योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 111
From जैनकोष
आस्रव के विशेष कारण -
मिथ्यादृक्त्वमचारित्रं कषायो योग इत्यमी ।
चत्वार: प्रत्यया: सन्ति विशेषेणाघसंग्रहे ।।१११।।
अन्वय :- मिथ्यादृक्त्वं, अचारित्रं, कषाय: (च) योग: इति अमी चत्वार: विशेषेण अघसंग्रहे प्रत्यया: सन्ति ।
सरलार्थ :- मिथ्यादर्शन, असंयम, कषाय और योग - ये चार परिणाम पाप के आस्रव में विशेषरूप से कारण हैं ।
भावार्थ :- कर्म के आस्रव और बन्ध के कारण सामान्यत: एक ही प्रकार से यहाँ कहे गये हैं । समयसार गाथा १०९ और गोम्मटसार कर्मकाण्ड की गाथा ७८६ में भी ये ही कारण कहे गये हैं, जिन्हें हम यहाँ उद्धृत कर रहे हैं । समयसार की १०९वीं गाथा इसप्रकार है :- सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो । मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ।। गाथार्थ :- निश्चय से चार सामान्य प्रत्यय बन्ध के कर्ता कहे जाते हैं; वे मिथ्यात्व, अविरमण, कषाय और योग जानना । और गोम्मटसार कर्मकाण्ड की ७८६वीं गाथा का पूर्वार्द्ध निम्नप्रकार है - मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य आसवा होंति । गाथार्थ :- मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग - ये चार मूल आस्रव हैं । तत्त्वार्थ सूत्र (अध्याय ८, सूत्र १) में भी इन्हीं के साथ प्रमाद को पृथक् करते हुए बंध के पाँच हेतु कहे गये हैं - `मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतव: ।' अन्यत्र प्रमाद को कषाय में गर्भित किया जाता है । इनमें से मिथ्यात्वादि चारों परिणामों को मोह अथवा मोह-राग-द्वेष अथवा कषाय भी कहा जाता है । इन सब कारणों में मिथ्यात्व अर्थात् दर्शन मोह परिणाम ही प्रधान है । चारित्रमोह के परिणाम को ही असंयम (अविरमण), प्रमाद और कषाय के रूप में कहा गया है । विपरीत मान्यता अर्थात् वस्तुस्वरूप के विरुद्ध मान्यता को मिथ्यात्व कहते हैं । निजात्मस्वरूप के अज्ञान से पर में अहंकार-ममकार ही मिथ्यात्व है । जीवादि सात तत्त्वों के अन्यथा श्रद्धान को मिथ्यात्व कहते हैं । यथार्थ देव-शास्त्र-गुरु को न मानकर रागी-द्वेषी देवी-देवताओं को मानना भी गृहीत मिथ्यात्व कहलाता है । मिथ्यात्व के स्वरूप को विशेष जानने के लिए पण्डित टोडरमल स्मारक ट्न्स्ट से प्रकाशित `गुणस्थान-विवेचन' पुस्तक के मिथ्यात्व गुणस्थानवाले प्रकरण को देखना लाभदायक होगा । पाँच इंद्रिय व मन के विषयों से तथा षट्कायिक जीवों के घात से विरत न होना ही अविरति है । पाँच इन्द्रिय, चार विकथा, चार कषाय, निद्रा व स्नेह - इन पंद्रह भेदों को प्रमाद कहा जाता है । अनन्तानुबन्धी आदि के भेद से क्रोधादि के सोलह भेद व हास्यादि नौ-नोकषायों को ही कषाय कहते हैं । मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को योग कहते हैं ।