वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 58
From जैनकोष
गाभे वा णयरे वा रण्णे वा पेच्छिेऊण परमत्थं।
जो मुचदि गहणभावं तिविदवदं होदि तस्सेव।।58।।
अचौर्यव्रत—अब अचौर्यमहाव्रत का स्वरूप वर्णन किया जा रहा है। चोरी न करना इसका नाम अचौर्य व्रत है। जिन आध्यात्मिक योगियों ने परमार्थ चोरी से दूर रहने का संकल्प किया है, ऐसे ज्ञानी संत व्यवहार अचौर्य महाव्रत के पालने में सावधान रहा ही करते हैं। वस्तुत: चोरी उसका नाम है कि हो तो परवस्तु और अपना बना लेवे। व्यवहार में भी जो चोरी नाम है, वह भी यही अर्थ रखता है तो दूसरें की चीज, दूसरे के अधिकार की बात और उसे किसी समय आँख बचाकर ले लेना अर्थात् अपनी बना लेना, पर की चीज को अपनी बना लेने का नाम चोरी है। अब देखो कि दुनिया में अपनी चीज क्या है और पर की चीज क्या है? एक आत्मस्वरूप को छोड़कर शेष समस्त पदार्थ पर हैं, उन परों को अपना लेना, कल्पना में अपना मान लेना आध्यात्मिकक्षेत्र में, मोक्षमार्ग के प्रकरण में यही चोरी है। जो ज्ञानी पुरष हुए हैं, उनके इस प्रकार से चोरी का परिहार हुआ।
मूलत: अचौर्यव्रत—जो व्यवहार की चोरी से तो दूर हैं, किन्तु परमार्थ की चोरी से दूर रहने का जिनका ध्यान भी नहीं है, ऐसे पुरुष पुण्यबंध तो कर लेते हैं, किन्तु जिसे धर्म कहते हैं जिसे कर्म की निर्जरा का कारणभूत उपाय कहा करते हैं, वह नहीं बन पाता—ऐसे ज्ञानी संत जो कि परवस्तु को पर ही जानते हैं और आत्मस्वभाव को निज जानते हैं वे व्यवहार की चोरी से दूर रहने में बहुत सावधान रहते हैं। ग्राम में, नगर में या वन में पर की चीज को देखकर जो ग्रहण करने का भाव छोड़ता है, उसके ही यह अचौर्य महाव्रत होता है। दूसरे की चीज न लेना, इस चोरी के त्याग का नाम उपचार से है और दूसरे की चीज को लेने का भाव ही न उत्पन्न होना, यह है मूल में अचौर्य महाव्रत।
चौर्य के परिणाम की पापरूपता—भैया चीज के धरे उठाये जाने से चोरी का पाप नहीं होता, किन्तु चोरी का परिणाम करने से चोरी का पाप होता है। इरादतन चोरी के भाव से चीज ग्रहण करने का नाम चोरी है। आपसे कोई मित्र बात कर रहा हो और उसकी प्रसंग में कभी ऐसा हो जाये कि आप उसकी जेब से पैन निकाल लें, आप उससे गप्पें करते जा रहे हैं और गप्पें करते हुए ही आप अपने घर जाने लगें तथा वह मित्र अपने घर जाने लगे। आपको उस मित्र का पैन देने का ध्यान ही न रहा और हो भी जाता है ऐसा। अब आप अपने घर पहुंच गये, ख्याल आया कि ओह, गप्पें करते हुए में मित्र का पैन ले लिया था, देने का ध्यान ही न रहा। अब आप जाकर उस मित्र का पैन दे आते हैं। अब आप यह बतलावो कि क्या इसमें चोरी का पाप लग गया? नहीं लगा। इरादतन किसी की वस्तु को अपना लेना, इसका नाम चोरी है।
परवश अनिच्छादत्त का भी चौर्य पाप—कोई पुरुष यह सोचे कि दूसरे के द्वारा बिना दी हुई चीज का ले लेना चोरी है और डाकू लोग आपके हाथ से भी वस्तु ले लिया करते हैं तो क्या वह चोरी नहीं है? वे आपसे ही कहते हैं कि चाबी निकालो, आपसे ही कहते हैं कि तिजोरी खोलो, आपसे ही धन निकलवा कर ले लेते हैं तो यह भी तो चोरी है। पर की चीज को पर की इच्छा के बिना, पर की प्रसन्नता बिना ले लेना, इसका नाम चोरी है। किसी को दबाकर, परेशान कर, किसी मामले में फंसाकर उससे कुछ ले लेना, यह भी चोरी है। हाथ से कोई दे और आप ले लें, इतने मात्र से चोरी का पाप नहीं मिटता है, किन्तु यदि कोई इच्छापूर्वक दे, प्रसन्नता सहित दे और आप उसे ग्रहण करें तो वह चोरी में शामिल नहीं है।
व्यवहाराशक्य प्रसंग में चोरी का अभाव—जिन चीजों में देने का और लेने का व्यवहार ही नहीं है तो ऐसी वस्तुवों को कोई ले लेवे तो वह भी चोरी नहीं है। कर्मवर्गणाएं कितनी यह जीव ग्रहण करता है? क्या कोई कर्मवर्गणाएं दिया करता है? लो अब इसे बान्ध लो और अपने घर में धर दो। कोई देने वाला नहीं है, उसमें देने और लेने का व्यवहार ही नहीं है। कर्मवर्गणावों को ग्रहण कर लेना, बान्ध लेना, यह चोरी नहीं है क्या? नहीं।
अचौर्यव्रत का व्यवहार्य व्यवहार—किसी भी जगह कोई चीज पड़ी हो, किसी की भूली हुई हो, किसी की धरी हुई हो अथवा गिर गई हो, उस परद्रव्य को देखकर भी स्वीकार करने का परिणाम न होना, इस ही का नाम अचौर्य महाव्रत है। कितनी ही जगह हैं, जहां किसी का परद्रव्य गिर जाता है, भूल जाता है, उसको इस गाथा में सांकेतिक किया है जैसे ग्राम, नगर व असंख्य अर्थात् वन में। गांव उसे कहते हैं जो बाड़ियों से घिरा हुआ हो। जैसे छोटे-छोटे गांव होते हैं ना तो घरों के चारों ओर अथवा जननिवास के चारों ओर खेत खलिहान की बाड़िया लगी होती हैं। तो बाड़ियों से घिरा हुआ जो मनुष्य का निवास है, उसका नाम गांव बताया गया है। जिस गांव के चारों ओर आने जाने के दरवाजे हों, अच्छे सुसज्जित स्थान हों, उन निवासों को कहते हैं नगर। नगर बड़ी चीज है। तो चाहे गांव में भूली पड़ी गिरी वस्तु हो; चाहे नगर में भूली पड़ी गिरी वस्तु हो या वन में भूली पड़ी गिरी हुई वस्तु हो तो उस वस्तु को स्वीकार न करना और स्वीकार के परिणाम भी न होना या भावना होना, इसका नाम अचौर्य महाव्रत है।
वैभव भी धूल—एक श्रावक श्राविका थे। दोनों किसी काम से दूसरे गांव जा रहे थे। तो प्राय: यह रिवाज है कि पुरुष आगे चलता है और स्त्री पीछे चलती है। किसी जगह स्त्री एक फर्लांग दूर रह गई और उस मनुष्य को एक जगह 10, 20 पड़ी हुई मोहरें मिल गई, किसी की गिर गई होंगी। तो श्रावक सोचता है कि पत्नी पीछे आ रही है, उसके आने से पहले ही इन मोहरों पर धूल डाल दें और इन्हें ढक दें, नहीं तो इनको देखकर सुहा जाने से स्त्री का मन मलिन हो जायेगा और पापबन्ध हो जायेगा। सो वह उन मोहरों पर धूल डालने लगा। इतने में स्त्री आ गयी और कहती है कि आप यह क्या कर रहे हैं? वह बोलता है कि मोहरों पर धूल डाल रहा हू ताकि इनको देखकर तुम्हारा परिणाम न मलिन हो जाय। तो स्त्री कहती है कि क्या व्यर्थ का काम कर रहे हो, बढ़े चलो आगे, तुम धूल पर धूल क्यों डाल रहे हो? तो श्रावक के मन में यह आया कि ये मोहरें हैं, इनको देखकर स्त्री का परिणाम न मलिन हो जाय और श्राविका के मन में आया कि क्या धूल पर धूल डाल रहे हो? तो ऐसा ही परिणाम जहां हुआ करता है वस्तुत: अचौर्य महाव्रत का पालन वहाँ होता है।
अचौर्य महाव्रत का परिणाम—किसी की चीज कहां खो जाती है इसका संकेत किया गया है—ग्राम, नगर व वन। प्राय: वनों में इनके खो जाने का प्रसंग अधिक आया करता है, साधुवों के सत्संग में लोग वनों में जाते हैं—साधुजन चूकि वनों में ही रहा करते हैं, वहाँ दर्शन करने श्रावक लोग खूब जाते हैं। खूब भीड़भाड़ हो जाती है, भीड़भाड़ के कारण वहाँ बहुत से आभूषण गिर जाते हैं, वन में नाना वनस्पति, लतायें, छोटे पौधे अधिक होते हैं वहाँ पड़ जाते हैं। तो कोई वस्तु हो, गिरी भूली धरी हो उसके स्वीकार करने का परिणाम जो त्याग देता है ऐसे साधु के अचौर्य महाव्रत का परिणाम होता है। जो पुरुष इस अचौर्य महाव्रत का पालन करता है उसको इस लोक में अथवा परलोक में बहुत विभव समृद्धि प्राप्त होती है। उच्च गति हो, स्वर्ग के वैभव मिलें और ऐसा निराला परिणाम रखने वाले पुरुष मनुष्यभव को सफल करते हैं, मुक्ति के पात्र होते हैं।
धर्मपालन में आन्तरिक साहस की आवश्यकता—भैया ! दो चीजों का मेल करना बड़ा कठिन है। (1) लोकपोजीशन भी हमारी बढ़ी हुई रहे और (2) धर्म का पालन भी सही प्रकार कर लें—इन दोनों का मेल होना आज के समय में तो बड़ा कठिन है। किसी भी प्रकार की लौकिक पोजीशन हो, चाहे नेता बनकर पोजीशन बढ़ाई जाय अथवा धनी बनकर पोजीशन बढ़ाई जाय, बड़ा कठिन पड़ता है कि शुद्ध सरल स्वच्छ परिणाम रखकर अन्तर में धर्मपालन भी बराबर रहे और यह लोकप्रतिष्ठा भी बनी रहे। खूब समृद्धिशाली धनी हो जाना यह भी साथ चलता रहे, यह बहुत कठिन काम है। धर्मपालन की धुनि वाला इतना साहस किए हुए हो कि मैं अकेले ही भला चोखा रहूं अथवा कैसी भी स्थिति आ जाय, प्रत्येक स्थिति में गुजारा किया जा सकता है।
ज्ञानी की अनाकांक्षता—एक भजन में यह लिखा है कि ‘जगत् में सुखिया सम्यक्वान। भीख मांगकर उदर भरे पर न करे चक्री का ध्यान।।’ चाहे किसी से मांगकर, अपनी बात बताकर किसी से भिक्षा लेकर ही पेट भर ले पर चित्त में यह ध्यान कभी नहीं लाते उत्तम पुरुष कि हाय हम न हुए चक्रवर्ती के जैसे वैभव वाले। ऐसा किसी भी प्रकार का ध्यान न करना। जो चक्री हो वह भी भव परित्याग करेगा और जो थोड़ी स्थिति का हो वह भी सब परित्याग करेगा। अध्यात्मक्षेत्र में किए जाने वाले कर्तव्य को लोक क्षेत्र के सिर पर खड़े होकर सुनें तो वह सब अटपट लगता है कि क्या कही जा रही है कायर बनने की बात? देश किस ओर जा रहा है, हवा कैसी चल रही है, राजनीति संभालने का समय है और यहाँ क्या उपदेश हो रहा है, अटपट लगता है, किन्तु अध्यात्महित से भाव से इस ही तत्त्व को सुना जाये, कहा जाय तो बात यथार्थ सत्य है। यहाँ कितने दिन को सुख चाहते हो, कितने दिन के आराम के लिए सारा श्रम किए जा रहे हो? कल का ही तो कुछ पता नहीं है। क्या होगा भविष्य में, इसका भी तो ध्यान होना चाहिए।
निज प्रभु के प्रसाद में अचौर्यव्रत का पालन—अचौर्यव्रत का धारी अंतरङ्ग में ऐसा निर्मल है कि वह इस देह को भी अपनाता नहीं। देह मेरा है, देह को हम अपना बना लें, ऐसी भी बुद्धि साधुसंत पुरुष के नहीं होती है यद्यपि देह को छोड़कर कहां जायें, लगा हुआ ही है, पर देह मैं हू, देह मेरा है ऐसी उसकी बुद्धि नहीं होती है। देह से भी न्यारा ज्ञानप्रकाशमात्र समस्त आनन्द के निधान ज्ञानस्वरूप निज प्रभु का प्रसाद पाये बिना संसार में कितने दु:ख भोगने पड़ रहे हैं? दु:ख कुछ नहीं है, दु:ख बना लिया जाता है। और मनुष्य तो प्राय: दु:ख बनाने में बड़े कुशल हैं।
मनुष्यों में पशुवों से अधिक व्यग्रता—पशुवों को जब भूख लगी तब मिल गया, खा लिया, पर घास का संग्रह करके रक्खें और सालभर का हिसाब बनावें ऐसा वहाँ कुछ नहीं है। निर्द्वन्द्व होकर पक्षी पशु जंगल में विचरते फिरते हैं। कहीं के कहीं चले जायें, कुछ हुई नहीं है। जिस समय वेदना हुई उस समय इलाज कर लिया। हालांकि यह नहीं कह रहे हैं कि पशु पक्षी बुद्धिमान हैं मनुष्य से, पर मनुष्यों को तो देखो कि वे कितने फंसे हुए है? क्या वे मनुष्य एक वर्ष को ही अपने विषयों के साधन जोड़ते हैं? नहीं। जिन्दगी भर को और जीवन में भी यह नहीं सोच सकते कि चलो जो मिला है उसे खा ही लें। वे तो केवल ऊपरी रकम से ब्याज से, किराये से हमारा जीवन चले और सब सुरक्षित रहे, ऐसी बुद्धि बनाए हुए है। इसके अतिरिक्त यश प्रतिष्ठा की चाह का तो कुछ कहना ही नहीं है।
स्वरूपविरुद्धवृत्ति में मोही की होड़बाजी—यद्यपि पशुपक्षियों में भी थोड़े समय को यश की चाह उत्पन्न होती है, किन्तु वे थोड़ी देर को सिर में सिर, मार लेते और जरा अपन जीत गए, खुश हो गए, हम बड़े कहलाने लगे यों अनुभव करने लगते हैं। जरा चोंचों से और पंखों से मार कर किसी पक्षी को भगा दिया, लो अपने में यश का अनुभव करने लगते है। यद्यपि पशुपक्षी भी यश प्रतिष्ठा चाहते हैं, लेकिन इस मनुष्य में कितने विकल्पजाल होते हैं। यश चाहने में नाम बढ़ाने के लिए कैसी-कैसी स्थितियां बनी हुई हैं? धनी जुदा होना और बातें जुदा करना, कितनी बातें चलती हैं तो स्वीकार की बात देखो—कितने परतत्त्वों को यह आत्मा स्वीकार कर रहा है, पर ज्ञानी संत पुरुष एक आत्मीय चित्स्वभाव के अतिरिक्त अन्य किसी भी तत्त्व को स्वीकार नहीं करता। स्वीकार का अर्थ क्या है—‘अस्वं स्वमिव करोति इति स्वीकार:’ जो अपना नहीं है उसको अपने की तरह कर लेना इसका नाम हे स्वीकार। स्व शब्द है ना, और फिर कार शब्द और लग गया—‘स्वं इव करोति इति स्वीकार:’ जो अपना नहीं है उसे अपना बना लेना इसका नाम है स्वीकार। स्वीकार शब्द संस्कृत का है। निज को निज पर को पर जान, यह है अचौर्य महाव्रत का उत्कृष्ट स्वरूप, लेकिन खेद है कि स्वरूप विरुद्धवृत्ति में हमने पथ से भी होड़ लगा दी है।
व्यामोह का नशा—भैया ! कुछ मोटेरूप से ही देखो तो चोरी करने वाला पुरुष न तो शांति का पात्र रहता है और न धर्म का पात्र रहता है, बल्कि अंत में वह ही उल्टा बरबाद हो जाता है। क्या कभी किसी डाकू को धनी होते देखा है? नहीं देखा होगा। बल्कि वे डाकू परस्पर में ही लड़कर एक दूसरे पर गोली चला देते हैं, या सरकारी सिपाही आदि मार डालते हैं वे मर जाते हैं। उनका जीवन में कभी भला नहीं हो पाता है और जब तक जीवन है तब तक भी वे सदा भयशील बने रहते हैं, इधर-उधर छिपते फिरते हैं, सारे नटखट हुआ करते हैं, किन्तु व्यामोह का नशा बड़ा विचित्र है कि इतने कष्ट भोग करके भी जिसकी चोरों की प्रकृति पड़ जाती है वह रह नहीं सकता।
सत्यभाषण से पापनिवृत्ति—कहीं इतिहास में या पुराण में सुना है कि किसी राजा के पुत्र को चोरी करने की प्रकृति पड़ गयी। हालांकि कुछ कमी न थी, पर चोरी करने में उसे आनन्द आता था। इस ही बात से राजा ने उसे निकाल दिया था। लेकिन जब कोई साधु का सत्संग हुआ तो वहाँ साधु ने कहा कि तुम चोरी का परित्याग करो। बोला—महाराज इसमें तो हम ऐसा रंग गए हैं कि इस जीवन में यह काम नहीं छूट सकता। महाराज और कोई व्रत दिलावो। तो कहा—अच्छा देखो तुम सच बोला करो। राजपुत्र बोला, हाँ महाराज यह तो कर सकेंगे। मैं अब सच ही बोलूगा। तो अब किसी दूसरे राजा के महल में चोरी करने जा रहा था। पहरेदारों ने पूछा कि कहां जा रहे हो? बोला कि चोरी करने। चोरी करने तो जा ही रहा था। पहरेदारों ने कहा कि इसे जाने दो, चोर कहीं ऐसा कहा करते हैं? सबसे पार होकर चोरी भी की और खूब माल लूटा। बाद में सनसनी फैल गई। राजा ने ऐलान किया कि जिसने चोरी की हो, वह पेश हो जावे। राजपुत्र सारा धन लेकर राजा के यहाँ पहुंचा और बोला कि महाराज ! मैंने चुराया। कैसे चुराया? उसने सारी बात बता दी। बोला कि मैंने सत्य बोलने का नियम लिया है, सो सत्य बोलता हुआ चला आया। मैं राजपुत्र हू, मुझे चीज चुराने से कोई मतलब नहीं है, न किसी चीज की मुझे तृष्णा है, किन्तु मुझे चोरी करने में आनन्द आता है। सत्य बोलने से राजा उससे बड़ा खुश हुआ, उसे उत्तराधिकारी बनाया व उसकी चोरी भी छूट गई।
चौर्यपरिणाम में रुद्रता—चोरी में आनन्द मानना एक बड़ा क्रूर आशय बताया गया है। ध्यानों में चार प्रकार के ध्यान हैं—आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्लध्यान।। आर्तध्यान करने वाले की उतनी बड़ी दुर्गति नहीं होती, जितनी बड़ी दुर्गति रौद्रध्यान करने वाले की होती है। आर्तध्यान कहते हैं आर्ति में, क्लेश में ध्यान होना। इष्ट का वियोग होने पर उसके संयोग के लिये ध्यान चलाना आर्तध्यान हुआ। अनिष्ट का संयोग होने पर उसके वियोग के लिये ध्यान बनाना, दु:खी होना अथवा इच्छा करके हैरानी करना—यह सब आर्तध्यान है। इस आर्तध्यान के फल में विशेष दुर्गति नहीं होती, पर रौद्रध्यान के फल में विशेष दुर्गति होती है। हिंसा में आनन्द मानना, झूठ बोलने में आनन्द मानना चोरी में आनन्द मानना और विषयों के संरक्षण में आनन्द मानना रौद्रध्यान है।
रौद्रध्यान की विशिष्टपापरूपता का प्रमाण—रौद्रध्यान पञ्चम गुणस्थान तक सम्भव है, आगे नहीं; किन्तु आर्तध्यान छठवें गुणस्थान में भी सम्भव है। इष्ट का वियोग होने पर दु:ख होना कदाचित् मुनियों के भी हुआ करता है। उनका कोई प्रिय शिष्य कष्ट में हैं तो उनके भी कष्ट हो जाये या कोई प्रतिकूल शिष्य पीछा ही न छोड़ता हो उसके पीछे खेद हो जाना—यह साधुवों के भी हो सकता है, उसका भी थोड़ा ख्याल रहे तो यह छठे गुणस्थान तक हो सकता है। रौद्रध्यानी तो पञ्चमगुणस्थान से आगे ही नहीं पहुंच सकता, बल्कि सम्यक्त्व होने पर भी दृढ़ता से रौद्रध्यान नहीं होता। क्रूरआशय वहाँ भी नहीं होता है। जैसे जिस शरीर का चमड़ा ही छिल दिया गया, वहाँ रोम कहां से ठहरेंगे? यों ही जहां समस्त परद्रव्यों को अस्वीकार कर दिया गया कि ये मेरे नहीं हैं, मैं तो अपने स्वरूप सत्मात्र हू, अपने आपके अद्वैतरूप हू। यों ध्यान करके जहां समस्त परद्रव्यों का परिहार कर दिया गया है। उपयोग से वहाँ परकीय वस्तु को ग्रहण कर लेना यह कहां सम्भव हो सकता है?
शुद्ध आशय का परिणाम—भैया ! सब लगन की बात है। जिसकी जिस ओर लगन हो जाती है, उसको यही चीज सुहाया करती है। जब तक मिथ्यात्व में वासित हृदय है और परकीय पदार्थों के सञ्चय में लगे हुए है तो वहाँ संसार की ही धुन में लग जाना पड़ेगा। जो अपने आपका सर्व विविक्त, निर्मल अपरिचित केवल अपने आपकी ही जिम्मेदारी में रहने वाले इस आत्मतत्त्व का परिचय पा लेता है, उसके तो घर में बसने वाले स्त्री पुत्रों पर भी मोह नहीं रहता है। अब जो घर में रहते हैं, सारे काम करते हैं, वे गृहस्थ भी कर्तव्य जानकर करते हैं; किन्तु आत्मा में उन समस्त परकीय सञ्चयों केकर्तव्यों में प्रसन्नता नहीं है, अन्तर में लगन तो एक आत्महित की ही पड़ी हुई है। और देखो कि ऐसे सुबोध, प्रबुद्धचेता, ज्ञानी बन जाने पर भी उसके वैभव में फर्क नहीं आता, बल्कि वैभव वृद्धि को ही प्राप्त होता है। कोई धन हाथ पैर पीटने से नहीं आता है, यह तो सब पुण्योदय की बात है और पुण्य का उदय होता है धर्मपालन से, सद्विचार से। जो पुरुष महाव्रत का शुद्ध मन से पालन करता है, उसको इस लोक में भी वैभव का सञ्चय स्वयमेव होता है और परभव में भी देवगति को प्राप्त कर देवों की ऋद्धियोंका सुख प्राप्त होता है।
पर से विरक्ति सर्वस्व लाभ—यह वैभव छाया की तरह है। जैसे छाया को पकड़ोगे तो वह दूर भागेगी और छोड़े रहोगे तो पीछे-पीछे ही चलेगी। यों ही इस वैभव को छोड़े रहोगे, विविक्त माने रहोगे तो यह वैभव पीछे चला करेगा और कोई इस वैभव को पकड़ने के लिये बढ़ेगा तो वह वैभव उससे दूर भागा करेगा। देखो कि तीर्थंकरनाथ ने विरक्त होकर सर्ववैभव का परित्याग किया और आत्मसाधना की, अरहंत हो गये, परिग्रह से दूर हुए, उसके फल में अनुपम समवशरण की रचना हुई। उसमें एक गन्धकुटी बनी हुई है, रत्नों का सिंहासन बना हुआ है, इतने ऊपर प्रभु विराज रहे हैं। तो यदि इस वैभव को छोड़े रहोगे तो यह तुम्हारे पीछे-पीछे चलेगा और यदि इसको ग्रहण करने की चेष्टा की तो यह दूर भगेगा। परद्रव्य की अस्वीकारता से, अचौर्यव्रत के पालने से सद्बुद्धि रहती है, संसार कटता है और फिर अन्त में मोक्षपद की प्राप्ति होती है।