तीर्थकृद्भि: एकेन निर्यापकेनानुग्राह्यत्वेन। =एक क्षपक जिनेश्वर के उपदेशानुसार संस्तर पर चढ़कर शरीर का त्याग करता है अर्थात् समाधिमरण का साधन करता है और एक मुनि उग्र अनशनादि तपों के द्वारा शरीर को शुष्क करता है।५१९। इन दोनों के अतिरिक्त तृतीय यति निर्यापकाचार्य के द्वारा अनुग्राह्य नहीं होता है। दो या तीन मुनि यदि संस्तरारूढ़ हो जायेंगे तो उनकी धर्म में स्थित रखने का कार्य, विनय वैयावृत्त्य आदि कार्य यथायोग्य नहीं हो सकेंगे, जिससे उनके मन को संक्लेश होगा। अत: एक ही क्षपक संस्तरारूढ़ हो सकता है।५२०।
५. निर्यापकों की संख्या का प्रमाण
भ.आ./मू./गा. कप्पाकप्पे कुसला समाधिकरणुज्जदा सुदरहस्सा। गीदत्था भयवंता अडदालीसं तु णिज्जवया।६४८।...। कालम्मि संकिलिट्ठंमि जाव चत्तारि साधेंति।६७२। णिज्जावया य दोण्णि वि होंति जहण्णेण कालसंसयणा। एक्को णिज्जावयओ ण होइ कइया वि जिणसुत्ते।६७३। एगो जइ णिज्जवओ अप्पा चत्तो परोयवयणं च। वसणमसमाधिमरणं वड्डाहो दुग्गदी चावि।६७४। =योग्यायोग्य आहार को जानने में कुशल, क्षपक के चित्त का समाधान करने वाले, प्रायश्चित्त ग्रन्थ के रहस्य को जानने वाले, आगमज्ञ, स्व व पर का उपकार करने में तत्पर निर्यापक या परिचारक उत्कृष्टत: ४८ होते हैं।६४८। संक्लेश परिणामयुक्त काल में वे चार तक भी होते हैं।६७२। और अतिशय संक्लिष्ट काल में दो निर्यापक भी क्षपक के कार्य को साध सकते हैं। परन्तु जिनागम में एक निर्यापक का किसी भी काल में उल्लेख नहीं है।६७३। यदि एक ही निर्यापक होगा तो उसमें आत्मत्याग, क्षपक का त्याग और प्रवचन का भी त्याग हो जाता है। एक निर्यापक से दु:ख उत्पन्न होता है और रत्नत्रय में एकाग्रता के बिना मरण हो जाता है। धर्मदूषण और दुर्गति भी होती है। (विशेष देखें - भ .आ./मू./६७५-६७९)।
नि.सा./ता.वृ./९२ इह हि जिनेश्वरमार्गे मुनीनां सल्लेखनासमये हि द्विचत्वारिंशद्भिराचार्यैर्दत्तोत्तमार्थप्रतिक्रमणाभिधानेन देहत्यागो धर्मो व्यवहारेण=जिनेश्वर के मार्ग में मुनियों की सल्लेखना के समय बयालीस आचार्यों द्वारा, जिसका नाम उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है वह दिया जाने के कारण देहत्याग व्यवहार से धर्म है।
६. सर्व निर्यापकों में कर्तव्य विभाग
भ.आ./मू./६४९-६७० का भावार्थ [१. चार परिचारक सावधानी पूर्वक क्षपक के हाथ पाँव दबाना, चलने-फिरने में सहारा देना, सुलाना-बैठाना, खड़ा करना, करवट दिलाना, पाँव पसारना व सिकोड़ना आदि उपकार करते हैं।६४९-६५०। २. चार मुनि विकथाओं का त्यागकर क्षपक को असन्दिग्ध, मधुर, हृदयस्पर्शी, सुखकर, तथा हितप्रद धर्मोपदेश देते हैं।६५१-६५३। ३. भिक्षा लब्धि युक्त चार मुनि याचना के प्रति ग्लानि का त्याग करके क्षपक के लिए उसकी रुचि व प्रकृति के अनुसार उद्गमादि दोषों रहित आहार माँगकर लाते हैं।६६२। ( देखें - अपवाद / ३ / ३ ) ४. चार मुनि उसके लिए पीने योग्य पदार्थ माँगकर लाते हैं।६६३। ( देखें - अपवाद / ३ / ३ )। ५. चार मुनि उस माँगकर लाये हुए आहार व पान के पदार्थों की चूहों आदि से रक्षा करते हैं।६६४। ( देखें - अपवाद / ३ / ३ )। ६. चार मुनि क्षपक को मलमूत्र कराने का तथा उसकी वसतिका संस्तर व उपकरणों को शोधने का कार्य करते हैं।६६५। ७. चार मुनि क्षपक की वसतिका के द्वार का रक्षण करते हैं ताकि असंयतजन वहाँ प्रवेश न कर सकें।६६६। ८. तथा चार मुनि धर्मोपदेश देने के मंडप के द्वार की रक्षा करते हैं।६६६। ९. चार मुनि क्षपक के पास रात को जागरण करते हैं।६६७। १०. और चार मुनि उस नगर या देश की शुभाशुभ वार्ता का निरीक्षण करते हैं।६६७। ११. चार मुनि आगन्तुक श्रोताओं को सभामण्डप में आक्षेपणी आदि कथाओं का तथा स्व व पर मत का सावधानीपूर्वक उपदेश देते हैं, ताकि क्षपक उसे न सुन सके।६६८। १२. चार वादी मुनि धर्मकथा करने वाले उपरोक्त मुनियों की रक्षार्थ सभा में इधर-उधर घूमते हैं।६६९।]
७. क्षपक की वैयावृत्ति करते हैं
भ.आ./मू./गा. तो पाणएण परिभाविदस्स उदरमलसोधणिच्छाए। मधुरं पज्जेदव्वो मंडं व विरेयणं खवओ।७०२। आणाहवत्तियादीहिं वा वि कादव्वमुदरसोधणयं। वेदणमुप्पादेज्ज हु करिसं अत्थंतयं उदरे।७०३। वेज्जावच्चस्स गुणा जे पुव्वं विच्छरेण अक्खादा। तेसिं फिडिओ सो होइ जो उवेक्खेज्ज तं खवयं।१४९६। तो तस्स तिगिंछा जाणएण खवयस्स सव्वसत्तीए। विज्जादेसेण वसे पडिकम्मं होइ कायव्वं।१४९७। =पानक पदार्थ का सेवन करने वाले क्षपक को पेट के मल की शुद्धि करने के लिए माँड के समान मधुर रेचक औषध देना चाहिए।७०२। उसके पेट को सेंकना चाहिए तथा सेंधा नमक आदि पदार्थों की बत्ती बनाकर उसकी गुदा में प्रवेश कराना चाहिए। ऐसा करने से उसके उदर का मल निकल जाता है।७०३। वैयावृत्त्य के गुणों का विस्तार से पूर्व में वर्णन किया गया है (देखें - वैयावृत्त्य )। जो निर्यापक क्षपक की उपेक्षा करता है वह उन गुणों से भ्रष्ट होता है।१४९६। रोग का निदान जानने वाले मुनि को वैद्य के उपदेशानुसार अपनी सर्व शक्ति से क्षपक के रोग का परिहार करना चाहिए।१४९७।
देखें - सल्लेखना / ५ / ६ [क्षपक के हाथ-पाँव दबाना, उसे उठाना, बैठाना, चलाना, सुलाना, करवट दिलाना, मल-मूत्र कराना, उसके लिए आहारादि माँगकर लाना इत्यादि कार्य निर्यापक व परिचारक नित्य करते हैं।]
देखें - अपवाद / ३ / ४ -५ [जीभ और कानों की सामर्थ्य के लिए क्षपक को कई बार तेल व कषायले पदार्थों के कुल्ले कराने चाहिए। उदर में मल का शोधन करने के लिए इनिमा करना, सर्दी में उष्णोपचार और गरमी में शीतोपचार करना तथा अंग मर्दन आदि रूप से उसकी सेवा करते हैं।]
८. आहार दिखाकर वैराग्य उत्पन्न कराना
भ.आ./मू./६८९-६९५ दव्वपयासमकिच्चा जइ कीरइ तस्स तिविहवोसरणं। कम्हिवि भत्तविसेसंमि उस्सुगो होज्ज सो खवओ।६८९। तम्हा तिविहं वोसरिहिदित्ति उक्कस्सयाणि दव्वाणि। सोसित्ता संविरलिय चरिमाहारं पायासेज्ज।६९०। पासित्तु कोइ तादी तीरं पत्तस्सिमेहिं किं मेत्ति। वेरग्गमणुप्पत्तो संवेगपरायणो होदि।६९१। देसं भोच्चा हा हा तीरं...।६९३। सव्वं भोच्चा धिद्धी तीरं...।६९४। कोई तमादयित्ता मणुण्णरसवेदणाए संविद्धो। तं चेवणुबंधेज्ज हु सव्वं देसं च गिद्धीए।६९५। =क्षपक को आहार न दिखाकर ही यदि तीन प्रकार के आहारों का त्याग कराया जायेगा तो वह क्षपक किसी आहार विशेष में उत्सुक होगा।६८९। इसलिए अच्छे-अच्छे आहार के पदार्थ बरतनों में पृथक् परोसकर उस क्षपक के समीप लाकर उसे दिखाना चाहिए।६९०। ऐसे उत्कृष्ट आहार को देखकर कोई क्षपक 'मैं तो अब इस भव में दूसरे किनारे को प्राप्त हुआ हूँ, इन आहारों की अब मुझको कोई आवश्यकता नहीं है' ऐसा मन में समझकर भोग से विरक्त व संसार से भययुक्त होकर आहार का त्याग कर देता है।६९१। कोई उसमें थोड़ा सा खाकर।६९३। और कोई सम्पूर्ण का भक्षण करके उपरोक्त प्रकार ही विचारता हुआ उसका त्याग कर देता है।६९४। परन्तु कोई क्षपक दिखाया हुआ भक्षण कर उसके स्वादिष्ट रस में लुब्ध होकर उस सम्पूर्ण आहार को बारम्बार भक्षण करने की इच्छा रखता है अथवा उसमें किसी एक पदार्थ को बारम्बार खाने की अभिलाषा रखता है।६९५। [ऐसा क्षपक कदाचित् निर्यापक का उपदेश सुनकर उससे विरक्त होता है (देखें - शीर्षक सं .११) और इस पर भी विरक्त न हो तो धीरे-धीरे क्रमपूर्वक उसका प्रत्याख्यान कराया जाता है। ( देखें - सल्लेखना / ४ / ११ )]
९. कदाचित् क्षपक को उग्र वेदना का उद्रेक
भ.आ./मू./१५०१-१५१० अहवा तण्हादिपरसिहेहिं खवओ हविज्ज अभिभूदो। उवसग्गेहिंव खवओ अचेदणो होज्ज अभिभूदो।१५०१। तो वेदणावसट्ठो वाउलिदो वा परीसहादीहिं। खवओ अणप्पवसिओ सो विप्पलवेज्ज जं किं पि।१५०२। उब्भासेज्ज व गुणसेढीदो उदरणबुद्धिओ खवओ। छट्ठं दोच्चं पढमं वसिया कुंटिलिदपदमिच्छंतो।१५०३। चेयंतोपि य कम्मोदएण कोह परीसहपरद्धो। उब्भासेज्ज वउक्कावेज्ज व भिंदेज्ज व पदिण्णं।१५१०। =भूख-प्यास इत्यादि परिषहों से पीड़ित होकर क्षपक निश्चेत होगा अथवा भ्रान्त होगा, अथवा मूर्च्छित होगा।१५०१। वेदना की असह्यता से दु:खी होकर, परीषह और उपसर्ग से व्याकुल होकर क्षपक आपे में नहीं रहेगा, जिससे वह बड़-बड़ करेगा।१५०२। अयोग्य भाषण बोलेगा, संयम से गिरने को बुद्धि करेगा। रात्रि को भोजन-पान करने का अथवा दिन में प्रथम भोजन करने का विचार उसके मन में उत्पन्न होगा।१५०३। कोई क्षपक सावध होकर कर्मोदय से परिषहों से व्याकुल होकर जो कुछ भी उचित-अनुचित भाषण करेगा। अथवा ली हुई प्रतिज्ञाओं का भंग करेगा।१५१०।
१०. उपरोक्त दशा में भी उसका त्याग नहीं करते
भ.आ./मू./१५११ ण हु सो कडुवं फरुसं व भाणिदव्वो ण खीसिदव्वो य। ण य वित्तासेदव्वो ण य वट्टदि हीलणं कादुं।१५११। =प्रतिज्ञा भंग करने पर भी निर्यापकाचार्य उसे कड़वे और कठोर शब्द न बोले, उसकी भर्त्सना न करे, उसको भय न दिखावे अथवा उसका अपमान न करे।१५११।
११. यथावसर उपदेश देते हैं
१. सामान्य निर्देश
देखें - उपदेश / ३ / ४ [आक्षेपिणी, संवेजनी, और निर्वेजनी ये तीन कथाएँ क्षपक को सुनाने योग्य हैं। पर विक्षेपणी कथा नहीं।] (भ.आ./मू./६५५,१६०८)।
भ.आ./मू./गा.सं.का भावार्थ- [हे क्षपक ! तुम सुख-स्वभाव का त्याग करके चारित्र को धारण करो।५२२। इन्द्रिय व कषायों को जीतो।५२३। हे क्षपक ! तू मिथ्यात्व का वमन कर। सम्यग्दर्शन, पंच-परमेष्ठी की भक्ति व ज्ञानोपयोग में सदा प्रवृत्ति कर।७२२,७२५। पंच महाव्रतों का रक्षण कर, कषायों का दमन कर, इन्द्रियों को वश कर।७२३। (मू.आ./८३-९४)]।
२. वेदना की उग्रता में सारणात्मक उपदेश
भ.आ./मू./गा.सं.का भावार्थ-क्षुधादि से पीड़ित होने पर, वे आधारवान् निर्यापकाचार्य क्षपक की मधुर व हितकर उपदेश द्वारा आर्तध्यान से रक्षा करते हैं।४४१। हे मुनि ! यदि परिचारकों ने तेरा त्याग भी कर दिया है, तब भी तू कोई भय मत कर ऐसा कहकर उसे निर्भय करते हैं।४४३। शिक्षावचन रूप आहार देकर उसकी भूख-प्यास शान्त करते हैं।४४५। आचार्य क्षपक की आहार की गृद्धि से संयम की हानि व असंयम की वृद्धि दर्शाते हैं।६९६। जिसे सुनकर वह सम्पूर्ण अभिलाषा का त्याग करके वैराग युक्त व संसार से भययुक्त हो जाता है।६९७। पूर्वाचरण का स्मरण कराने के लिए आचार्य उस क्षपक को निम्न प्रकार पूछते हैं, जिससे कि उसकी लेश्या निर्मल हो जाती है।१५०४। हे मुने ! तुम कौन हो, तुम्हारा क्या नाम है, कहाँ रहते हो, अब कौन-सा काल है अर्थात् दिन है या रात, तुम क्या कार्य करते हो, कैसे रहते हो ? मेरा क्या नाम है?।१५०५। ऐसा सुनकर कोई क्षपक स्मरण को प्राप्त हो जाता है कि मैंने यह अकाल में भोजन करने की इच्छा की थी। यह आचरण अयोग्य है, और अनुचित आचरण से निवृत्त हो जाता है।१५०८। (मू.आ./९५-१०२)।
३. प्रतिज्ञा को कवच करने के अर्थ उपदेश
भ.आ./मू./गा.सं.का भावार्थ-प्रतिज्ञा भंग करने को उद्यत हुए क्षपक को निर्यापकाचार्य प्रतिज्ञा भंग से निवृत्त करने के लिए कवच करते हैं।१५१३। अर्थात् मधुर व हृदयस्पर्शी उपदेश देते हैं।१५१४। हे क्षपक ! तू दीनता को छोड़कर मोह का त्याग कर। वेदना व चारित्र के शत्रु जो राग व कोप उनको जीत।१५१५। तूने शत्रु को पराजित करने की प्रतिज्ञा की है, उसे याद कर। कौन कुलीन व स्वाभिमानी शत्रु समक्ष आने पर पलायन करता है।१५१८। हे क्षपक ! तूने चारों गतियों में जो-जो दु:ख सहन किये हैं उनको याद कर।१५६१। [विशेष देखें - वह वह गति अथवा भ .आ./मू./१५६२-१६०१)] उस अनन्त दु:ख के सामने यह दु:ख तो ना के बराबर है।१६०२। अनन्त बार तुम्हें तीव्र भूख व प्यास सहन करनी पड़ी है।१६०५-१६०७। तुम संवेजनी आदि तीन प्रकार कथाएँ सुनो, जिससे कि तुम्हारा बल बढ़े।१६०८। कर्मों के उदय होने पर औषधि आदि भी असमर्थ हो जाती हैं।१६१०। मरण तो केवल उस भव में ही होता है परन्तु असंयम से सैकड़ों भवों का नाश होता है।१६१४। असाता का उदय आने पर देव भी दु:ख दूर करने को समर्थ नहीं।१६१७-१६१९। अत: वह दुर्निवार है।१३२२। प्रतिज्ञा भंग करने से तो मरना भला है।१६३३। ( देखें - व्रत / १ / ७ )। आहार की लम्पटता पाँचों पापों की जननी है।१६४२। हे क्षपक ! यदि तेरी आहार की अभिलाषा इस अन्तिम समय में भी शान्त नहीं हुई हो तो अवश्य ही तू अनन्त संसार में भ्रमण करने वाला है।१६५२। हे क्षपक ! आज तक अनन्त बार तूने चारों प्रकार का आहार भक्षण किया है, पर तू तृप्त नहीं हुआ।१६५७। जिह्वा पर आने के समय ही आहार सुखदायक प्रतीत होता है, पीछे तो दु:खदायक ही है।१६६०। वह सुख अत्यन्त क्षणस्थायी है।१६६२। तलवार की धार एक भव में ही नाश का कारण है पर अयोग्य आहार सैकड़ों भवों में हानिकारक है।१६६६। अब तू इस शरीर की ममता को छोड़।१६६७। नि:संगत्व की भावना से अब इस मोह को क्षीण कर।१६७१। मरण समय संक्लेश परिणाम होने पर ये संस्तर आदि बाह्य कारण तेरी सल्लेखना में निमित्त न हो सकेंगे।१६७२। ( देखें - सल्लेखना / १ / ७ )। यद्यपि अब यह श्रम तुझे दुष्कर प्रतीत होता है परन्तु यह स्वर्ग व मोक्ष का कारण है, इसलिए हे क्षपक ! इसे तू मत छोड़।१६७५। जैसे अभेद्य कवच धारण करके योद्धा रण में शत्रु को जीत लेता है, वैसे ही इस उपदेशरूपी कवच से युक्त होकर क्षपक परीषहों को जीत लेता है।१६८१-१६८२।
६. मृत शरीर का विसर्जन व फल विचार
१. शव विसर्जन विधि
भ.आ./मू./गा. जे वेलं कालगदो भिक्खू तं वेलमेव णीहरणं। जग्गणबंधणछेदणविधी अवेलाए कादव्वा।१९७४। गीदत्था...रमिज्जबाधेज्ज।१९७६-७७ ( देखें - अपवाद / ३ / ६ )। उयसय पडिदावण्णं...पि तो होज्ज।१९७८-७९। ( देखें - अपवाद / ३ / ३ );। तेण परं संठाविय संथारगदं च तत्थ बंधित्ता। उट्ठेंतरक्खणट्ठं गामं तत्तो सिरं किच्चा।१९८०। पुव्वाभोगिय मग्गेण आसु गच्छंति तं समादाय। अट्ठिदमणियत्तंता य पीट्टदो ते अणिब्भंता।१९८१। तेण कुसमुट्ठिधाराए अव्वोच्छिणाए समणिपादाए। संथारो कादव्वो सव्वत्थ समो सगिं तत्थ।१९८३। जत्थ ण होज्ज तणाइं चुण्णेहिं वि तत्थ केसरेहिं वा। संघरिदव्वा लेहा सव्वत्थ समा अवोच्छिण्णा।१९८४। जत्तो दिसाए गामो तत्तो सीसं करित्त सोवधियं। उट्ठेंतरक्खणट्ठं वोसरिदव्वं सरीरं तं।१९८६। जो वि विराधिय दंसणमंते कालं करित्तु होज्ज सुरो। सो वि विबुज्झदि दट्ठूण सदेहं सोवधिं सज्जो।१९८७। गणरक्खत्थं तम्हा तणमयपडिविंबयं खु कादूण। एक्कं तु समे खेत्ते दिवड्ढखेत्ते दुवे देज्ज।१९९०। तट्ठाणंसावणं चिय तिक्खुत्तो ठविय मडयपासम्मि। विदियवियप्पिय भिक्खू कुज्जा तह विदियतदियाणं।१९९१। असदि तणे चुण्णेहिं च केसरच्छारिट्टियादिचुण्णेहिं। कादव्वोथ ककारो उवरिं हिट्ठा यकारो से।१९९२। =जिस समय भिक्षु का मरण हुआ होगा, उसी वेला में उसका प्रेत ले जाना चाहिए। अवेला में मर जाने पर जागरण, अथवा छेदन करना चाहिए।१९७४। [पराक्रमी मुनि उस शव के हाथ और पाँव तथा अँगूठा इनके कुछ भाग बाँधते हैं अथवा छेदते हैं। यदि ऐसा न करे तो किसी भूत या पिशाच के उस शरीर में प्रवेश कर जाने की सम्भावना है, जिसको लेकर वह शव अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं द्वारा संघ को क्षोभ उत्पन्न करेगा।१९७६-१९७७। ( देखें - अपवाद / ३ / ६ )।-गृहस्थों से माँगकर लाये गये थाली आदि उपकरणों को गृहस्थों को वापस दे देने चाहिए। यदि सर्व जनों की विदित किसी आर्यिका या क्षुल्लक ने सल्लेखना मरण किया है तो उसके शव को किसी पालकी या विमान में स्थापित करके गृहस्थजन उसे ग्राम से बाहर ले जावें।१९७८-१९७९। ( देखें - अपवाद / ३ / ३ )] शिविका में बिछाने के साथ उस शव को बाँधकर उसका मस्तक ग्राम की ओर करना चाहिए। क्योंकि कदाचित् उसका मुख ग्राम की तरफ न होने से वह ग्राम में प्रवेश नहीं करेगा। अन्यथा ग्राम में प्रवेश करने का भय है।१९८०। पूर्व में देखे गये मार्ग से उस शव को शीघ्र ले जाना चाहिए। मार्ग में न खड़े होना चाहिए और न पीछे मुड़कर देखना।१९८१। जिसने निषद्यका स्थान पहले देखा हो वह मनुष्य आगे ही वहाँ जाकर दर्भमुष्टि की समानधारा से सर्वत्र सम ऐसा संस्तर करे।१९८३। दर्भ तृण के अभाव में प्रासुक तण्डुल मसूर की दाल इत्यादिकों के चूर्ण से, कमल केशर वगैरह से मस्तक से लेकर पाँव तक बिना टूटी हुई रेखाएँ खेंचे।१९८४। अब ग्राम की दिशा में मस्तककर पीछी के साथ उस शव को उस स्थान पर रखे।१९८६। जिसने सम्यग्दर्शन की विराधना से मरणकर देवपर्याय पाया है, वह भी पीछी के साथ अपना देह देखकर 'मैं पूर्व जन्म में मुनि था' ऐसा जान सकेगा।१९८७। गण के रक्षण के हेतु मध्यम नक्षत्र में तृण का एक या दो प्रतिबिम्ब बनाकर उसके पास रखना चाहिए।१९९०। उन्हें वहाँ स्थापनकर जोर से बोलकर ऐसा कहें कि मैंने यह एक अथवा दो क्षपक तेरे अर्पण किये हैं। यहाँ रहकर ये चिरकाल पर्यन्त तप करें।१९९१। यदि तृण न हों तो तण्डुल चूर्ण, पुष्प केसर, भस्म आदि जो कुछ भी उपलब्ध हो उससे ही वहाँ 'काय' ऐसा शब्द लिखकर उसके ऊपर क्षपक को स्थापन करे।१९९२।
२. शरीर विसर्जन के पश्चात् संघ का कर्तव्य
भ.आ./मू./१९९३-१९९६ उसगहिदं उवकरणं हवेज्ज जं तत्थ पाडिहरियं तु। पडिबोधित्ता सम्मं अप्पेदव्वं तयं तेसिं।१९९३। आराधणपत्तीयं काउसग्गं करेदि तो संघो। अधिउत्ताए इच्छागारं खवयस्स वसधीए।१९९४। सगणत्थे कालगदे खमणमसज्झाइयं च तद्दिवसं। सज्झाइ परगणत्थे भयणिज्जं खमणकरणं पि।१९९५। एवं पडिट्ठवित्ता पुणो वि तदियदिवसे उवेक्खंति। संघस्स सुहविहारं तस्स गदी चेव णादुंजे।१९९६। =मृतक को निषीधिका के पास ले जाने के समय जो कुछ वस्त्र काष्ठादिक उपकरण गृहस्थों से याचना करके लाया गया था उसमें जो कुछ लौटाकर देने योग्य होगा वह गृहस्थों को समझाकर देना चाहिए।१९९३। चार आराधनाओं की प्राप्ति हमको होवे ऐसी इच्छा से संघ को कायोत्सर्ग करना चाहिए। क्षपक की वसतिका का जो अधिष्ठान देवता है उसके प्रति 'यहाँ संघ बैठना चाहता है' ऐसा इच्छाकार करना चाहिए।१९९४। अपने गण का मुनि मरण को प्राप्त होवे तो उपवास करना चाहिए और उस दिन स्वाध्याय नहीं करनी चाहिए। यदि परगण के मुनि की मृत्यु हुई हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपवास करे अथवा न करे।१९९५। उपर्युक्त क्रम से क्षपक के शरीर की स्थापना कर पुन: तीसरे दिन वहाँ जाकर देखते हैं कि संघ का सुख से विहार होगा या नहीं और क्षपक को कौनसी गति हुई है।[ये बातें जानने के लिए, पक्षियों द्वारा इधर-उधर ले जाकर डाले गये, शव के अंगोपांगों को देखकर विचारते हैं। (देखें - अगला शीर्षक )]।१९९६।
३. फल विचार
१. निषीधिका की दिशाओं पर से
भ.आ./मू./१९७१-१९७३ जा अवरदक्खिणाए व दक्खिणाए व अध व अवराए। वसधीदो वण्णिज्जदि णिसीधिया सा पसत्थत्ति।१९७०। सव्वसमाधी पढ़माए दक्खिणाए दु भत्तगं सुलभं। अवराए सुहविहारो होदि य उवधिस्स लाभो य।१९७१। जद तेसिं बाघादो दट्ठव्वा पुव्वदक्खिणा होइ। अवरुत्तरा य पुव्वा उदीचिपुव्वुत्तरा कमसो।१९७२। एदासु फलं कमसो जाणेज्ज तुमंतुमा य कलहो य। भेदो य गिलाणं पि य चरिमा पुण कड्ढदे अण्णं।१९७३। =वह निषीधिका क्षपक की वसतिका से नैऋत्य दिशा में, दक्षिण दिशा में, अथवा पश्चिम दिशा में होनी चाहिए। इन दिशाओं में निषीधिका की रचना करना प्रशस्त माना गया है।१९७०। नैऋत्य दिशा की निषीधिका का सर्व संघ के लिए समाधि की कारण है। अर्थात् वह संघ का हित करने वाली है। दक्षिण दिशा की निषीधिका से संघ को आहार सुलभता से मिलता है। पश्चिम दिशा में निषीधिका का होने से संघ का सुख से विहार होता रहेगा, और उनकी पुस्तक आदि उपकरणों का लाभ होता रहेगा।१९७१। यदि उपरोक्त तीन दिशाओं में निषीधिका बनवाने में कुछ बाधा उपस्थित होती है तो १. आग्नेय, २. वायव्य, ३. ऐशान्य, ४. उत्तर दिशाओं में से किसी एक दिशा में बनवानी चाहिए।१९७२। इन दिशाओं का फल क्रम से-१. संघ में, 'मैं कैसा हूँ, तू ऐसा है' इस प्रकार की स्पर्धा, २. संघ में कलह, फूट, व्याधि, परस्पर खेंचातानी और मुनिमरण समझना चाहिए।१९७३।
२. शव के संस्तर पर से
भ.आ./मू./१९८५ जदि विसमो संथारो उवरिं मज्झे व होज्ज हेट्ठा वा। मरणं व गिलाणं वा गणिवसभजदीण णायव्वं।१९८५। =यदि तन्दुल चूर्ण आदि से अंकित संस्तर में रेखाएँ ऊपर नीचे व मध्यम में विषम हैं तो अनिष्ट सूचक है। ऊपर की रेखाओं के विषम होने पर आचार्य का मरण अथवा व्याधि; मध्य की रेखाएँ विषम होने पर एलाचार्य का मरण अथवा व्याधि, और नीचे की रेखाओं के विषम होने पर सामान्य यति का मरण अथवा व्याधि की सूचना मिलती है।१९८५।
३. नक्षत्रों पर से
भ.आ./मू./१९८८-१९८९ णत्ता भाए रिक्खे जदि कालगदो सिवं तु सव्वेसिं। एको दु समे खेत्ते दिवड्ढखेत्ते मरंति दुवे।१९८८। सदभिसभरणा अद्दा सादा असलेस्स जिट्ठ अवखरा। रोहिणिविसाहपुणव्वसुत्ति उत्तरा मज्झिमा सेसा।१९८९।=जो नक्षत्र १५ मुहूर्त के रहते हैं उनको जघन्य नक्षत्र कहते हैं। शतभिषक, भरणी, आर्द्रा, स्वाती, आश्लेषा इन छह नक्षत्रों में से किसी एक नक्षत्र पर अथवा उसके अंश पर यदि क्षपक का मरण होगा तो सर्व संघ का क्षेम होगा। ३० मुहूर्त के नक्षत्रों को मध्यम नक्षत्र कहते हैं। अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, पूर्वाफाल्गुनी हस्त, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपदा, और रेवती इन १५ नक्षत्रों पर अथवा इनके अंशों पर क्षपक का मरण होने से, और भी एक मुनि का मरण होता है। ४५ मुहूर्त के नक्षत्र उत्कृष्ट हैं-उत्तरफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रापद, पुनर्वसु, रोहिणी इन छह में से किसी नक्षत्र पर अथवा उसके अंश पर क्षपक का मरण होने से और भी दो मुनियों का मरण होता है।
४. शरीर के अंगोपांगों पर से
भ.आ./मू./१९९७ जदिदिवसे संचिट्ठदि तमणालद्धं च अक्खदं भडयं। तदिवसिसाणि सुभिक्खं खेमसिवं तम्हि रज्जम्मि।१९९७। जं वा दिवसमुवणीदं सरीरयं खगचदुप्पदगणेहिं। खेमं सिवं सुभिक्खं विहरिज्जो तं दिसं संघो।१९९८। जदि तस्स उत्तमंगं दिस्सदि दंता च उवरिगिरिसिहरे। कम्ममलविप्पमुक्को सिद्धिं पत्तोत्ति णादव्वो।१९९९। वेमाणिओ थलगदो समम्मि जो दिसि य वाणविंतरओ। गड्डाए भवणवासी एस गदी से समासणे।२०००। =जितने दिन तक वृकादि पशु-पक्षियों के द्वारा वह क्षपक शरीर स्पर्शित नहीं होगा और अक्षत रहेगा उतने वर्ष तक राज्य में क्षेम रहेगा।१९९७। पक्षी अथवा चतुष्पद प्राणी जिस दिशा में उस क्षपक का शरीर ले गये होंगे, उस दिशा में संघ विहार करे, क्योंकि वे अंग उस दिशा में क्षेम के सूचक हैं।१९९८। क्षपक का मस्तक अथवा दन्तपंक्ति पर्वत के शिखर पर दीख पड़ेगी तो यह क्षपक कर्ममल से पृथक् होकर मुक्त हो गया है, ऐसा समझना चाहिए।१९९९। क्षपक का मस्तक उच्च स्थल में दीखने पर वह वैमानिक देव हुआ है, समभूमि में दीखने पर ज्योतिष्क देव अथवा व्यन्तर देव और गड्ढे में दीखने पर भवनवासी देव हुआ समझना चाहिए।२०००।