वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 37
From जैनकोष
यथा यथा समायति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्।
तथा तथा न रोचन्ते विषयाः सुलभा अपि।।३७।।
ज्ञान से विषयों में अरुचि—अपने उपयोग में जैसे-जैसे यह आत्मतत्त्व विकसित होता जाता है वैसे ही वैसे ये सुलभ भी विषय रुचिकर नही होते हैं। जब सहज शुद्ध अंतस्तत्व के उपयोग से एक आनन्द झरता है तो उस आनन्द से तृप्त हो चुकने वाले प्राणियो को सुलभ भी विषय, सामने मौजूद भी विषय रूचिकर नही होता है। जब तक अपने स्वभाव काबोध न हो तब तक विषयों में प्रीति जगती है। जब कोई पदार्थ है तो उस पदार्थ का कुछ स्वरूप हो सकता है, उसे कहते हैं सहजस्वरूप। इस आत्मा का आत्मा की स्वरूप सत्ता के कारण क्या स्वरूप हो सकता है उसका नाम है सहज स्वरूप। यह उत्तम तत्त्व जिसके ज्ञान में समाया है उसे सुलभ भी विषय रूचिकर नही होते।
नैमित्तिक भाव में स्वरूपता का अभाव—जो किसी परद्रव्य के सम्बन्ध से इस आत्मा की बात बनती है वह आत्मा में होकर भी आत्मा का स्वरूप नही है। जैसे दृष्टान्त में देखिये कि अग्नि के सम्बन्ध से पानी में गर्मी आने पर भी पानी का स्वरूप गर्मी नही है। यद्यपि उस पानी को कोई पी ले तो मुँह जल जायगा। गर्मी अवश्य है और वही गर्मी पानी में तन्मय है, इतने पर भी पानी का स्वरूप गर्म नही कहा जा सकता है। इस ही प्रकार कर्मों के उदयवश अपने उपयोग की भ्रमणा चल रही है, रागादिक भाव उत्पन्न होते हैं,ये रागादिक आत्मा के ही परिणमन है, इतने पर भी ये रागादिक आत्मा के स्वरूप नही बन जाते हैं इतनी बात की खबर जिसे है उसने अपना मनुष्य जन्म सार्थक कर लिया है। शेष जो कुछ भी समागम मिला है वे सर्व समागम इस आत्मा के भले के लिए नही है, ये छूटेंगे और जब तक साथ है तब तक भी क्या यह जीव चैन से रह सकता है?
स्व की विश्वास्यता—भैया! इन समागमों में रंच भी विश्वास न करो और यह विश्वास करो कि मेरे ही स्वरूप के कारण मेरा जो स्वभाव है बस वही मेरा शरण है, वही मेरा रक्षक है। उसमें स्वयं आनन्द भरा हुआ है। ऐसे इस सहज ज्ञानानन्दस्वरूप की जिन्हें सुध रहती है और इस स्वरूप के अनुभव से जो शुद्ध आनन्द का अनुभव जगा है उसके कारण इस ज्ञानी को ये सुलभ विषय भी रुचिकर नही होते हैं।
परिस्थितिवश विषय में अरुचि से एक अनुमान—अब जरा इस तरह भी अनुमान कर लो। जब किसी कामी पुरुष को कामविषयक वासना का विकल्प चलता है तो उसे जात कुजात अथवा किसी ही वर्ण का रूप हो, सब सुन्दर और रमणीक जंचता है, और यही उपयोग जब ज्ञान वासना को लिए हुए हो और यहाँ अतः प्रसन्नता धार्मिक जग रही हो तो सुन्दर से भी सुन्दर रूप हाड़ माँस का पिञ्जर है, यह इस प्रकार दिखा करता है। और भी दृष्टान्त देखो—जब भोजन करने मे आसक्ति का परिणाम हो रहा हो उस समय भोजन कितना स्वादिष्ट और सरस सुखदायी मालूम होता है ? जब उपयोग बदला हो, किसी बाह्य विकल्प में फंसा हो या कोई बड़ी हानि का प्रसंग आया हो जिससे चिन्तामग्न हो तो उस काल में वह भोजन ऐसा सरस स्वादिष्ट नही प्रतीत होता है। क्योंकि उपयोग दूसरी जगह है। ज्ञानी संत का उपयोग इस सहज ज्ञानस्वरूप के अनुभव से निर्मल हुआ है, उसे यो सुलभ विषय भी रूचिकर नही होते हैं। यह बात युक्त ही है कि अधिक आनन्द मिल जाय तो हीन आनन्द की कोई चाह नही करता है।
मोही की अस्थिरता—इस मोही जीव को विषयसाधनों में रमने के कारण शुद्ध आनंद नही मिला है इसलिए किसी भी विषय को भोगकर तृप्त नही हो पाते। तृप्त न होने के कारण किसी अन्य विषय में अपना उपयोग फिर भटकने लगता है। पंचेन्द्रिय के विषय और एक मन का विषय। इन ६ विषयों में से किसी भी एक विषय में ही रत हो जाय, यह भी नही हो पाता है।
मोहोन्मत्त का विषयपरिवर्तन—किसी को यदि स्पर्शन का विषय प्रिय है, काम मैथुन का विषय प्रिय है तो फिर रहो न घंटों उसी प्रसंग में, पर कोई रह नही पाता है। अतृप्ति हो जाती है, तब तृप्ति के लिये अन्य विषय खोजने लगता है। किसी को भोजन ही स्वादिष्ट लगा हो तो वह करता ही रहे भोजन, लेकिन नही कर पाता है फिर दूसरे विषय की याद हो जाती है। किसी को कोई मन का विषय रुच रहा है यश, पोजीशन, बड़प्पन रुचरहा है तो इस विषय के बड़प्पन में ही रहे। फिर बदल-बदलकर नये-नये विषयों में यश बढ़ाने का क्यों यह जीव यत्न करता है? मोही जीव को कहीं भी तृप्ति का काम ही नही है। अज्ञान हो और वहाँ संतोष आ जाय यह कभी हो नही सकता। संतोष के मार्ग से ही संतोष मिलेगा। जिन अज्ञानी पुरूषों के उपयोग में भेदविज्ञान के प्रताप से यह शुद्धज्ञानानन्दस्वरूप परमतत्त्व है उन्हें ये सुलभ विषय भी रुचिकर नही होते हैं।
विषय साधनों की पराधीनता, विनश्वरता व दुःखमयता—ये विषयभोग प्रथम तो पराधीन है। जिस विषय की चाह की जाती है उस विषय में स्वाधीनता नही है। किन्तु यह आत्मा का आनन्दमयी स्वरूप जिसको हमें ही देखना है, हमारा ही स्वरूप है, जिसके देखने वाले भी हम है, और जिसे देखना है वह भी शाश्वत हममें विराजमान है फिर वहाँ किस बात की आधीनता है? यह आत्महित का कार्य स्वाधीन है। जो स्वाधीन कार्य है उसके झुकाव में विकृति नही रहती है। और जो पराधीन कार्य है उसकी निरन्तर वाञ्छा बनी रहती है। पराधीन ही रहें इतना ही ऐब नही किन्तु ये नष्ट हो जाते हैं। ऐसा भी नही है कि ये विषय सदैव बने रहे। ये मायामय है, कुछ ही समय बाद ये नष्ट हो जाते हैं। पराधीन है और नष्ट हा जाते हैं। वे रहे आये पराधीन व विनाशीक तो भी मोही यह मान लेगा कि हम तो जब तक है तब तक तो मौज मिल जायगी। सो इतना भी नही है। जितने काल विषयों का समागम है उतने काल भी बीच-बीच में दुःख के ही कारण होते रहते हैं।
वक्तव्य एक प्रसंग की भूमिका—पुराण में एक कथानक पढ़ा होगा, आदिनाथ भगवान के पूर्व भवों में जब वज्रजंघ का भव था तो उनकी स्त्री श्रीमती हुई, और श्रीमती का विवाह जब न हुआ था तब उस श्रीमती कन्या ने देखा कि कबूतर और कबूतरी परस्पर में रम रहे हैं,इतना देखकर उसे कुछ जाति स्मरण हुआ। श्रीमति पहिले भव में देवी थी और वज्रजंघ ललितांग देव था। उस जातिस्मरण में उसे पिछले मौजों की सुध आयी और ललितांग देव का स्मरण हुआ तो उसने यह प्रतिज्ञा की कि वही जीव यदि मनुष्य भव में हो और सुयोग हो तो विवाह करूँगी अन्यथा न करूँगी। अब पता कैसे लगे कि कौन है वह मनुष्य जो ललितांग देव था। श्रीमती को जातिस्मरण हुआ और उसे देव के समय की एक घटना भी चित्त में बनायी, सो चित्र पट में अनेक घटनाएँ लिखी व वह विशिष्ट घटना भी लिखी और कितनी ही परीक्षा के लिए झूठी घटनाएँ भी लिखी। तो पहिले समय में ऐसी प्रथा थी। उस चित्रावली को मन्दिर के द्वार पर रख दिया गया और एक धाय के सुपुर्द कर दिया गया। उस चित्रावली में कुछ पहेली बनी हुई थी, ताकि जो शंकाओं को समाधान कर दे, उसे समझ ले कि यह ही वास्तव में पूर्वभव का पति था। बहुत से मनुष्य आये, झूठे कपटी भी आए और कुछ से कुछ बताकर अपना रौब जमाने लगे, पर किसी की दाल न गली।
देवगति में कामलीला का एक प्रसंग—वज्रजंघ स्वयं एक बार वहाँ से निकला और चित्रावली को देखा तो एक चित्र वहाँ ऐसा था कि ललितांगदेव के सिर में देवी ने जो लात मारी थी। उसका दाग बना था। उसको देखकर उसे भी स्मरण हो आया और वह प्रेम एवं वियोग की पीड़ा से बेहोश हो गया। होश होने पर धाय ने पूछा तो बताया कि यह चित्त हमारे पूर्वभव के देव के समय की घटना का है। यह देव जब देवी के साथ यथेष्ट बिहार करके रम रहा था तो किसी समय देवी अप्रसन्न हो गयी और उसने अपने पति ललितांगदेव के सिर में लात लगायी थी। जो मनुष्य भव में अप्रिय घटनायें होती है ऐसी अप्रिय घटनायें देवगति में भी हुआ करती है। जब स्वयं चित्त विषयवासना से व्याकुल है तो वहाँ बाह्य पदार्थ भी रमणीक लगते हैं और वहाँ अनेक उपद्रव सहने पड़ते हैं जब चित्त ज्ञान में है तो फिर ये बाह्य पदार्थ उसे रम्य नही मालूम होते हैं।
ज्ञानी का चिन्तन और यत्न—विचार कर रहे हैं ज्ञानी पुरुष कि ये भोग पराधीन है, मिटते हैं और जब तक भी विषय भोग बन रहे हैं तब तक भी दुःख बराबर चलता रहता है। और फिर इसमें नफा क्या मिलता है, केवल पापों का बंध होता है। ऐसे सुख में ज्ञानियो के आदर बुद्धि नही होती है। तत्त्वज्ञान में ज्यों-ज्यों समाया जाता है त्यों-त्यों ये सर्व विषय सुलभ भी हो तो भी रुचिकर नही मालूम होते जैसे सूखी जमीन मछलियों के प्राणों का घात करने वाली है और उन मछलियों को आग मिल जाये तो फिर उन मछलियों के भवितव्य की बात ही क्या कही जाय? तुरन्त मछलियाँ अग्नि में मृत्यु को प्राप्त हो जाती है। ऐसे ही जिनका चित्त कामवासना से भरा है वे स्वयं व्याकुल है और फिर काम का कोई आश्रय मिले, विषय भोग के साधन मिलें और अन्य साधन कर्म जुट जायें तो उनके मन, वचन, काय सब कुत्सित हो जाते हैं वे महीने-महीने तक के लिए भी आहार आदि का त्याग कर देते हैं। जो पुरुष अपने आत्मकल्याण के लिए जान-जानकर इन विषयों को परित्याग करते हैं वे विषय सुखों को कैसे उपादेय मान सकते हैं ? अहो ! जीवन में एक बार भी यदि समस्त प्रकार के विकल्प त्यागकर, परम विश्राम में रहकर अपने सहज आनन्द निधि का स्वाद आ जाय तो इस जीव के सर्वसंकट मिट जायेंगे।
आत्महित के लिए जीवन का निर्णय—यह जगत मायारूप एक गोरखधंधा है, भटकाने और भुलाने वाला है। यहाँ यह मोही स्वयं भी कायर है और वातावरण भी उसे दुष्ट मिल जाय, ऐसा खोटा मिल जाय कि यह अपने इन्द्रिय को काबू में ही न रख सके ऐसे प्राणियों को तो बड़ा अनिष्ट ही है। अनादि काल से भूल भटककर इस मनुष्यभव में आये, अब सुन्दर अवसर मिला, प्रतिभा मिली, क्षयोपशम अच्छा है। कर्मो का उदय भी है, आजीविका के साधन भी सबके ठीक है, ऐसे अवसर में अब तृष्णा का परित्याग करके आत्महित के लिए अपना उद्योग करे। जरा विचारो तो, लखपति हो गए तो करोड़पति होने की चाह, करोड़पति हो गए तो अरबपति होने की चाह, यो चाह का कभी अन्त नही आता है। चाह का अन्त ज्ञान में ही आता है। वस्तु के समागम से चाह का अंत नही होता है। जीवन चलाने के लिए तो दो रोटियों का साधन चाहिए और ठंड गर्मी से बचने के लिए दो कपड़े का साधन चाहिए।
वस्तुस्वरूप की समझ में चिन्ता का अनवकाश—भैया ! कुछ यह चिन्ता हो सकती है गृहस्थी है इसलिए उसकी संभाल के लिए कुछ तो विशेष चाहिए। वे सब तो अपना-अपना भाग्य लेकर आये हैं,सो सब उदयानुकूल थोडे़ से यत्न से काम हो जाता है और फिर ज्ञान है तो इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि कैसी भी स्थिति हो, हम उसमें भी अपना हिसाब बना सकते हैं पर जीवन हमारा केवल धर्म के लिए ही है। इतना साहस हो तो विनाशीक इस जीवन से अविनाशी पदका काम पाया जा सकता है। जो मिट जाने वाली वस्तु है उसका ऐसा उपयोग बन जाय कि न मिट जाने वाली चीज मिले तो इससे बढकर और हिकमत क्या हो सकती है? ज्ञानी पुरुष पंचेन्द्रियके विषय साधनों का सर्वथा हेय समझते हैं। ये ज्ञानी योगीश्वर आत्मस्वरूपके सुगम परिज्ञानी है। जरा सी दृष्टि फेंकी कि वह कारणसमयसार उनकी दृष्टि में समक्ष है। जो ऐसे ज्ञान के अनुभव का निरन्तर स्वाद ले रहे हैं उनको इन विषयों से क्या प्रयोजन है?
तत्त्वज्ञकी निष्कामता—जैसे रोग से प्रेरित रोगी पुरुष रोग का इलाज करता हुआ भी रोग को नही चाहता और इलाज को भी नही चाहता। कोई बीमार पुरुष दवा पीता है तो दवा पीते रहने के लिए नही दवा पीता है, किन्तु दवा न पीना पडे़, इसके लिए दवा पीता है। इस रोगी के दिल से पूछो, रोगी तो प्रायः सभी हुए होंगे। तो सभी अपने-अपने दिल से पूछो, क्या दवा पीते रहने के लिए दवा पी जाती है? दवा तो दवा न पीना पड़े इसके ही लिए पी जाती है। ऐसे ही यहाँ निरखिये ज्ञानियोकी महिमा का कौन वर्णन करे, प्रवृत्ति एकसी है ज्ञानी की और अज्ञानी की। इस कारण कोई नही बता सकता है कि इसके चित्त में वास्तविक उद्देश्य क्या है? लोग तो प्रवृत्ति देखकर यह जानेंगे कि यह तो रोगी है, विषयों का रुचिया है, किन्तु घरमें रह रहा ज्ञानी, विषय प्रसंग में आ रहा ज्ञानी, उसकी इन व्यवस्थाओं को ज्ञानी पुरुष ही जानता है। अज्ञानी नही जान सकता है। चारित्र मोह का एक ऐसा प्रबल उदय है, उससे इसे कषायों की पीड़ा हुई है अब वह कर्मजन्य कार्यों को कर रहा है किन्तु उन प्रवृत्तियोंसे यह पुरुष उदास ही है। जिसे तत्त्व ही रुच रहा है। और तत्त्वज्ञानसे सहज आनन्द मिल गया है उसके विषयोंमें प्रीति कैसे हो सकती है? भैया ! इसी सहज शुद्धआनन्द के पाने का अपना यत्न हो और हम अधिक से अधिक ज्ञान के अभ्यास में समय दे, यह एक अपना निर्णय बनाएँ।