वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 57
From जैनकोष
रागेण व दोषेण व मोहेण व मोसभासपरिणामं।
जो पजहदि साहु सया विदियवयं होई तस्सेव।।57।।
सत्यव्रत के सम्बन्ध में चर्चा—इस गाथा में सत्यव्रत का स्वरूप कहा गया है। राग से, द्वेष से, मोह से असत्य वचन बोलने के परिणाम को जो साधु त्यागता है, उस साधु के सत्यव्रत हुआ करता है। पाप का बन्ध शरीर की चेष्टा से, वचनों की चेष्टा से नहीं हुआ करता है। मन दो प्रकार का है—द्रव्यमन व भावमन। द्रव्यमन की तो शरीर में ही अष्टदल कमलाकार रचना होती है, उसे कहते हैं। सो द्रव्यमन शरीर में शामिल हो गया है, अलग नहीं है। यह भी पौद्गलिक है, सो द्रव्यमन की चेष्टा भी पापबन्ध का कारण नहीं है। भावमन आत्मा के ज्ञानरूप है। वह भी आत्मा का परिणाम है। अशुभ परिणाम पाप का बंधक हैं, शुभ परिणाम पुण्य का बंधक हैं अथवा सहजशुद्ध आत्मपरिणाम हो तो वह मोक्षमार्ग का प्रयोजक होता है। सत्य के सम्बन्ध में चार पदवियां हैं—एक तो वचनगुप्ति, दूसरी भाषासमिति, तृतीय सत्यधर्म, जो कि उत्तम क्षमा आदिक 10 लक्षण में आते हैं और चतुर्थ है सत्य महाव्रत। इन चारों में परस्पर में क्या अन्तर है? इसे निरखिये।
वचनगुप्ति में सत्य की परिपूर्णता—वचनगुप्ति में सत्य असत्य सभी प्रकार के वचनों का परिहार रहता है। यह वचन के बाबत ऊंची साधना है। एक बार राजा श्रेणिक ने जैनसाधुओं की परीक्षा करने के लिये चेलना से कहा कि आप इस जगह चौका लगायें और जैनसाधुओं को आहार करावें। और उस जगह खुदवाकर हड्डियां भरवाकर पटवा दिया, जिससे वह स्थान अपवित्र हो गया। चेलना को भी मालूम हो गया कि यह स्थान चौके के लायक नहीं है, किन्तु राजा ने कहा कि नहीं-नहीं, चौका जरूर लगाओ। चौका लगाया, पर किस तरह से पड़गाहा—हे त्रिगुप्तिधारक महाराज ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ। तो एक मुनि संकेत में एक अंगुली उठाता हुआ निकल गया। दूसरा मुनि आया, उसे भी उसी तरह पड़गाहा, वह भी एक अंगुली का इशारा करता हुआ आगे गया। तीसरा मुनि आया, उसे भी उसी तरह से पड़गाहा। वह भी एक अंगुली का इशारा करके चला गया। किसी ने आहार ही न किया। श्रेणिक सोचता है कि इतने साधु यहाँ आये, पर आहार क्यों नहीं किया? बताया कि मैंने त्रिगुप्तिधारी महाराज को पड़गाहा था। जिसके तीनों गुप्ति न हों, वह कैसे आये? जिसे बुलाया, वही तो आयेगा। फिर वे दोनों जब उन मुनियों के दर्शनार्थ गये तो उन्होंने अपनी कहानी सुनाई कि हमारे मनोगुप्ति न थी, एक ने कहा कि हमारे वचनगुप्ति न थी, एक ने कहा कि हमारे कायगुप्ति न थी। तीनों गुप्तियां विधिवत् पल जायें तो यह बहुत सम्भव है कि उसे अवधिज्ञान हो। जिसे अवधिज्ञान हो, वह जान जायेगा कि इसने त्रिगुप्तिधारी शब्द कहकर क्यों पड़गाहा? मामला इसमें क्या है? तो वह ज्ञान से देखता है और उसे यह मालूम हो जाता है कि यह स्थान शुद्ध नहीं है। तीन गुप्तियों की साधना बहुत बड़ी साधना है।
वचनगुप्ति की परमविश्रामरूपता—भैया ! वैसे भी देख लो कि जगत् की कौनसी चीज की तृष्णा कर रहे हो? कौनसा पदार्थ हितरूप है या आपकी मदद देगा? क्यों मरा जाये यह लक्ष्मी की उपासना में ही? गड़े रहो, धरे रहो, बने रहो, न तुम्हारा कुछ खर्च होगा, न कुछ परेशानी रहेगी अथवा किसी चेतन से या किसी अन्य से क्या आशा रखते हो? किसे मन में बसाते हो? कोई समय तो ऐसा लाओ कि यह मन पर के बोझ से रहित हो, वचन के बोझ से रहित हो, शरीर की चेष्टा के श्रम से रहित हो जाये। इन गुप्तियों का प्रकरण आगे आयेगा। यहाँ तो इतनी बात कहने के लिये कहा है कि सत्यवचन अथवा वचन के सम्बन्ध में चार पदवियां हैं। सर्वोत्कृष्टस्थान वचनगुप्ति का है।
सत्यवचन का फलित विकास भाषासमिति—द्वितीय स्थान भाषा समिति का है। भाषासमिति में हित मित प्रिय वचन बोलना कहा गया है। जो साधु भारी बोला करते हैं, वे अपने पद से भ्रष्ट रहते हैं। अधिक बोलना, बिना प्रयोजन बोलना, गप्प मारना, हंसी ठट्ठा करना, मौज मानना बातचीत में, यह सब साधुओं का धर्म नहीं है। परिमित वचन को बोलना और वह भी दूसरों के हित करने वाले हों, ऐसे वचन बोलना। जिन वचनों से दूसरों के हित का संबन्ध नहीं है, उन वचनों का बोलना साधु को नहीं बताया है। भाषासमिति इसी का नाम है और साथ ही प्रियवचन बोलना भी यही है।
सत्य का प्रयोजक और प्रयोग उत्तम सत्य व सत्यमहाव्रत—तीसरा स्थान है उत्तम सत्य का। जिसका नाम दसलक्षण में एक धर्म में आता है। आत्मा का हित करने वाले सत्यवचन बोलना सो उत्तम सत्य है। इसमें आत्मतत्त्व के अतिरिक्त अन्य कुछ बात नहीं करनी है और सत्यमहाव्रत में आत्मा की भी बात अथवा देश, सम्प्रदाय की भी बात, अन्य की बात प्रयोजनवश की जा सकती है, किन्तु वह यथार्थ हो, किसी जीव को पीड़ा करने वाली बात न हो। तो आप यहाँ जानियेगा कि सत्यमहाव्रत से ऊपर भी अभी तीन स्टेज और हैं वचनालाप के संबन्ध में, उनमें से यह सत्यमहाव्रत का प्रकरण है।
साधु के अन्तर्बाह्य सत्य—साधुपुरुष रागवश झूठ बोलने का परिणाम भी नहीं करता। रागवश, स्वार्थवश, इन्द्रियविषय के रागवश, किसी मित्र के रागवश कोई ईर्ष्या वचन नहीं बोलता। देखिये कि तपों के प्रकरण में व्रतपरिसंख्यान नाम का तप आया है अर्थात् भोजन के लिये कुछ अटपट नियम ले लेना कि ऐसी गली से जायेंगे, वहाँ आहार मिलेगा तो करेंगे अथवा ऐसी घटना दिख जाएगी तो आहार करेंगे—यह बहुत ऊंचा तप है। यह तप खेल बनाने लायक नहीं है, क्योंकि इस तप को जो साधु खेल बना लेगा, उसके अनेक दोष आते हैं। समर्थ तो है नहीं, मन में कुछ सोच लिया अथवा न भी सोचा तो भी व्यर्थ ही चक्कर काटना अथवा सोच लिया और न मिले आहार तो करना ही है। तो ऐसा झूठ बोलने का परिणाम भी साधु के नहीं होता है तो झूठ बोलना तो दूर ही रह गया।
साधु के रागद्वेषवशता का व रागद्वेष व शंकर वचनालाप का अभाव—ये सब तप वगैरह उत्तरगुणों में शामिल हैं। साधु के मूलगुणों में शामिल नहीं है। उन्हें न करे तो साधुता नहीं मिट जाती, पर 28 मूलगुणों का ठीक पालन न करें तो साधुता नहीं रहती। शक्ति के बाहर छलांग मारे और फिर न संभाले तो अंतरंग में मृषा आदिक के परिणामों के पाप होंगे। उससे अधिक मल तो यह है कि उत्तर गुणों का विशेष पालन न करे, मूलगुणों का विधिवत् पालन करे। किसी कारणवश साधु के झूठ बोलने का परिणाम नहीं होता। द्वेषवश प्राय: करके, द्वेष के कारण झूठ अधिक बोल दिया जाता है क्योंकि क्रोध में, द्वेष में कुछ सचाई नहीं रहती। सो जिसमें अपना निपटना समझा जाता है वैसे ही वचन बोलेगा। यह भी साधु पुरुष नहीं करते।
साधु के मोहवशता का अभाव—मोहवश भी साधु मृषा नहीं बोलते। किसी साधु ने किया चार महीने का उपवास। वह साधु चतुर्मास बाद ही चले गये। बाद में दूसरे ही दिन दूसरा साधु निकला तो लोगों ने उस दूसरे साधु की तारीफ की। अहो—देखो चार महीने का उपवास किया है इन मुनिराज ने और उसने रोज-रोज खाया था, उपवास भी न किया था, लेकिन वह चुपचाप सुनता रहा। सोचा कि यह तो मुफ्त ही प्रशंसा मिल रही है, सो वह चुप रहना भी उनका झूठ है। इतना कहने में कौनसी हानि थी कि भाई वह मुनि कोई दूसरे होंगे। हम उपवासी नहीं हैं। साधु रागद्वेष मोहवश झूठ बोलने का परिणाम भी नहीं करते हैं। ऐसे साधुवों के ही सत्य महाव्रत है।
निश्छल यथार्थ व्यवहार का कर्तव्य—भैया ! इतना ध्यान तो हम सबको भी होना चाहिए कि हम मोह रागद्वेष का आदर न रक्खें और हित मित प्रिय वचन बोलें। देखो ये सब कलायें उसके जगा करती हैं जिसको बाह्यपदार्थों में तृष्णा का परिणाम नहीं जगता। सर्वकषायों में लोभ कषाय इस जीव को घनी चोट देने वाली होती है। लोभ की मित्रता माया से है, छल कपट से है। जिसके तृष्णा का परिणाम विशेष है वह मन में कुछ रक्खेगा, वचन में कुछकहेगा, शरीर में कुछ करेगा और ऐसे तृष्णावान् पुरुषों को हित मित प्रिय वचन बोलना जरा कठिन हो जाता है। सो जरा एक विवेक की ही तो बात है। इतना निर्णय रखने में आपका क्या जाता है कि मेरे आत्मा का मेरे आत्मस्वरूप से अतिरिक्त परमाणुमात्र भी कुछ नहीं है। इस निर्णय में भी कुछ नुकसान है क्या? यदि यह निर्णय है अंतरंग में तो तृष्णा का रंग नहीं चढ़ सकता। और जब तृष्णा नहीं है तो सत्यव्रत का पालन भली प्रकार निभ सकता है। हम दूसरों से हितकारी वचन बोलें जिससे दूसरों का भी भला हो, छलपूर्ण वचनों का परिहार करें, जितनी शक्ति है जितनी बात है उतनी साफ हो।
पशुवों में भी निश्छलव्यवहार का सन्मान—एक मुसाफिर जंगल में जा रहा था, उसे मिल गया शेर। सो डर के मारे वह मुसाफिर एक पेड़ पर चढ़ गया। उस पेड़ पर बैठा था पहिले से रीछ, अब तो उसके सामने बड़ी कठिन समस्या आ गयी। ऊपर रीछ और नीचे शेर। अब तो वह डरा। पर रीछ ने कहा कि ऐ मनुष्य तुम डरो मत। तुम हमारी शरण में आये हो तो हम तुम्हारी रक्षा करेंगे। उसके कुछ साहस हुआ। वह पेड़ पर बैठ गया। इतने में रीछ को नींद आने लगी। तो सिंह नीचे से कहता है कि रे मनुष्य !रीछ हिंसक जानवर है, अब यह सो रहा है, तू इसे धक्का दे दें तो तू बच जायेगा, नहीं तो मेरे चले जाने पर तुझे मार डालेगा। उसकी समझ में आ गया। रीछ को धक्का देने लगा तो उसकी नींद खुल गयी रीछ संभल गया और न गिर पाया। अब थोड़ी देर बाद मनुष्य को नींद आने लगी। तो सिंह कहता कि रे रीछ। यह मनुष्य बड़ा दुष्ट और कपटी जानवर है, इसको तू नीचे गिरा दे तो तेरी जान बच जायेगी, नहीं तो तू भी न बचेगा। रीछ कहता है कि यह कैसे हो सकता है, हमने इसे शरण दिया है। सिंह बोला कि देख अभी तुझे नीचे गिरा रहा था इतना कपटी मनुष्य है, फिर भी तू उसकी रक्षा-रक्षा चिल्ला रहा है। रीछ ने कहा कि मनुष्य चाहे मुझे धोखा दे दें, पर हम जो एक बार आश्वासन दे चुके हैं उससे नहीं हट सकते। देखो भैया ! जब पशु भी कपट नहीं करते, तब मनुष्यों को तो करना ही क्यों चाहिये?
प्रायोजनिक निश्छल वार्ता की उपादेयता—आप सोचो कि छलपूर्ण वचन कितने भयंकर वचन होते हैं। जिसके साथ छल किया जाय उसको कितनी अन्तर्वेदना होती है, उसे वही भोग सकता है। छल भरी बात सब झूठ है। साथ ही यदि परिमित वचन न हो तो वह भी अनेक विपत्तियों को लाने वाला है। जो ज्यादा बोलते हैं उनका कितना नुकसान है। एक तो वचन अधिक बोलने से वचन की कमजोरी हो जाती, आत्मबल भी कम हो जाता। और कोई अप्रयोजन बात भी बन जाय तो उसका विसम्वाद खड़ा हो जाता है। क्या आवश्यकता है? अरे गृहस्थजन हैं उन्हें तो दो बातों का प्रयोजन है, धर्म का प्रसार हो, धर्म का पालन हो और आजीविका चले। तो जिस बात से धन मिले अथवा धर्म पले उस बात को बोलो, गप्पों में पड़ने से क्या लाभ है?
अप्रिय वचनों की हेयता—भैया ! वचन प्रिय भी होने चाहियें। एक देहाती आदमी गया गंगा नहाने, उसे लगने लगे वहाँ दस्त। वह बीमार हो गया। वहाँ एक झोपड़ी में एक बुढ़िया रहती थी, उसने दया करके कहा कि घबरावो मत, हमारे यहाँ ही भोजन करो। तो पथ्य में उसने खिचड़ी वगैरह बनायी। वह वहाँ ठहर गया। जब बुढ़िया खिचड़ी बना रही थी तो वह बोलता है कि बुढ़िया मां तुम्हारा खर्च कैसे चलता है? तुम तो बड़ी गरीब हालत में हो। बुढ़िया बोली—हमारे दो बेटा है, वे ही खर्चा भेज देते हैं। फिर मुसाफिर बोला कि यदि बेटे मर गये तो फिर कैसे खर्च चलेगा? तो उसने कहा कि तुझे खिचड़ी खाना है कि अट्टसट्ट बकना है। फिर थोड़ी देर बाद बोला कि बुढ़िया मां तुम अकेली रहती हो तुम्हारी शादी करा दें तो तुम दो हो जावोगे। लो, उस बुढ़िया ने उसे वहाँ से भगा दिया। तो ये अप्रिय वचन ही तो थे? कहना तो ठीक था। अरे बेटे मर जायेंगे तो खर्चा कहां से चलेगा, अकेली रहती थी कोई दूसरा होता तो ठीक था। कहना तो ठीक था, पर उस जगह वे अप्रिय और अनुचित वचन थे। अप्रिय वचन हिंसापूर्ण होते हैं, अत: वे हेय हैं। सत्य वचन अहिंसापूर्ण होते हैं।
सत्य आशय की स्वच्छता—अहिंसा का ही अंग है सत्य बोलना। सत्य वचन बोलने से अपने आपकी रक्षा है और दूसरों की रक्षा है। जो कोई साधु आसन्न भव्य हैं अर्थात् जिनकी मुक्ति निकट है, होनहार उत्तम हैं ऐसे पुरुष ही उत्तम संग में, उत्तम आचरण में रहते हैं, परिग्रह की तृष्णा भी न होने की प्रकृति बनाते हैं और दूसरे जीवों को न सताने का भाव रखते हैं। वे आत्मकल्याण भी करते हैं और परमकल्याण भी करते हैं। ऐसे गृहस्थों में भी बिरले महात्मा संत होते हैं। कोई भेष धर लेने मात्र से अन्तरङ्ग की बात नहीं बनती। उपादान तो बहुत कषाय से भरपूर हो, अज्ञान से भरा हो और भेष धर्मात्मा का धारण कर ले तो कहीं उस प्रवृत्ति में कर्मबंध न रुक जायेगा। गर्दभ को कहीं सिंह की खाल मिल जाय और उसे ओढ़ ले तो कुछ दिन तक भले ही दूसरें जीवों को चकमा देता रहे परन्तु शूरता तो उसमें न हो जायेगी। गृहस्थजन कोट, कमीज, टोपी के ही भेष में रहते हैं, रहें किन्तु जिस गृहस्थ का अन्तरङ्ग शुद्ध स्वच्छ है वह सत्पथ पर ही है। स्वच्छता यही है कि बाह्यपदार्थों में आत्मीयता न करना और यह दृष्टि में रहे कि मेरा-मेरा स्वरूप के अतिरिक्त कुछ नहीं है। सत्य कल्प व जल्प का सत्य प्रभाव होता है।
अहित व अप्रिय वचन से निवृत्ति—भैया ! जो परिग्रह का समागम हुआ है, उस परिग्रह का प्रतिदिन या यथा अवसर सदुपयोग करो अन्यथा कोई ऐसा टिल्ला लगेगा कि अचानक ही धन बरबाद हो जायेगा। अपनी शुद्ध वृत्ति से पर के उपकार में लगने के लिये सद्गृहस्थ उत्साहित रहा करते हैं। वैभव को परोपकार में लगाते हुए चित्त में ऐसी स्वच्छता रहनी चाहिये कि अहितकारी और अप्रिय वचन बोलने का परिणाम भी न आये। साधु अहिंसा और सत्य की मूर्ति है। वास्तविक सत्य तो वह है, जो आत्मा की उन्नति के साधक ही वचन हों। उसके अलावा यदि रोजगारसंबन्धी भी सच्चाई के बर्ताव के वचन हैं तो वे भी मोक्षमार्ग की दृष्टि में असत्य कहलाते हैं। इन सत्यवचनों का गृहस्थ त्यागी नहीं होता। इस कारण गृहस्थ के सत्यअणुव्रत है। गृहस्थ व साधु हो, सभी आत्मार्थी जनों को अहित व अप्रिय वचन से निवृत्त रहना चाहिये।
असत्यवादी से दूर रहने में भलाई—जो पुरुष सत्य वचनों में अनुराग रखता है, असत्य वचनों का परिहार करता है; वह बड़े देवेन्द्रपथ को प्राप्त होता है, नाना भोगों का पात्र होता है और इस लोक में भी सज्जनों के द्वारा पूज्य होता है। सत्य से बड़ी प्रतिष्ठा होती है। जिस पुरुष के संबन्ध से दूसरे को यह विदित हो जाये कि यह असत्य बोला करता है तो उसके निकट लोग बैठना भी पसंद नहीं करते। उसे खतरा समझते हैं और विचारते भी हैं कि न जाने इसकी बात में आ जायें तो मेरा क्या-क्या अलाभ हो जावे।
असत्यवादी के संग से क्षति होने पर एक दृष्टान्त—एक पुरुष ने किसी सेठजी के यहाँ नौकरी की। सेठ ने पूछा कि क्या लोगे वेतन? उसने कहा कि साहब ! थोड़ा सा छटांक-दो-छटांक भोजन और साल भर में एक बार झूठ का बोलना, यह हमारा वेतन होगा। सेठ ने समझा कि यह तो बड़ा सस्ता नौकर मिल गया और रख लिया उसे। कुछ माह बाद नौकर ने सोचा कि सेठजी से झूठ बोलने का अपना वेतन तो पूरा ले लेना चाहिये। तो नौकर ने सेठानी से कह दिया कि सेठजी वेश्यागामी हैं, तुम्हें इनका पता नहीं है, ये रात्रि को शहर भाग जाया करते हैं। तुम इनकी परीक्षा कर लो, इनकी आदत छुटाने का भी उपाय कर लो। तुम रात्रि को उस्तरे से इनकी एक ओर की दाढ़ी बना दो जब कि वे खूब डटकर सो रहे हों, तो उन्हें पता ही न पड़ेगा। कुछ उस्तरे ऐसे भी होते हैं कि धीरे से बाल बना भी दो तो पता नहीं चलता। जब ये बदसूरती में वेश्या के यहाँ जावेंगे, तब वेश्या इन्हें निकाल देगी। यह तो कह दिया सेठानी जी से और सेठजी से क्या कह दिया कि आज सेठानी दूसरे यार की बात में आकर रात्रि को तुम्हारी जान लेने आयेगी, आज तुम सोना नहीं, जगते रहना और झूठमूठ सोना। अब तो उसे नींद न आये। रात्रि को वह बढ़िया उस्तरा लेकर सेठजी की एक तरफ की दाढ़ी साफ करने आयी। सेठजी सो तो न रहे थे, उन्होंने सोचा कि नौकर ने ठीक ही कहा था कि सेठानी आज तुम्हारी जान लेने आयेगी। अब सेठ सेठानी में बहुत विकट लड़ाई हुई तो नौकर कहता है कि सेठजी हमने अपना पूरा वेतन ले लिया, अब घर जा रहे हैं। तो किसी-किसी को झूठ बोले बिना, चकमा दिये बिना चैन नहीं पड़ती है। कितनी प्रकार के इस जीव के परिणाम रहते हैं और उसके कारण कैसे वचनालाप होते हैं, वे सब हिंसात्मक वचनालाप हैं।
सत्यभाषण की आवश्यकता—भैया ! जहां राग-द्वेष-मोह भाव होता है, वहाँ अहिंसापोषक सत्य वचन नहीं होता हैं। मनुष्य के सब व्यवहारों का साधन वचनव्यवहार है। वचन बोलने की ऐसी विशद योग्यता मनुष्यभव में प्राप्त होती है। असत्य बोलकर मनुष्य जीवन को विफल कर दिया जाये तो पशु, पक्षी, कीड़े, स्थावरों जैसा तिर्यंचभव मिलेगा, वहाँ कठिन विडम्बना बीतेगी। सत्यभाषण से उत्कृष्ट व्रत और व्यवहार में क्या हो सकता है? सत्यभाषण के प्रसाद से चोरी, कुशील, तृष्णा और जीवघात आदि सब दोष समाप्त हो जाते हैं। अत: अप्रमादी होकर सत्यभाषण करना प्रमुख कर्तव्य है।