भावपाहुड गाथा 117
From जैनकोष
आगे पुण्य-पाप का बंध जैसे भावों से होता है, उनको कहते हैं । पहिले पापबंध के परिणाम कहते हैं -
मिच्छत्त तह कसायासंजमजोगेहिं असुहलेसेहिं ।
बंधइ असुहं कम्मं जिणवयणपरम्मुहो जीवो ।।११७।।
मिथ्यात्वं तथा कषायासंयमयोगै: अशुभलेश्यै: ।
बध्नाति अशुभं कर्म जिनवचनपराङ्मुख: जीव: ।।११७।।
जिनवच परान्मुख जीव यह मिथ्यात्व और कषाय से ।
ही बांधते हैं करम अशुभ असंयम से योग से ।।११७।।
अर्थ - मिथ्यात्व, कषाय, असंयम और योग जिनमें अशुभ लेश्या पाई जाती है इसप्रकार के भावों से यह जीव जिनवचन से पराङ्मुख होता है-अशुभकर्म को बांधता है वह पाप ही बांधता है ।
भावार्थ - `मिथ्यात्वभाव' तत्त्वार्थ का श्रद्धानरहित परिणाम है । `कषाय' क्रोधादिक हैं । `असंयम' परद्रव्य के ग्रहणरूप है, त्यागरूप भाव नहीं, इसप्रकार इन्द्रियों के विषयों से प्रीति और जीवों की विराधनासहित भाव हैं । `योग' मन-वचन-काय के निमित्त से आत्मप्रदेशों का चलना है । ये भाव जब तीव्र कषाय सहित कृष्ण, नील, कापोत अशुभ लेश्यारूप हों तब इस जीव के पापकर्म का बंध होता है । पापबंध करनेवाला जीव कैसा है ? उसके जिनवचन की श्रद्धा नहीं है । इस विशेषण का आशय यह है कि अन्यमत के श्रद्धानी के जो कदाचित् शुभलेश्या के निमित्त से पुण्य का भी बंध हो तो उसको पाप ही में गिनते हैं । जो जिन-आज्ञा में प्रवर्तता है उसके कदाचित् पाप भी बँधे तो वह पुण्यजीवों की ही पंक्ति में गिना जाता है, मिथ्यादृष्टि को पापी जीवों में माना है और सम्यग्दृष्टि को पुण्यवान् जीवों में माना है । इसप्रकार पापबंध के कारण कहे ।।११७।।