भावपाहुड गाथा 103
From जैनकोष
आगे भक्तिरूप वैयावृत्त्य का उपदेश करते हैं -
णियसत्तीए महाजस भत्तीराएण णिच्चकालम्मि ।
तं कुण जिणभत्तिपरं विज्जावच्चं दसवियप्पं ।।१०५।।
निजशक्त्या महायश: ! भक्तिरागेण नित्यकाले ।
त्वं कुरु जिनभक्तिपरं वैयावृत्यं दशविकल्पम् ।।१०५।।
निजशक्ति के अनुसार प्रतिदिन भक्तिपूर्वक चाव से ।
हे महायश ! तु करो वैयावृत्ति दशविध भाव से ।।१०५।।
अर्थ - हे महायश ! हे मुने ! जिनभक्ति में तत्पर होकर भक्ति के रागपूर्वक उस दस भेदरूप वैयावृत्त्य को सदाकाल तू अपनी शक्ति के अनुसार कर । `वैयावृत्त्य' के दूसरे दु:ख (कष्ट) आने पर उसकी सेवा चाकरी करने को कहते हैं । इसके दस भेद हैं - १. आचार्य, २. उपाध्याय, ३. तपस्वी, ४. शैक्ष्य, ५. ग्लान, ६. गण, ७. कुल, ८. संघ, ९. साधु, १०. मनोज्ञ, ये दस भेद मुनि के हैं । इनका वैयावृत्त्य करते हैं, इसलिए दस भेद कहे हैं ।।१०५।।