भावपाहुड गाथा 103
From जैनकोष
आगे फिर कहते हैं -
कंदं मूलं बीयं पुप्फं पत्तादि किंचि सच्चित्तं ।
असिऊण माणगव्वं भमिओ सि अणतसंसारे ।।१०३।।
कंदं मूलं बीजं पुष्पं पत्रादि किंचित् सचित्तम् ।
अशित्वा मानगर्वे भ्रमित: असि अनंतसंसारे ।।१०३।।
अर कंद मूल बीज फूल पत्र आदि सचित्त सब ।
सेवन किये मदमत्त होकर भ्रे भव में आजतक ।।१०३।।
अर्थ - कंद जमीकंद आदिक, बीज चना आदि अन्नादिक, मूल अदरक मूली गाजर आदिक, पुष्प फूल, पत्र नागरबेल आदिक इनको आदि लेकर जो भी कोई सचित्त वस्तु थी उसे मान (गर्व) करके भक्षण की । उससे हे जीव ! तूने अनंत संसार में भ्रमण किया ।
भावार्थ - कन्दमूलादिक सचित्त अनन्तजीवों की काय है तथा अन्य वनस्पति बीजादिक सचित्त हैं इनको भक्षण किया । प्रथम तो मान करके कि हम तपस्वी हैं, हमारे घरबार नहीं है, वन के पुष्प फलादिक खाकर तपस्या करते हैं, ऐसे मिथ्यादृष्टि तपस्वी होकर मान करके खाये तथा गर्व से उद्धत होकर दोष समझा नहीं, स्वच्छंद होकर सर्वभक्षी हुआ । ऐसे इन कंदादिक को खाकर इस जीव ने संसार में भ्रमण किया । अब मुनि होकर इनका भक्षण मत कर, ऐसा उपदेश है । अन्यमत के तपस्वी कंदमूलादिक फल-फूल खाकर अपने को महंत मानते हैं, उनका निषेध है ।।१०३।।