भावपाहुड गाथा 117
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि हे मुने ! तू ऐसी भावना कर -
णाणावरणादीहिं य अट्ठहिं कम्मेहिं वेढिओ य अहं ।
डहिऊण इण्हिं पयडमि अणंतणाणाइगुणचित्तां ।।११९।।
ज्ञानावरणादिभि: च अष्टभि: कर्मभि: वेष्टितश्च अहं ।
दग्ध्वा इदानीं प्रकटयामि अनन्तज्ञानादिगुणचेतनां ।।११९।।
अष्टकर्मो से बंधा हूँ अब इन्हें मैं दग्धकर ।
ज्ञानादिगुण की चेतना निज में अनंत प्रकट करूँ ।।११९।।
अर्थ - हे मुनिवर ! तू ऐसी भावना कर कि मैं ज्ञानावरणादि आठ कर्मो से वेष्टित हूँ, इसलिए इनको भस्म करके अनन्तज्ञानादि गुण निजस्वरूप चेतना को प्रगट करूँ ।
भावार्थ - अपने को कर्मो से वेष्टित माने और उनसे अनन्तज्ञानादि गुण आच्छादित माने तब उन कर्मो के नाश करने का विचार करे, इसलिए कर्मो के बंध की और उनके अभाव की भावना करने का उपदेश है । कर्मो का अभाव शुद्धस्वरूप के ध्यान से होता है, उसी के करने का उपदेश है । कर्म आठ हैं - १. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. मोहनीय, ४. अंतराय - ये चार घातिया कर्म हैं, इनकी प्रकृति सैंतालीस हैं, केवलज्ञानावरण से अनन्तज्ञान आच्छादित है, केवलदर्शनावरण से अनन्तदर्शन आच्छादित है, मोहनीय से अनन्तसुख प्रगट नहीं होता है और अंतराय से अनन्तवीर्य प्रगट नहीं होता है, इसलिए इनका नाश करो । चाार अघातिकर्म हैं, इनसे अव्याबाध, अगुरुलघु, सूक्ष्मता और अवगाहना ये गुण (इन गुणों की निर्मल पर्याय) प्रगट नहीं होते हैं, इन अघातिकर्मो की प्रकृति एक सौ एक है । घातिकर्मो का नाश होने पर अघातिकर्मो का स्वयमेव अभाव हो जाता है, इसप्रकार जानना चाहिए ।।११९।।