शीलपाहुड गाथा 33
From जैनकोष
आगे इस कथन का संकोच करते हैं -
एवं बहुप्पयारं जिणेहि पच्चक्खणाणदरसीहिं ।
सीलेण य मोक्खपयं अक्खातीदं य लोयणाणेहिं ।।३३।।
एवं बहुप्रकारं जिनै: प्रत्यक्षज्ञानदर्शिभि: ।
शीलेन च मोक्षपदं अक्षातीतं च लोकज्ञानै: ।।३३।।
अरे! जिसमें अतीन्द्रिय सुख ज्ञान का भण्डार है ।
वह मोक्ष केवल शील से हो प्राप्त - यह जिनवर कहें ।।३३।।
अर्थ - एवं अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार तथा अन्य प्रकार (बहुत प्रकार) जिनके प्रत्यक्ष ज्ञान दर्शन पाये जाते हैं और जिनके लोक अलोक का ज्ञान है ऐसे जिनदेव ने कहा है कि शील से-अक्षातीत जिसमें इन्द्रियरहित अतीन्द्रिय ज्ञान सुख है ऐसा मोक्षपद होता है ।
भावार्थ - सर्वज्ञदेव ने इसप्रकार कहा है कि शील से अतीन्द्रिय ज्ञान सुखरूप मोक्षपद प्राप्त होता है, अत: भव्यजीव इस शील को अंगीकार करो, ऐसा उपदेश का आशय सूचित होता है, बहुत कहाँ तक कहें इतना ही बहुत प्रकार से कहा जानो ।।३३।।